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Aatish Market

शहरों में जगहों के नाम कुछ यूँ ही नहीं हुआ करते है; उनके पीछे होता है उनसे जुड़ा एक इतिहास और उस इतिहास की एक यात्रा जो उन जगहों को कुछ अलग ही तरह से प्रसिद्द कर जाती है। इसी क्रम में जयपुर में एक बहुत ही प्रसिद्ध बाजार है जो पहले टूल्स, पार्ट्स, सेनेटरी आइटम्स, पाइप्स, वाटर टैंक्स और दूसरे भवन निर्माण के सामानों का सबसे बड़ा थोक और खुदरा बाजार था। हालाँकि आज भी यह सभी सामान उस जगह मिल रहे हैं परन्तु अब वह उस बाजार का गढ़ नहीं है। बाजार में बढ़ती भीड़ को देखते हुए उसे दूसरी जगह स्थानांतरित कर दिया गया है।

यह जगह है आतिश मार्किट

आतिश, शब्द आतिशबाज़ी में तो सभी का सुना हुआ है पर आतिश मार्किट, इसका क्या अर्थ हुआ? क्या इसका सम्बन्ध कुछ बारूद वगेहरा से तो नहीं जो आतिशबाज़ी में काम आते हैं?

तो चलिए आज चलते हैं जयपुर के प्रसिद्ध वेजिंग मशीन, साइंटिफिक लेबोरेटरी केमिकल्स, सनेटोरी एंड टूल्स मार्किट में जिसकी खाली जगह को नगर निगम ने काफी सालों से शहर में पार्किंग की समस्या को सुलझाने के लिए पेड पार्किंग बना रखा है हालाँकि पार्किंग की समस्या सुलझी या नहीं यह एक विवाद का विषय है (आशा करता हूँ व्यंग को समझेंगे)।

देश में उस समय जब जयपुर शहर बन रहा था फ़ारसी और यवनी भाषा का वर्चस्व था, मुअत्तली का परवाना यवन, यवनी में लिखा ही लाया करता था अतः कारखानों के नाम जय सिंह ने अपनी और उनकी सुविधा के अनुसार हिंदवी और यवनी दोनों में रखे, आगे माधो सिंह प्रथम की आज्ञा से दलपति राय ने संस्कृत में “राज रीती निरूपण शतकम” लिखा जिसमे यवन और हिंदी परिपट्यानुसार कारखानों के नाम निश्चित कर दिए गए। कारखानों की स्थापना के पीछे उद्देश्य यही होगा की विद्वान्, कवि, लेखक, चित्रकार, गायक-वादक और नर्तक, शिल्पी और जौहरियों को राजकीय संरक्षण दिया जाये।

जयपुर के राजाओं की घुड़साल जिसे जयपुर वाले आतिश के नाम से जानते हैं कोतवाली चौपड़ से त्रिपोलिया तक फैली हुई है। ‘आत’ एक तुर्की शब्द है जिसका अर्थ घोडा होता है। आतिश के मैदान (पार्किंग स्पेस) में घोड़ों की नम बालू मिट्टी में दौड़ करवाई जाती थी ताकि उनकी कसरत होती रहे। रामसिंह जी से पहले आतिश ने कुछ अच्छे दिन नहीं देखे थे लगभग 75 वर्षों तक उसका हुलिया बिगड़ रहा था और टूटा फूटा था। मैदान भी फर्राशखाने और मशालखाने का गोदाम बन गया था और गन्दगी से भरा रहता था। जब रामसिंह जी ने सारे जयपुर को सुधारा-संवारा तो आतिश के भी दिन फिरे, अस्तबल के सारे ठानों की मरमत करवाई गई, मैदान को साफ़ करवाकर समतल बनाया गया और त्रिपोलिया के दरवाजे के पास एक और दरवाजा निकलवाया गया। पहले आतिश का एक ही दरवाजा था जो इस नए गेट के बिलकुल सामने महल की तरफ है। नए दरवाजे पर एक बहुत खूबसूरत कमरा भी बनाया जिसमे फ्रेस्कोस भी बनाये गए, जिसमे कुछ समय तक स्वतंत्रता संग्राम के अंतिम चरण का कार्यालय भी रहा, पहले इसमें जोधपुर, उदयपुर आदि के महाराजों को ठहराया जाता था। प्रिंस ऑफ़ वेल्स जिन्होंने जयपुर को पेरिस ऑफ़ ईस्ट की संज्ञा दी है भी एक महीने के लम्बे जयपुर प्रवास के दौरान इस आतिश महल में रहे थे, यह कुछ 1876 की बात रही होगी।

राम सिंह जी से पहले ध्यान न दिए जाने के कारण सईस-चाकरों की आदतें बहुत बिगड़ चुकी थी वे घोड़ों को कसरत कराना तो दूर उनको बाहर भी नहीं निकालते थे उनका राजकोष से आने वाला गुड़ चना भी खुद खा जाते थे (शायद इसी भ्रष्टाचार को देखते हुए हाल में नगर निगम हेरिटेज का कार्यालय इसी चौक के पास बनाया होगा)। राम सिंह ने अपने विश्वस्त अधिकारीयों को नियुक्त कर सुस्ती, भ्रष्टाचार और लापरवाही का काम तमाम किया और घोड़ों को बांधने के लिए सुघड़ खूंटे लगवाए और उनके बाहर परदे लटकवाये ताकि सर्दी, गर्मी और बरसात में जानवरों की हिफाजत रहे। महाराजा ने अस्तबल के साथ सईसों और पशु चिकित्सकों के आवास बनवाये, पशु भोजन के लिए भंडार बनवाये। आतिश के मैदान में महाराजा ने सुन्दर बारहदरी भी बनवाई जो आज भी है। 1957 तक महाराजा मानसिंह के पोलो के घोड़ों का अस्तबल यही था जिसमे बिजली के पंखे चला करते थे।

आतिश के बाजार बन जाने पर आगे की ओर पश्चिम में एक दरवाजा और निकला गया जो आज कल इस मार्किट का प्रवेश द्वार है यह मिर्जा इस्माइल ने करवाया।

आतिश के ही अहाते में वह लाट है जो आज तक गुलाबी नगरी की आकाश रेखा बनी हुई है, जयपुरवासी इसे सरगासूली या स्वर्गा-सूली कहते है परन्तु इसका अधिकृत नाम ईसर-लाट है जिसे सवाई ईश्वरी सिंह जी ने बनवाया था।

आतिश, घुड़साल या अस्तबल की यात्रा काफी उतर चढाव वाली रही है सवाई जय सिंह जी ने बनवाया आने वालों ने ध्यान नहीं दिया फिर रामसिंह जी से मानसिंह जी के समय तक सुनहरा समय देखा फिर प्रसिद्ध बाजार और गोदाम बन गया व्यापार का केंद्र था जिसे भीड़ अधिक होने के कारण गुर्जर की थड़ी के पास न्यू आतिश मार्किट के नाम से शिफ्ट किया गया परन्तु अब भी बाजार तो है जिसे शहर में नए आने वाले ओल्ड आतिश मार्किट कहते है, जिसमे पार्किंग को खचाखच भर दिया गया है, विदेशी पर्यटकों के ईसरलाट में आने के कारण कुछ ब्लॉक प्रिंट वाले और सामने मनिहारों के रस्ते से कुछ चूड़ी वाले आकर दुकान लगा लिए है।

अगली बार कभी आतिश मार्किट जाइएगा तो देखिएगा की कैसे एक एक घोड़े के अस्तबल जितनी जगह में एक एक दुकान चल रही है, घोड़ों को हवा देने के लिए लगाए गए पंखों की पुरानी रॉड्स आज भी उनमे लटक रही है। रोड चौड़ी होने पर भी दुकानों द्वारा किये गए अतिक्रमण और विथाउट परमिशन लेन बुक किये पार्कड व्हीकल्स के कारण संकरी सी लगती है जिस कारण आमने सामने दो गाडी आ जाये तो निकल नहीं पाए और व्यस्त घंटों में जाम लगा रहता है। बाजार के 2 दरवाजों को आज भी शाम 8 बजे तक बंद कर दिया जाता है बस आवागमन के लिए महल से त्रिपोलिया वाला गेट जिसे रामसिंह जी ने बनवाया था, खुला रहता है।