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Martin Sahab ka Chowk

जब मिर्जा राजा सवाई जयसिंह जी 1720 में अपने सपनों की नगरी जयपुर को बसाने के बारे में सोच रहे थे तब काफी सोचा विचारी से उन्होंने अपने मित्र और सहपाठी विद्याधर जी चक्रवर्ती को अपना मुख्य नगर योजनाकार बनाया। चूंकि वह बहुत कम उम्र में ही गद्दी पर आ गए थे इसलिए जोश और नए विचारों से हमेशा ओतप्रोत रहते थे। प्रशासन, ज्योतिष, वेधशाला, वास्तुकला, खगोलशास्त्र, भूगोल, ज्यामिति इत्यादि के प्रकांड ज्ञाता को अपने इन्ही विचारों से सम्मिलित एक सुनियोजित नगर बसने का विचार आया और इसकी योजना शुरू हुई।

जब राजकुमार जय सिंह अध्ययन कर रहे थे उस समय भारत में औरंगजेब का शासन था, 1528 में भारत आये पुर्तगाली तब तक मुग़ल दरबार में अच्छा सम्मान ले चुके थे और अच्छे पदों पर आधिपत्य हो चुका था। भयंकर राजनीतिक उथल पुथल का समय था, औरंगजेब का अत्याचार काफी था और आतंरिक विद्रोह फिर से अपने चरम पर था। जिससे उसके पुत्रों में भी आपसी द्वंद्व पैदा हो गया था और गोलकोण्डा के युद्ध के बाद औरंगजेब अधिक समय तक नहीं रह पाए और बहादुर शाह I अगले मुग़ल बादशाह बने। पद ग्रहण करने पर परंपरा अनुसार सभी को अपने उच्च अधिकारी के समक्ष प्रस्तुत होना पड़ता है उसी प्रकार जय सिंह भी आमेर की गद्दी को ग्रहण करने के बाद औरंगजेब के सामने प्रस्तुत हुए थे जहां से उन्हें पुर्तगाली वास्तुकला और विज्ञान के ज्ञाता ज़ेवियर डे’सिल्वा जैसा मित्र मिला। ज़ेवियर डे’सिल्वा जय सिंह के साथ आमेर आये और विद्याधर जी के सानिध्य में नए नगर के मानचित्रकार बन गए।

नगर का निर्माण कैसे हुआ और किन प्राकृतिक और खगोलिया सन्दर्भों को लेकर इसे बनाया गया उस बारे में चर्चा कभी और पर यहां एक व्यक्ति बहुत महत्वपूर्ण भूमिका में प्रस्तुत होते है जिनका नगर के इतिहास में भी कुछ खास वर्णन नहीं है परन्तु शहर की बनावट और इसकी इमारतों में उसका प्रभाव देखते ही बनता है। जयपुर को पर्यटकों द्वारा राजपूत-मुग़ल आर्किटेक्चर का एक अद्भुत नमूना माना जाता है जबकि यह शहर राजपूत-मुग़ल-पुर्तगाली शैली से बना विश्व का सबसे पहला सुनियोजित शहर है। इस शहर का यह स्पर्श आया ज़ेवियर डी’सिल्वा के कारण, जिनका परिवार जयपुर की योजना और नियोजन के समय से ही जयपुर में रह रहा है।

ज़ेवियर जैसा की मैंने बताया एक उत्तम वास्तुकार और मानचित्रकार थे की लिगेसी को आगे लेकर आये उनके पुत्र पाड्रो डे’सिल्वा, जो सवाई माधो सिंह जी प्रथम के समय तक नगर नियोजक रहे और फिर आये मार्टिन डे’सिल्वा, जो सवाई राम सिंह जी के समय तक रहे और उन्ही की वजह से आज सभी इस सुनियोजित शहर को सुन्दर गुलाबी नगरी के नाम से जानते है।

इस परिवार के इतिहास के बारे में बहुत अधिक जानकारी दस्तावेजों में उपलब्ध नहीं होती है परन्तु यह परिवार एक समय पर खवास जी की हवेली के पास गंगापोल के नजदीक कहीं हवेली में रहा करता था। यह सभी बातें वैसे तो खवास जी और राजा माधो सिंह II से पहले की है। जोरावर सिंह गेट और चांदी की टकसाल के बीच कहीं इनकी पारिवारिक कोठी हुआ करती थी और उसी के कारण उस जगह को मार्टिन साहिब का चौक कहा जाता था। एक शहर जो सुनियोजित है में किसी चौराहे का नाम आपके नाम पर होने बेशक एक सम्मान का ही रूप है, पर क्या कभी आपने सुना है जयपुर में कोई मार्टिन साहिब का चौक भी है?

परिवार की महत्ता समय के साथ कम होती गई क्यूंकि शहर को अब नियोजकों, योजनाकारों से अधिक कुशल प्रशासकों और अर्थशास्त्रियों की आवश्य्कता थी। जब नगर नियोजन और नए विस्तार के लिए मिर्जा इस्माइल को बुलाया गया और तो मान सिंह जी ने घाट के पास एक बहुत खूबसूरत उद्यान से साथ कोठी ज़ेवियर जी के परिवार को दे दी जहाँ वे आज तक रह रहे हैं। हाल में वह जगह घाटगेट के पास है।

परिवार के लोग आज भी जयपुर में है और मिर्जा राजा सवाई जय सिंह जी ने ज़ेवियर जी को उत्कृष्ट कार्यों के लिए नींदड़-बैनाड़ की जागीर भी दी थी जो आज भी एक पुर्तगाली परिवार की जागीर है।

पुर्तगालियों का भारत में समुद्री मार्ग से आगमन सबसे पहले हुआ था और उन्होंने सबसे देर तक शासन भी किया, गोवा को पुर्तगालियों से 19 दिसंबर 1961 को आज़ादी मिली परन्तु इन्होने कभी देश को लूटने का प्रयास नहीं किया ये व्यापार करने आये थे, व्यापारी रहे हालाँकि वातावरण की बहत हवा सभी को उड़ा जाती है अतः एक समय यह भी शासन करने लगे परन्तु इनका फैलाव गोवा और बॉम्बे तक ही सीमित रहा, जो परिवार इन स्थानों से अन्य स्थानों पर गए वहीँ के हो रह गए, परम्पराओंऔर संस्कृति में मिल गए बिलकुल पारसियों की तरह।

जब देश आज़ाद हुआ और सरदार पटेल जी जयपुर में सवाई मान सिंह जी से भेट करने और जयपुर का मत्स्य संघ या राजस्थान में विलय करने आये तब डेक्लेरेशन डे वाले दिन मान सिंह जी ने मार्टिन साहिब के चौक का नाम पटेल जी के परम मित्र और देश के एक महान शहीद स्वतंत्रता सेनानी के नाम पर रख दिया जिसे आज आप सुभाष चौक के नाम से जानते है।

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Chaura Rasta and New Gate/Naya Pol/ Maan Pol

जब मानसिंह जी और गायत्री देवी जो की उनकी तीसरी पत्नी थी का विवाह हुआ तो वे अधिकतर समय उनके साथ रामबाग पैलेस (हाल में होटल रामबाग पैलेस को ताज ग्रुप ऑफ होटल्स द्वारा मैनेज किया जा रहा है) और शिकार का समय रामगढ़ लॉज (आईएचसीएल होटल्स) में बिताने लगे।

सवाई मानसिंह जी गायत्री देवी से विवाह के समय कुछ 21 वर्ष के रहे होंगे और पोलो के बहुत से बेहतरीन खिलाड़ी थे। उस समय वे इंग्लैंड से मिलिट्री ट्रेनिंग लेकर लौटे ही थे और जयपुर की नयी और पहली पोलो टीम बनाई फिर कोलकाता कप खेलने गए और उसे जीता भी साथ ही गायत्री देवी का मन भी जीत लिया।

पुराने समय में त्रिपोलिया की तरफ राजकीय पोथीखाना हुआ करता था और कुछ सर्वतो भद्रः शैली के प्रसिद्ध राजसिक मंदिर भी थे जो आज भी अपनी वास्तुकला और स्थापत्य के लिए जाने जाते है जैसे: ताड़केश्वर जी, राधा दामोदर जी, मुरली मनोहर जी, श्री सीताराम जी, काले गणेश जी, तत्काल भैरव इत्यादि।

हाल ही में जयपुर नगर निगम द्वारा रात्रिकालीन पर्यटन को बढ़ावा देने के लिए इन सभी पर फोकस लाइट्स और डीप लाइट्स को लगाया गया है।
उस समय का प्रसिद्ध पोथीखाना आज महाराजा पुस्तकालय के नाम से प्रचलित है और अपने अंदर जयपुर के हस्तनिर्मित नक्शों से लेकर संस्कृत, हिंदी, उर्दू, इंग्लिश के पुराने से लेकर नए साहित्य, विषय पुस्तकें और सरकारी दस्तावेजों को सहेजे है, 5 खंडों में फैले इस पुस्तकालय में लगभग 2 लाख से अधिक पुस्तकें है और जिनमे से कई तो आज लगभग 200 साल पुरानी हो गई है। अंतिम बार 1914 में जारी की गई कुछ इंग्लिश नोवेल्स तो मैने ही ढूंढी है वहां

खैर पुस्तकालय पर एक दिन पूरा वृतांत ही लिखना पड़ेगा अब आते है रास्ते पर, यह रास्ता पहले राजकीय सेवा में रहे या राजा के करीबी रहे महत्वपूर्ण व्यक्तियों का हुआ करता था जैसे दुर्लभ पत्थरों के बड़े व्यापारी, जयपुर एंपोरियम के भाग बड़े रंगाई छपाई वाले और अन्य मंत्री। यह सुरक्षा की दृष्टि से एक आम रास्ता नहीं था बल्कि यह एक सुरक्षित जगह थी और लोग सांगानेरी गेट और अजमेरी गेट से आया जाया करते थे।

रास्ता शहर के मुख्य लोगों के निवास स्थान को महल से जोड़ता था इसलिए इसे हमेशा घोड़ागाड़ी और मोटर व्हीकल के लिए सबसे चौड़ा बनाया गया। इसकी चौड़ाई बस उदय पोल के गेट वाले रास्ते से थोड़ी ही काम है।

जब मानसिंह जी का आना जाना रामबाग की तरफ ज्यादा हुआ और वे स्वयं सक्रिय रूप से शहर के विस्तार को देख रहे थे तब उन्होंने हैदराबाद के दीवान रहे मिर्जा मोहम्मद इस्माइल को जयपुर का दीवान बनाया और सिटी प्लानिंग की जिम्मेदारी सौंपी। इसके अंतर्गत शहर के परकोटे के बाहर कॉलेज को लगता एक सुंदर उद्यान संरक्षित किया गया उसमे से कुछ रास्तों को आरक्षित किया गया

शहर के बाहर ए स्कीम (सांगानेरी गेट से मोती डूंगरी की ओर) बी स्कीम (अजमेरी गेट से पंचबट्टी की ओर) और सी स्कीम (इनके बीच का हिस्सा) बना कर पहली बार प्लॉट काटे गए, इन प्लॉटों का आकार क्रमशः 3000, 2000 और 1000 वर्ग गज था। परकोटे के समानांतर एक चौडी सड़क का निर्माण किया गया जिसे बाद में महाराजा ने मिर्जा इस्माइल जी के उत्कृष्ट कार्यों के कारण मिर्जा इस्माइल रोड (M I Road) नाम दे दिया।

अब चूंकि शहर की जनसंख्या काफी अधिक हो चुकी थी और महाराज का अधिकतर समय परकोटे से बाहर के महलों जैसे रामबाग, मोती डूंगरी (लिलीपूल फोर्ट), मानसिंह भवन में बीतने लगा तो मिर्जा को लगा के सीधे महल से जुड़ते हुए आने जाने के लिए एक रास्ता होना चाहिए तब उन्होंने सवाई मानसिंह जी को अजमेरी गेट और सांगानेरी गेट के बीच एक और गेट होने की आवश्यकता से अवगत करवाया, चूंकि शहर काफी बढ़ चुका था और महत्वपूर्ण लोग अपने को सुरक्षित समझते थे इसलिए उन्हें भी यह विचार हाथोंहाथ पसंद आया और जैसा ही हर बार होता है जब राजा और अन्य महत्वपूर्ण व्यक्तियों को कोई विचार पसंद आता है तो उसे बनने में समय नहीं लगता है।

तो इस तरह एक नए द्वार को उस महत्वपूर्ण रास्ते पर परकोटे की दीवार तोड़ बनाया गया और चूंकि यह सबसे नया गेट था और अंग्रेजी का अलग ही रौब था तो इसे सभी के द्वारा न्यू गेट के नाम से जाना जाने लगा और आज भी यह जयपुर के महत्वपूर्ण और व्यस्ततम रास्तों और गेट्स में से है।

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Purohit Ji Ka Katla

आज चलते हैं महल के पास और जयपुर की विश्व प्रसिद्ध जगह पुरोहित जी के कटले पर


पुरोहित जी का कटला बड़ी चौपड़ पर हवामहल के मुख्य द्वार के सामने स्थित है।

पुरोहित जी की रियासत के साथ निकटता का और उनकी महत्वपूर्णता का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है की महल से सबसे नजदीक, बड़ी चौपड़ पर और वह भी हवामहल के द्वार के सीधे सामने एक ही रिहाइश थी और वह था “सर गोपीनाथ पुरोहित” का निवास जिसे आज आप पुरोहित जी का कटला या कटला के नाम से जानते हो।


औपचारिक जलसों में माधोसिंह जी के सामने सबसे छोटी सीट पर होम मिनिस्टर सर पुरोहित गोपीनाथ और खास मर्जीदान खवास बाला बख्श बैठा करते थे।


जयपुर राज्य की दुग्धशाला हुआ करती थी जिन्हें ग्वालेरा कहा जाता था यह विचार पुरोहित जी को बड़ा भाता था। वे और महाराज रोज सुबह नगर में जनानी ड्योढी के सामने लंबे चौड़े नोहरे पर स्थित ग्वालेरा पर दर्शनी से, गायों बछड़ों से भरे पूरे ग्वालेरा को देखते हुए दूध पीते थे। राजमहल की दूध की आवश्यकता भी ग्वलेरा से ही पूरी होती थी। चुकीं यहां जगह काफी थी तो राज की ओर से होने वाले बड़े बड़े “हेडे” हजारों लोगों के सामूहिक भोज का आयोजन भी यहीं हुआ करते थे जो पहले हवामहल और गोवर्धन नाथ जी के मंदिर में हुआ करते थे।

पुरोहित गोपीनाथ जी की डायरी कहती है की 26 जनवरी 1921 शाम साढ़े चार से पांच बजे तक रावराजा (दासी पुत्र) बड़ा तेजसिंह के सबसे बड़े बेटे की बारात में गया जो सरगाह सूली के सामने राणावत जी के मंदिर से आरंभ होके जनानी ड्योढी के सामने ग्वालेरा तक गई थी। ग्वालेरा से लौट कर बड़े बेटे जिसकी बारात जा रही थी के ज्येष्ठ पुत्र की बारात में शामिल हुआ साढ़े पांच से छः बजे तक। ये शादी दो बहनों के साथ हुई जो दो अलग अलग माताओं की बेटियां है, अर्थात पिता और पुत्र एक दूसरे से साडू हुए और दो बहने सास बहू। दोनो ने एक ही पोल पर तोरण मारी, ऐसे विवाह यहां न कभी देखे गए न सुने गए, ये विवाह सचमुच ही अनोखे और अमान्य थे।

खबर का कारखाना या महकमा राजा का इंटेलिजेंस डिपार्टमेंट था जिसे पुरोहित जी अपने समय में हेड किया करते थे। अखबार तो थे नहीं पर खबर के पर्चे बड़ी फुर्ती और मुस्तैदी से आते थे और सभी खुरापाती और बदमाश डरा करते थे की था पर्चा पुरोहित जी या राजा के हाथ न लग जाए। इन सभी का दस्तावेज पुरोहित जी की डायरी में है जैसे 1914 का एक पन्ना कहता है की इत्तला हुई की एक शख्स के ट्रांसपोर्ट की गाड़ी से बाजार में किसी को चोट लगी। 10 अप्रैल का पर्चा कहता है की एक औरत ने मुशरिफ (कस्टम का दारोगा) को किसी व्यक्ति को शहर के अंदर ले जाने के लिए चिट्ठी सौंपी थी (तब शहर के दरवाजे 11 बजे बंद कर दिए जाते थे)। 1923 में आदेश हुआ चांदपोल दरवाजे को रात भर खुला रखा जाए।

11 अप्रैल 1914 को पर्चा मिला की अंग्रेज रेजिडेंट कैंप के पास मधुमक्खी का छत्ता टूट गया और सभी को डंक लगे है
एक दिन गौरीशंकर नामक खबरनाविस (क्राइम रिपोर्टर) से पर्चा मिला की चौमू के ठाकुर देवीसिंह की मोटर से एक भिखारिन की टक्कर हो गई है। एक दिन पर्चा आया गलता में दो ब्रह्मणियां डूब कर मर गई है और यह एक फौजदारी पर्चा था।

महाराजा मानसिंह की नाबालिगी (1922-31) के दौरान स्टेट कौंसिल के वाईस प्रेसिडेंट और महाराजा माधो सिंह (1907-1922) के समय में कौंसिल मेंबर रहने वाले सर गोपीनाथ पुरोहित जयपुर के सबसे पहले एम. ए. भी थे।

चूंकि पुरोहित जी होम मिनिस्टर थे तो उनका संबंध इन सब चीजों से आजीवन रहा और मृत्यु के बाद कोई पारिवारिक व्यक्ति कुछ खास नहीं कर सका।
इस संबंध में दो विचार दिए जाते है एक कहता है की पुरोहित जी के पुत्र के कोई संतान नहीं होने के कारण उनकी हवेली को उनके रिश्तेदारों ने बांट लिया और राजशाही खत्म होने के बाद सभी बिखर गए और बंटवारे से हुए हिस्सों में आज का बाजार है
दूसरा कहता है की पोते के न होने के कारण और समानांतर में राजशाही के स्वामित्व के चले जाने के कारण हवेली को अवसरवादी लोगों ने बांट लिया और आज उस बनते हुए हिस्सों में बाजार चलता है।

सच दोनो में से जो भी हो पुरोहित जी की लैगेसी को ऐसा तो न ही होना चाहिए था परंतु समय से बलवान कोई नहीं है। आज पुरोहित जी का कटला जैसा भी है कम से कम बाजार होने के कारण सहेजा हुआ है वरना यह भी शायद कहीं खवास जी की हवेली की तरह बंद पड़ा होता।

जाइए और दुकानों के अलावा हवेली को भी निहारिए और महसूस कीजिए की एक समय इस स्थान पर राज्य का होम मिनिस्टर कैसे रहा करता होगा।

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Khawas Ji Ka Rasta

खवास जी का रास्ता चांदी की टकसाल जयपुर

इस रास्ते की खास बातों में कुछ चीजें आती है

  1. यहां पर सबसे पुराना गद्दों का बाजार है।
  2. यहां जयपुर का सबसे प्रसिद्ध साइकिल रिक्शा और व्हीलचेयर ट्राइसाइकिल बनाने वाला है।
  3. सबसे महत्वपूर्ण यहां जयपुर राज के सबसे खास आदमी की हवेली है जिसके खास होने के कारण रास्ते का ही नाम खवास जी का रास्ता पड़ गया

खवास जी या फिर कहे की श्री बाला बक्स खवास(ढूंढाड़ी)/खास सवाई मानसिंह जी द्वितीय के राजस्व अधिकारी थे।

महाराजा माधोसिंह के विशेष कृपापात्र खवास बालाबख्श को उन्होंने चौकीखाने में ही एक हवेली आवंटित कर रखी थी क्योंकि वह महाराजा के शयन करने तक उनके साथ छाया की तरह लगा रहता था; जो आज खवास जी की हवेली के नाम से चांदी की टकसाल पर है।

महाराजा माधो सिंह जी के समय खवास जी कपड़द्वारे का काम देखते थे। उन्हे “हुक्म श्री जी जबानी खवास बाला बख्श” के नाम से सभी जानते थे पर इसी लगाव का बाद में खामियाजा उठाना पड़ा और कपड़द्वार के गबन का कुसूरवार उसे ही ठहराया गया। उस समय मोती डूंगरी की गढ़ी में खूंखार जानवर घूमते थे और वह एक जंगल था और खवास जी वहां नजरबंद रहे।

सवाई जगतसिंह जी के समय जाति से दर्जी रोडाराम खवास प्रधानमंत्री के पद तक पहुंचे थे और उन्हे लोग “सुई शमशेर गज बहादुर खवास रोडाराम” कहते थे। पहले आज का दुर्गापुरा, रोडाराम की जागीर होने के कारण रोडपुरा कहलाता था। बाला बख्श जी उन्ही के वंशज थे और माधोसिंह जी की निकटता के कारण इनका इतना जोर हो गया था की हर महकमे में हुक्म श्रीजी जबानी खवास बाला बख्श, मार्फत लाला हरिनारायण, बजरिए धलैत चलता था।

18 मई 1920 को महाराज की तबियत नासाज होने के कारण प्रीतम निवास में खवास बाला बख्श ने महाराजा की ओर से बालानंदजी के महंत ने भेंट करी और शाम को 159 कैदी छोड़े गए और रात को प्रीतम निवास में सरदारों की गोठ का आयोजन किया गया, फतेह का टीबा पर हमेशा की तरह सलामी की तोपें छोड़ी गई।

खवास जी के रियासत दिनचर्या के अनेकों किस्से है पर उनके जीवन का अंतिम पड़ाव सही नहीं रहा। पुत्र और पुत्रियों के बीच जमीन और जायदाद को लेकर विवाद रहा वे खुद भी खूंखार जानवरों के बीच नजरबंद रहे।

आज खवास जी की हवेली बंद पड़ी है, यद्यपि कुछ समय से यहां के एक बड़े और अविवादित भाग में होटल चल रहा है। जगह के अभाव के कारण यह एक 10 कमरों का बहुत साधारण सा होटल बन कर रहा गया है, और अपने अंदर विभिन्न प्रकार के फ्रास्कोस को सहेजे है, आर्कियोलॉजी को जहां ध्यान देना चाहिए पर वे दे नहीं पा रहे है, रामप्रकाश की तरह ये भी विवादित पड़ी है और आज इसके साथ में मेरठवाला और गद्दों का व्यापार खूब चल रहा है।

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Naraian Singh Circle (Name and Behind)

चलिए आज शुरू करते है जयपुर की ही एक बहुत प्रसिद्ध जगह नारायण सिंह सर्कल से, राजापार्क में भी एक रोड का नाम ठाकुर नारायण सिंह रोड है। आखिर क्यों यह नाम इस जगह को दिया गया।

नारायण सिंह सर्कल पर है नारायण निवास होटल जो पहले नारायण निवास हवेली हुआ करता था। इसी नारायण निवास के नाम से इस सर्कल का नाम प्रसिद्ध हुआ और यह नारायण निवास कानोता के ठाकुरों का राजधानी निवास हुआ करता था।
गौरतलब, जिस तरह राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली में लगभग सभी राज शासित प्रदेशों के निवास है जैसे राजस्थान हाउस (GOR), हैदराबाद हाउस (GOI), कोटा हाउस, बीकानेर हाउस (RTDC), धौलपुर हाउस (UPSC)।

इन सभी हाउसेस का निर्माण इन्ही राज्यों के राजाओं द्वारा करवाया गया था और जब वह ब्रिटिश पार्लियामेंट में किसी काम से आते थे या दिल्ली किसी भी काम से आते थे अपने इन्ही हाउसेस में रुका करते थे। स्वतंत्रता के बाद इन सभी को राजाओं ने स्वेच्छा से राज्य व केंद्र सरकार को इस्तेमाल के लिए दे दिया था और आज वह सरकारें इनका अपने कार्यालयों और अति महत्वपूर्ण व्यक्तियों के रेस्ट हाउस के रूप में प्रयोग कर रहे है।

उसी प्रकार राज्यों में उनके स्वामित्व में आने वाली जागीरों के जागीरदारों के आवास हुआ करते थे। इसी के तहत जयपुर जो की एक बहुत महत्वपूर्ण राज्य हुआ करता था में इनकी 18 जागीरों के हाउसेस है जिनमे से कुछ प्रसिद्ध निवास स्थान है सीकर हवेली (सीकर हाउस), चौमू हवेली (चौमू हाउस), अलसीसर हवेली, मंडावा हवेली, समोद हवेली, उनियारा हवेली, नायला हवेली (नायला हाउस) और नारायण निवास हवेली अतिरिक्त।

क्या आपने इस बात पर गौर किया की सभी हवेलियों के नाम उनके स्थानों के नाम पर या जागीरों के नाम पर है परंतु इस नारायण निवास का नाम एक व्यक्ति ठाकुर नारायण सिंह कानोता के नाम पर है। कुछ तो होगा ही ऐसा की एक हवेली का नाम व्यक्ति के नाम पर है, ओरल हिस्ट्री में किसी वंश का नाम या किसी स्थान का नाम व्यक्ति के नाम पर तभी दिया जाता है जब उस व्यक्ति का जीवन तेजस्वी रहा हो।

इसके सैंकड़ों उदाहरण आपके सामने है अतः उल्लेखित करना सही नहीं होगा

ठाकुर नारायण सिंह जी का जन्म कानोता ठिकाने में जनवरी 1851 में हुआ और वे 1908 से 1924 तक कानोता ठिकाने के ठाकुर और जयपुर राज्य की पुलिस के चीफ रहे। उस समय जयपुर के राजा मिर्जा राजा सवाई माधोसिंह२ जी और मिर्जा राजा सवाई मानसिंह२ जी रहे।
राजा माधो सिंह जी के साथ उनकी बहुत जी घनिष्ट मित्रता थी और दोनो ही राज्य की व्यवस्था को अच्छे से संभालते रहे।

राजधानी की सुरक्षा अतिमहत्वपूर्ण कार्य था और नारायण सिंह एक बहुत ही कुशल प्रहरी थे। उनके खौफ का मंजर इतना अधिक था की डकैत और चोर राजधानी के आस पास आते भी नहीं थे। वे शहर के चप्पे चप्पे से अवगत थे और खवास जी की मदद के लिए कई बार राजस्व वसूली के लिए भी जाते थे।

आर्काइव 1: 17 सितंबर 1914; कहा जाता है एक बार नारायण सिंह जी आमेर की ओर अपने बुर्ज पर प्रहरियों का अवलोकन करने गए और वहां से उन्होंने शिवकुंडा के कुंड से नहाकर किसी को निकल कर जाते देखा। उन्हे शक हुआ की इस समय यह कौन है जो इतनी रात गए यहां से निकल रहा है और इसके पास घोड़ा भी है। चूंकि डाकू राज्य के आस पास भी नहीं भटकते थे तो उन्हें शक हुआ और वे उस तरफ बढ़े और पहाड़ी क्षेत्र होने से सामरिक लाभ रहा और सीधा उन्होंने उस व्यक्ति की गर्दन को पकड़ा और पूछा कुण हो?
वह व्यक्ति भी उन्ही को तरह काफी लंबा चौड़ा था परंतु उसने सीधे ही हथियार डाल दिया और बोला अन्नदाता म्हाने छोड़ द्यो मैं जाणु हूं थे कुण हो, थाके अलावा कोई म्हाकी गुद्दी कोन पकड़ सके।

बाद में उसने अपनी पहचान डाकू मंगत सिंह के रूप में बताई जो की उस समय अपने क्षेत्र में पुनः लौट रहा था। वह उस समय महुआ इसरदा क्षेत्र का काफी प्रसिद्ध डकैत था जिसका ईसरदा में आज भी स्मारक है।

आर्काइव 2: 22 दिसंबर 1914 को नारायण सिंह जी और माधो सिंह जी रात्रि भोजन के बाद बाहर शिकार के लिए औदी की और गए वहा से लौटते समय काफी देर हो गई और रास्ते में उन्हें डकैतों द्वारा लूट लिया गया, जब वापिस महल आए तो महाराज ने कहा की नारायण सिंह आज तो चोखी करवाई, थे काई काम करो हो आपना राज में म्हे ही लूट गया तो जनता काई सुरक्षित है।

नारायण सिंह ने कहा महाराज बा समय पे थाकी जान ज्यादा जरुरी ही थे आराम करो मैं सुभा आऊं हूं

सुबह वे लूटे हुए समान और कुछ और दूसरे सामानों के साथ सर्वतो भद्र में थे। महाराज ने पूछा की ओ काई नारायण तो वे बोले म्हासू बच अर थाके राज्य में कुन जायलो। मैं रात अर समस्या जड़ सूं खत्म कर आयो।


जब चंद्रशेखर आजाद को ब्रिटिश पुलिस ढूंढ रही थी तो वह कुछ समय जयपुर में भी अज्ञातवास पर थे और उस समय वे उन्ही की हवेली में जून 1928 से जुलाई 29 तक काफी बार आते जाते रहे। परंतु उस समय तक उनका देहांत 1924 में हो चुका था।

इस तरह के अनकों लिखित वकाये, दिनचर्या और उनकी नियुक्तियों के वर्णन, राजपत्र नारायण निवास पुस्तकालय और कानोता ठिकाना पुस्तकालय में मौजूद है। आज उस समय का उनके द्वारा छोड़ा गया बाग जहा आज RBI है कानोता बाग कहलाता है।

आज यह नारायण निवास और कैसल कानोता, कानोता होटल समूह द्वारा व्यवस्थित किए जा रहे है और इनके इन्ही के परिवार से संबंधित है। प्रताप सिंह कानोता जो की अभी नए ठाकुर (Formally) बनेंगे, पोलो के एक अच्छे खिलाड़ी (+2 Handicap) के रूप में उभर रहे है।