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Stories in Hindi Stories of Cities

Bramhapuri

नौ चौकड़ियों में बसा शहर है जयपुर इन चौकड़ियों में एक बहुत महत्वपूर्ण चौकड़ी है जहाँ राजा ने जयपुर के प्रथमपूज्य गणेश और विद्वानों को बसाया लगभग सभी अध्यापक, विषय विशेषज्ञ, ज्योतिष, कर्मकांडी, दार्शनिक और पुण्डरीक जी यहीं रहते थे। इसके चौकड़ी के उत्तर दिशा में पहाड़ पर एक गणेश मंदिर है जिसे जयपुर की स्थापना के साथ ही सवाई जय सिंह द्वारा स्थापित किया गया था। महाराजा सवाई जय सिंह के गुरु श्री रत्नाकर पुण्डरीक जी की हार्दिक इच्छा थी की महाराज अश्वमेध यज्ञ करें, जिसकी प्रक्रिया को उन्होंने प्रारम्भ भी करवा दिया था परन्तु 1977 में उनके देहांत की वजह से वह पुण्डरीक जी के जीवन काल में नहीं हो पाया। अश्वमेध यज्ञ का आयोजन इस पहाड़ी की तलहटी में ही पीछे की और हुआ था और उसी समय तांत्रिक विधि से श्री रत्नाकर पुण्डरीक जी के द्वारा जिन गणेश जी की स्थापना यज्ञ के समय यज्ञ के स्थान पर की गई उन्हें फिर शहर की और देखते हुए पहाड़ी के ऊपर उत्तर दिशा में स्थापित किया। यह कैलाश के सामान पूर्ण रूप से विद्वानों की नगरी होने के कारण इसे ब्रह्मपुरी कहा जाता था। ब्रह्मपुरी अर्थात वह स्थान जहाँ ब्रह्म को जानने वाले रहते है। इसी प्रकार राजपूताने के कई बड़े शहरों में ब्रह्मपुरी है।

Gadh Ganesh Temple

जब महाराज जय सिंह ने ब्रह्मपुरी का निर्माण किया तब सबसे पहले अपने गुरु श्री रत्नाकर जी पुण्डरीक को यहाँ लाकर बसाया। जब राजा सवाई जय सिंह के पश्चात् सवाई ईश्वरी सिंह ने अश्वमेध यज्ञ को पूर्ण किया था तब देश विदेश से बुलाये विद्वानों को यहीं पर बसावट और आजीविका दी थी। सभी को बसावट में व्यक्तिगत प्रयोग व रहने के लिए उस समय लगभग 3000~3200 वर्ग गज एक कच्ची बीघा जमीन दी गई थी। जयपुर शहर के सभी मुख्य विद्वान् यहीं रहा करते थे। जिनमे से प्रारंभिक समय के दो विद्वानों श्री रत्नाकर पुण्डरीक जी और श्री जगन्नाथ सम्राट जी प्रमुख रहे हैं। रत्नाकर जी पुण्डरीक एक महाराष्ट्रियन विद्वान् ब्राह्मण थे जिन्हे मंत्र और तंत्र में सिद्धि प्राप्त थी।

इसी प्रकार एक और महाराष्ट्रियन ब्राह्मण श्री सम्राट जगन्नाथ जी भी ब्रह्मपुरी के सबसे पहले निवासियों में थे। वे मंत्र के महान और ज्योतिष के अद्वितीय पंडित थे। महाराज जयसिंह के समय इन्होने रेखागणित के ग्रंथों का निर्माण किया था। वे अरबी भाषा के भी परम विद्वान् थे और इतिहास के अनुसार उन्होंने उन ग्रंथों का अरबी में और कुछ ग्रंथों का अरबी से भी स्वयं अनुवाद किया था। इन्होने ‘सिद्धांतकौस्तुभ-सम्राटसिद्धांत’ नाम के प्रसिद्ध ग्रन्थ का भी लेखन किया था। जयपुर की राजकीय खगोल वेधशाला ‘जंतर-मंतर’ में सम्राट यन्त्र इन्हीं का अविष्कार कर बनाया हुआ है जो आज भी स्थानीय समय को एकदम सटीक गणना कर बताता है। इसी के साथ इन्होने ‘सिद्धांत सम्राट’ पुस्तक लिखी जो खगोलीय उपकरणों, उनके डिजाइन और निर्माण, और अवलोकनों का वर्णन करती है। यह मापदंडों को सही करने और पंचांग तैयार करने में इन अवलोकनों के उपयोग का भी वर्णन करती है। इसमें उल्लेख है कि कैसे जय सिंह, जो पहले धातु से बने खगोलीय उपकरणों (जैसे एस्ट्रोलैब) का इस्तेमाल करते थे, बाद में विशाल बाहरी वेधशालाओं (जैसे जंतर मंतर) का प्रयोग करने लग गए, क्योंकि वे अधिक सटीक थे; वे टूट-फूट और जलवायु के प्रभावों को कम करने के लिए ईंट के बजाय पत्थर और गारे से बने थे। एक ‘यन्त्र प्रकार’ नाम से पुस्तक भी लिखी जो खगोलीय उपकरणों, मापों, संगणनाओं आदि का अधिक विस्तार से वर्णन करती है, और उनके द्वारा किए गए अवलोकनों का भी वर्णन करती है। सम्राट जी की हवेली के पास ही शहर का एक मुख्य सुरक्षा द्वार भी था जिसे आज सभी सम्राट गेट के नाम से जानते हैं।

इतिहासकारों के अनुसार इन्होने भास्कर द्वितीय द्वारा दिए गए त्रिकोणमिति के मापों का सबूत भी दिया था जो अनिवार्य रूप से प्रकृति में ज्यामितीय था, लेकिन दिलचस्प बात यह है कि इसमें त्रिकोणमितीय और बीजगणितीय चरणों के संदर्भ में एक विश्लेषणात्मक प्रक्रिया शामिल थी। जयपुर शहर की एक अनोखी परम्परा रही है राखी के दिन शुभ मुहूर्त में सबसे पहली राखी संत, महंतों और धार्मिक गुरुओं द्वारा राजा को बाँधी जाती थी इस परपम्परा को प्रारम्भ करने वाले भी सम्राट जगन्नाथ रहे हैं। इसका एक परचा सिटी पैलेस के रिकॉर्ड में मिलता है सं 1881 की श्रावणी पूर्णिमा पर महंतों व गुरुओं ने महाराजा सवाई माधो सिंह द्वितीय को वैदिक मंत्रोच्चार के साथ राखी बाँधी। सम्राट के वंशज वैधनाथ ने पहली राखी बाँधी बाद में रत्नाकर पौंड्रिक के वंशज गोविन्द धर के अलावा नारायण गुरु, गंगेश्वर भट्ट, उमानाथ ओझा ने राखी बाँधी।

महाराजा जय सिंह ने इसी प्रकार के असाधारण व्यक्तित्वों को जयपुर में आमंत्रित कर सबसे पहले ब्रह्मपुरी में बसाया और अनेक निजी सिद्ध विद्वानों को भी सम्मानपूर्वक यहाँ भूमि दी गई। ब्रह्मपुरी और इन सभी बातों का विवरण महाराजा सवाई जयसिंह के पुत्र श्री सवाई ईश्वरी सिंह जी के दरबार के कवि कलानिधि श्री कृष्णभट्ट जी के महाकाव्य ‘ईश्वर-विलास’ में मिलता है।

Ishwar Villas/Jaipur Villas

शहर के इस मुख्य स्थान में दो अखाडे भी प्रसिद्ध है बड़ा अखाडा और छोटा अखाडा। अखाडा नाम से प्रतीत होता है की यहाँ अखाड़ों में एक समय पहलवान अपने इष्ट के सामने व्यायाम और पहलवानी का अभ्यास किया करते होंगे परन्तु रंगस्थलों को स्थानीय भाषा में अखाडा कहा जाता था। रंगस्थल अर्थात वह जगह जहाँ नृत्य, संगीत, गायन, अभिनय और अन्य कलाओं का अभ्यास किया जाता है। यहाँ के रंगस्थल बिना किसी झिझक के सामाजिक रूप से अमर्यादित थे जिसमे व्यंग रुपी गली-गलौच का खूब प्रयोग होता था। होली पर यहाँ संगीतमय अभिनय किया जाता रहा है जिसमे अश्लीलता को स्पर्श करते हुए श्रृंगार, व्यंग और यश के खूब ही गीत हैं। कुछ समय पहले तक इन अभिनयों में जिनमे अश्लीलता हुआ करती थी, जिन्हे जयपुर में ‘तमाशा’ कहा जाता है में सिर्फ पुरुष की हुआ करते थे, व्यस्क स्त्रियां उन्हें परदे में से विशिष्ठ स्थान से देखा और सुना करती थी। इन तमाशों को एक ही स्थान पर घूम घूम कर किया जाता है यह बाकि होली के नाटकों जैसे मोहल्ले में टोली बना कर घूम कर नहीं किया जाता है यद्यपि यहाँ एक मंच पर ही घूम घूम कर किया जाता है, यहाँ तमाशे आज विश्व प्रसिद्द है और नाटक की यह विशेष शैली जयपुर की तमाशा शैली के नाम से प्रसिद्ध है।

होली पर होने वाले तमाशे का शीर्षक ‘हीर-राँझा’ है। जिसमे परम्परागत गाने-बजाने के साथ समकालीन राजनीति और समस्याओं पर भी कटाक्ष और व्यंग किये जाते हैं। इन्हे तमाशा कहने का मुख्य कारण यही है की समकालीन समस्याओं, अंधविश्वासों और कुरीतियों पर गहरे कटाक्ष करता आया है। इसमें सभी समस्याओं, अंधविश्वासों और कुरीतियों का तमाशा बना जनजागृति का कार्य किया जाता था। यह तमाशा तैलंग भट्ट परिवार द्वारा किया जाता है जिसमे मूल पत्र हाल में दिलीप भट्ट और तपन भट्ट निभाते हैं।

एक तमाशा बड़े अखाड़े में जोगी – जोगन का हुआ करता था जो अब पूरी तरह से बंद हो चुका है न तो उनके कलाकारों और न ही उनके कथानक का विवरण प्राप्त होता है, सिर्फ इतनी जानकारी प्राप्त होती है की वह विरह भाव का प्रकरण दर्शाया करते थे।

इन सभी आमंत्रित विद्वानजनों में दक्षिण से आमंत्रित किये हुए विशेष द्रविड़ विद्वान् सर्वाधिक थे इन्हे द्रविड़, काथभट्ट या तैलंग भट्ट उपनामों से जाना जाता है। ये सभी वेदों को मानाने वाले और प्रतिदिन अग्निहोत्र करने वाले विद्वान् थे।

ईश्वर विलास कहती है

येन ब्रह्मपुरी कृताऽतिधवलैः कैलासशैलोपमैर्विप्राणां भवनैः सदा समुदयत्संपद्विलसंचितैः।
प्रत्यागारमुरुप्रकारहवनैर्यत्राग्निहोत्राणयभूर्लीलादत्तचतुः पुमर्थपटलीजातादराणी स्फुटं।
श्रियं धत्ते यस्यामधिगिरिशिरः श्रीगणपतेर्गृहं दुराददृश्यम सुखचितमणिभाभिररुणम।
ध्रुवं तस्या एव क्षितिपतिरमन्याः सुरुचिरे ललाटे सिन्दूरैः कलितमिव सौभाग्यातिलकम।

ब्रह्मपुरी में वैदिक, वैष्णव, शैव, शाक्त और स्मार्त विद्वान् वैभव और सुखसमृद्धि से रहते थे। इसी लिए यहाँ थोड़ी थोड़ी दूरी पर इन सभी के मंदिर मिला करते है। इसके उत्तरपश्चिम दिशा में वैष्णव ब्राह्मणों और गोस्वामियों का निवास स्थान था।

पूज्य शुद्धद्वैतसंप्रदाय (दक्षिण) के वैष्णव विद्वान् श्री गोकुलनाथ जी हुए जिनके नाम से गोकुलद्वारा और गोकुलनाथ जी की बावड़ी आज तक है।

Gokulnath Ji ki Bawadi/Kund

इसके उत्तर पूर्व में स्मार्त गुजराती प्रश्नवर ब्राह्मणों को कोठियां (कोठरियां) दी गई जो ज्योतिष, तंत्र और कर्मकांड के प्रकांड विद्वान् थे। इन्ही प्रश्नवर ब्राह्मणो में एक कन्हैयालाल प्रश्नवर थे जिनके पूर्वजों को पुण्डरीक की के स्वप्न में शिव के नए रूप को मिलने और उस शिवलिंग पर मंदिर बनाने के बाद उस विख्यात जाग्रत जागेश्वर महादेव की उपासना की जिम्मेदारी दी गई थी और आज भी वे उसकी उपासना कर रहे हैं। श्री कन्हैयालाल जी की सुन्दर लिपि के कारण उन्हें महाराजा माधोसिंह ने पोथीखाने में हस्थलिखित ग्रंथों का लिपिकार नियुक्त किया था।

Jageshwar Mandir

इन्ही प्रश्नवर विद्वानों में सवाई रामसिंह जी के समय श्री कृष्णलाल शास्त्री प्रश्नवर ‘कान्हजी’ संस्कृत भाषा और दर्शन के प्रकांड विद्वान् थे। इनके बारे प्रसिद्द है की इनका शास्त्रार्थ दयानन्द सरस्वती से हुआ था वे आर्य समाज के संस्थापक थे और कहते थे की वेदों को छोड़ कर अन्य कोई भी ग्रन्थ दार्शनिक रूप से प्रामाणिक नहीं है, उन्होंने मूर्तिपूजा का भी घना विरोध किया था। जब वे सभी राज्यों में और सभी धर्मों में अपने शास्त्र ज्ञान को लेकर जीतते आये थे तब कान्हजी ने उनका विजयरथ रोका था। श्री दयानद ने इनसे प्रश्न किया की ‘कस्वत्वम’ इन्होने उत्तर दिया ‘कृष्णो(अ)हम्’। तत्पश्चात सरस्वती ने व्यंग में कहा था ‘कृष्णत्वं तु न कुतोपिदृश्यते’। उसी समय इन्होने उत्तर दिया “न दयास्ति न चानंदो न च त्वयि सरस्वती। भूयोपि वद कस्मात्वं ‘दयानन्दसरस्वती’।” इसे समझने के लिए थोड़ी पृष्ठभूमि को जानना जरुरी है, जब दयानन्द जयपुर राज दरबार में आये उस समय जयपुर के महाराजा सवाई रामसिंह जी बहुत बड़े शैव भक्त थे और दयानन्द आर्य समाज की स्थापना करने से बाद से सभी बड़े शहरों में शास्त्रार्थ कर सभी को उसमे पराजित करते आये थे और उनका जयपुर आना लाजिमी था क्यूंकि उस समय जयपुर पूरे देश में एक प्रसिद्ध नाम था, जब उन्होंने जयपुर राज दरबार में आकर शास्त्रार्थ की चुनौती दी तब इन्हे बुलाया गया और इनके आने पर दयानन्द ने जब इनसे पूछा की क्स्वत्वं (आप कौन हैं) तब इन्होने अपना परिचय दिया की कृष्णो अहम् (मैं कृष्ण हूँ) तब दयानन्द ने इनके त्वचा से गोरे होने और नाम कृष्ण होने का उपहास कर व्यंगात्मक रूप में कहा की कृष्णत्वं तु न कुतोपिदृश्यते (कृष्ण तो तुम किसी भी प्रकार से नहीं लगते हो) तब उन्होंने इस का उत्तर दिया की न दयास्ति न चानंदो न च त्वयि सरस्वती। भूयोपि वद कस्मात्वं ‘दयानन्दसरस्वती’ (आपमें न दया है क्यूंकि आप सभी जगह लोगो की आस्था और परम्पराओं का खंडन करते आ रहे हो इसी वजह से न ही आपसे किसी को आनंद मिलता है और आपने ज्ञान को न जान मेरे वर्ण पर टिपण्णी की है इसलिए आपमें सरस्वती का होना भी प्रतीत नहीं होता है तो फिर आप दयानन्द सरस्वती कैसे हो गए) दयानन्द यह सुन निरुत्तर हो गए और उन्होंने शास्त्रार्थ समाप्त किया। इसके पश्चात दयानन्द अजमेर चले गए और वहां उन्होंने अपने जीवन से अंतिम क्षण गुजारे क्यूंकि एक षडयंत्र से वहां उनकी मृत्यु हो गई। कान्हजी जयपुर के तमाशों के भी बहुत शौकीन थे इनके द्वारा रचित अनेक गीत आज भी तमाशों में गए जाते हैं। वे ढूंढाड़ी (स्थानीय भाषा) के साथ साथ पंजाबी में भी गीत बनाया करते थे। वे विशेषकर गीतियाँ लिखा करते थे।

A Beautiful Haveli with Murals

प्रश्नवर विद्वानों की सूचि और उनका जयपुर के इतिहास में योगदान अतुलनीय है आज भी वे लोग जयपुर के प्रशासन, संगीत, संस्कृत और हिंदी भाषा के साहित्य और व्याकरण की बागडोर संभाले हुए है, श्री कन्हैयालाल प्रश्नवर की पौत्री श्रीमती ड़ॉ चेतना पाठक आज जयपुर के संस्कृत महाविद्यालय में प्रोफेसर है।

कृष्णलाल शास्त्री प्रश्नवर के वंश में आगे संस्कृत विद्वानों का बाहुल्य रहा है उन्ही के वंशज श्रीमान गिर्राज प्रसाद शर्मा जयपुर के विद्यालयों में संस्कृत और व्याकरण के आचार्य रहे हैं, इनकी भाषा में और साहित्य में रुचि के कारण ये सूर होते हुए भी अनेक संस्कृत ग्रंथों और श्रीमद्भागवत गीता को कंठस्थ किये हुए है और प्रतिदिन दोहरान करते रहते है।


इन्ही में प्रशासन के क्षेत्र में स्व श्री नृसिंह प्रसाद भट्ट, स्वतंत्र भारत में भारतीय प्रशासनिक सेवा के उच्च अधिकारी रहे हैं।

इन्ही में व्याकरणाचार्य श्री मदनलाल प्रश्नवर के पौत्र श्री विनोद पंड्या, स्वतंत्र भारत में भारतीय प्रशासनिक सेवा के उच्च अधिकारी रहे हैं।


इन्ही में व्याकरणाचार्य श्री मदनलाल प्रश्नवर के पौत्र श्री सुमंत पंड्या, राजस्थान के सबसे पुराने और एक मात्र महिला विश्वविद्यालय में राजनीति शास्त्र के प्रोफेसर रहे हैं।


हिंदी भाषा के प्रश्नवर विद्वानों में स्व श्री विष्णु चंद्र पाठक बहुत प्रसिद्ध हुए वे भी जयपुर के महाविद्यालयों और विश्वविद्यालयों में हिंदी भाषा के प्रोफेसर रहे और उन्हें बृजभाषा अकादमी का अध्यक्ष भी बनाया गया।


इन्ही में संगीत के क्षेत्र में श्रीमती अनुसूया पाठक राजस्थान विश्वविद्यालय में संगीत विभाग की प्रोफेसर और अध्यक्षा रही हैं, इनकी पुत्री श्रीमती ऐश्वर्या भट्ट आज राजस्थान के सबसे पुराने और एक मात्र महिला विश्वविद्यालय में संगीत विभाग में प्रोफेसर है।

इन्ही लोगों में और नाम श्री मूलचंद पाठक, पद्मा पाठक हिंदी व दर्शन के विशेषज्ञ रहे हैं

मदनलाल प्रश्नवर के प्रपोत्र श्री रोहित पंड्या सर्जन हैं।

नाम अनेक हैं परन्तु उन सभी के बारे में बात कभी और क्यूंकि प्रश्नवरों के वंशजों के योगदान पर एक पूरी पुस्तक लिखी जा सकती है।

चूँकि गुजराती विद्वान् बहुत ही ज्ञानी स्मार्त कर्मकांडी रहे है अतः ब्रह्मपुरी के अधिकतर मंदिरों की उपासना और रखरखाव इन्ही के वंशजों के पास है जिनमे से कुछ प्रमुख मंदिर है जिनके प्रश्नवर उपासक है जागेश्वर महादेव, वीर हनुमान, बड़े अखाड़े और छोटे अखाड़े के हनुमान, प्रश्नवरों की बावड़ी के हाटकेश्वर महादेव

Jageshwar
Hanuman Ji (Bada Akhada)
Hatkeshwar Mahadev
Veer Hanuman

जयपुर के विश्वप्रसिद्ध वैष्णव मंदिर गोविन्द देव जी के मुख्य उपासक गोस्वामी है यह गोविन्द देव मंदिर जय निवास उद्यान में है और आज क्षेत्र विस्तार के कारण यह भी कुछ हद तक ब्रह्मपुरी में ही माना जाता है। इसी प्रकार ताल कटोरा और चौगान भी ब्रह्मपुरी में ही गिने जाने लगे है। शाक्तों के मंदिरों में मंगला माता मंदिर है।

Mangla Mata

सिटी पैलेस के पास में ही गोविन्द देव के मंदिर के बाहर एक समय जिस स्थान पर जयपुर रियासत से किसान अन्न, सब्जियां और फल-फूल लेकर दरबार को बेचते थे वह स्थान जयपुर की सबसे पुरानी मंडी हुआ करता था और लिगेसी को आज भी रखते हुए उसी स्थान पर आज भी सब्जी, फल और फूल की मंडी है। फूलों की तो यह शहर की एकमात्र मंडी है। यह स्थान जय सिंह के दरबारी रहे राजमल के आवास के निकट के तालाब (जिसे राजमल का तालाब कहा जाता था) और पैलेस के बीच है। राजमल के तालाब के सूखने के बाद उसे पाट कर काफी समय पहल-से वहां कँवर नगर और सिंधी कॉलोनी बना दी गई है।

Sabji Mandi/Vegetable Market
Fool Mandi/Flower Market
Flower Market with Tourists

ब्रह्मपुरी चूँकि विद्वानों और ब्राह्मणो का निवास स्थान रहा है अतः इसमें हमेशा से ही सभी के घरों में मंदिर रहे हैं और उन्ही में से सबसे प्राचीन और जाग्रत मंदिरो के नाम से वहां के स्थानों और बाज़ारों के नाम है जैसे जागेश्वर महादेव बस स्टैंड जिसे ब्रह्मपुरी बस स्टैंड भी कहा जाता है, सीताराम बाजार, वीर हनुमान चौक या रेवती चौक, छोटा अखाडा, बड़ा अखाडा, शंकर नगर। यह सभी विद्वान् जब रोज सुबह मंदिर जाते थे तो पहले उस मंदिर की बावड़ी या कुंड में स्नान करते थे इसलिए पूरी ब्रह्मपुरी में हर मंदिर के साथ कुंड हुआ ही करते थे। उनमे से एक कुंड है कदम्ब कुंड, गढ़ गणेश और नाहरगढ़ की खोळ में बना यह कुंड इसके किनारे उगे हुए कदम्ब के वृक्षों से पहचाना जाता है। ब्रह्मपुरी के उत्तर पश्चिम किनारे में नाहरगढ़ की तलहटी में है राजपरिवार का अंतिम संस्कार का स्थान जिसे स्थानीय भाषा में गयों की ठोर या गैटोर कहा जाता है यहाँ महादेव गैटेश्वर नाम से विराजते है और तैलंग भट्टों का शिवरात्रि पर पूरी रात गाने बजाने, ध्रुवपद और भजनो का कार्यक्रम चलता है।

आज ये अधिकतर पुरानी हवेलियां जिनमे पहले वैभव और सौंदर्य बरसता था, सार-संभल के आभाव में जीर्ण-शीर्ण हालत में पड़ी है उनमे से काफी तो अब खत्म हो हवेली के क्षेत्रफल में कॉलोनीया बन चुकी है। जगह की कमी के चलते अधिकतर कुंडों को मिटटी भरके पाट दिया गया है। सिर्फ कदम्ब वृक्ष वाला कदम्ब कुंड बचा है जिसको लेकर हर साल सफाई अभियान चलते है पर हर साल वह फिर से गंदगी से भर जाता है और तो और वहां शाम को असामाजिक तत्वों का जमावड़ा भी समय के साथ बढ़ता जा रहा है

Kadamb Kund

गोकुलनाथ के कुंड में कीचड़ और काई भरी है, मंदिरों के सभी कुंड समाप्त है बस कुएं बचे है।

ब्रह्मपुरी जो पहले एक छोटी चौकड़ी भर थी, आज गणगौरी बाजार के समाप्ति (जहाँ पहले छोटा और बड़ा तालाब हुआ करते थे, इन तालाबों को मिट्टी से भर कर इन पर भी कॉलोनियां बना दी गई है) तक से रामगढ मोड़ तक उसकी सीमा है। कँवर नगर, शंकर नगर, कागड़ीवाड़ा, मोहन नगर और भी अनेक नई कॉलोनियां बन चुकी है और ब्रह्मपुरी में मिल चुकी है। गढ़ गणेश के पहाड़ की तलहटी की नहर पूरी तरह खत्म हो चुकी है अब बारिश का पानी रोड पर बहता है और घरों में घुसता है। नहर की महत्वपूर्णता इसी से समझी जा सकती है की जो लोग गढ़ गणेश नहीं जा सकते थे उनके लिए नीचे नहर के गणेश नामक मंदिर बनाया गया, इसको नाम ही नहर का दिया गया है।

Nahar ke Ganesh Ji

सम्राट जी की हवेली अब बची ही नहीं है जो कुछ अवशेष उसके बचे है उसमें 1967 में एक संस्कृत कॉलेज बना दिया गया था। अब सम्राट जी की हवेली के बचे-कुचे अवशेषों में संस्कृत पढाई जाती है।

Sanskrit College in the remnants of Samrat Haveli

आज सम्राट जी का वंश खत्म हो चुका है और उनका कुछ खास विवरण प्राप्त नहीं होता है।

ब्रह्मपुरी हमेशा से विद्वानों की बस्ती रही है हर क्षेत्र के विशेषज्ञ यहाँ रहा करते थे और अभी भी है, जब भी जयपुर आइयेगा तो एक चक्कर ब्रह्मपुरी का लगाना तो बनता है और यह देखना अपेक्षित है की जयपुर का सबसे पुराना इलाका आज कैसा लगता है और समय बिताने के लिए यहाँ के लोगों से मिलकर जानिएगा भारतीय दर्शन, संस्कृति और परम्परों के बारे में, जयपुर की स्थापना और विकास के किस्से और समय व्यतीत करने के लिए सुनिएगा चुड़ैलों, भूत-प्रेतों, तांत्रिकों और चमत्कारों की मनोरंजक कहानियां। यहाँ घूमने के लिए कुछ ज्यादा जगह बची नहीं है फिर भी आप सभी हिस्सों और उसकी कहानियों को सुनकर इसे तीन दिन में भी पूरा नहीं कर पाएंगे। पूरी ब्रह्मपुरी में एक भी ऐसी जगह नहीं है जिसकी कोई लिगेसी न हो, किसी दिन आइये और इन पुरानी जगहों में से किसी भी एक जगह शाम को बैठ कर सोचिये की कैसे ब्रह्मपुरी ने समय को गुजरते हुए देखा है और आज भी कहीं न कहीं अपना अस्तित्व बचाये हुए है

विशेष टिपण्णी: यहाँ ब्राह्मण शब्द का संकुचित अर्थ न निकालें, यहाँ यह शब्द किसी जाति विशेष का सूचक न हो कर हर उसका प्रतिनिधित्व करता है जो ब्रह्म को जानता है , जीवन के अर्थ को जानता है या जानना चाहता है।

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210 replies on “Bramhapuri”

Very nice. I am living here since 30 yrs. But i did not know much about brahamapuri. But after read this very much know about it. Thanks dear

ब्रह्मपुरी की कहानी पढ़ कर बहुत अच्छा लगा

Люди слишком легко склонны относить идеалы некоей
культуры – то есть оценки,
чтó причислять к ее самым драгоценным,
а в большинстве случаев и
к самым привлекательным достижениям, – к ее чисто психологическому имуществу.
Поначалу кажется, будто именно они и определяют достижения
культурного пространства. Однако реальное развитие событий,
видимо, таково: идеалы формируются соответственно первым успехам, ставшим возможными благодаря
взаимодействию внутренних задатков
людей и внешних условий культуры, а потом эти успехи закрепляются в виде идеала, развиваемого далее.

спиральная динамика это

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Normally I do not read article on blogs however I would like to say that this writeup very forced me to try and do so Your writing style has been amazed me Thanks quite great post

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