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Festivals of India Stories in Hindi Stories of Cities

Jaipur aur uska Krishna Prem (The Krishna Walk Way)

जयपुर शहर अपने कृष्ण प्रेम के लिए पूरी दुनिया में प्रसिद्ध है। यहाँ के कृष्ण मंदिरों की शोभा देखते ही बनती है और कुछ मंदिरों में तो लगभग रोज ही लाखों भक्तों का आना होता रहता है। यहाँ महिलाएं और पुरुष दोनों ही कृष्ण की भक्ति में तल्लीन दिखाई पड़ते है और मंदिरों के अंदर का वातावरण कहीं से भी मथुरा-वृन्दावन के मंदिरों से कम नहीं है। जयपुर के प्राचीन कृष्ण मंदिरों की संख्या का आंकड़ा सैंकड़े से कम नहीं है और यहाँ शहर में लगभग सभी घरों में कृष्ण के मंदिर है। भगवान श्रीकृष्ण के विभिन्न स्वरूपों के मंदिरों के कारण गुलाबी नगरी जयपुर को ब्रजभूमि वृंदावन के रूप में भी जाना जाता है।

श्रीकृष्ण जयपुर के आराध्य देव भी हैं। यहाँ सभी लोग अपने किसी भी काम को व दैनिक दिनचर्या को प्रारम्भ करने से पहले कृष्ण के दर्शन करने जरूर जाते है अथवा अपने घरों के मंदिरों में सुबह और सायं कृष्ण की विधिवत आरती कर पूजा करते हैं और भोग लगते हैं। जन्माष्टमी के दिन शहर के सभी मंदिरों और विग्रहों का श्रृंगार देखने लायक होता है। नाना प्रकार के कार्यक्रमों के साथ लोगों द्वारा विभिन्न भेट चढ़ाई जाती है और पूरे दिन भोग और प्रसादी का कार्यक्रम चलता रहता है, कहा जाता है आज के दिन किसी भी मंदिर से कोई भी निराश नहीं जाता है।

जयपुर में कृष्ण मंदिरों की अधिकतम स्थापना मुग़ल काल की है, जब भारत के क्षेत्रफल में आने वाले अधिकतर प्रतिशत पर मुग़ल वंश का अधिकार था तब उनके अनेक बादशाहों ने धार्मिक प्रतिद्वंदिता के चलते प्रागऐतिहसिक से लेकर प्राचीन मंदिरों को तुड़वाना प्रारम्भ कर दिया था जिसके मुख्यतः दो उद्देश्य बताये जाते हैं पहला धार्मिक प्रतिद्वंदिता और दूसरा पराजित राज्य के मनोबल को तोडना। जयपुर राजपरिवार हमेशा से ही मुगलों के साथ किये राजनीतिक समझौतों को लेकर निन्दित होता आया है और इनकी आज तक इस बात को लेकर आलोचना की जाती रही है परन्तु इसका एक दूसरा पक्ष भी है राजनीतिक समझौतों के कारण बादशाह अकबर के समय जयपुर (उस समय आमेर) के तत्कालीन महाराजा मानसिंह प्रथम को बादशाह ने अपना सेनापति बना रखा था और उनके अधिकतर युद्धों को मुग़ल राज के लिए उन्होंने ही जीता है चूँकि उनमे अधिकतर राज्य प्राचीन हिन्दू राज्य हुआ करते थे जिनमे श्रीकृष्ण के मंदिरों की संख्या भी बहुत थी। इन सभी मंदिरों को टूटने से बचने के लिए महाराजा मानसिंह ने उन्हें सुरक्षित भिन्न भिन्न राज्यों में स्थापित करवाया और इस तरह कच्चवाहों और उनके वंशजों ने मुगलों और उनके बाद आने वाले ब्रिटिशर्स से मंदिरों और मंदिरों के खजाने के रक्षा करी। अगर राजनीतिक समझौते के चलते महाराजा मानसिंह को पद नहीं मिला होता और वे इन मंदिरों और विग्रहों को नहीं बचा पाते तो भारतियों की विरासत को एक और बहुत बड़ा झटका लगता। महाराजा मानसिंह के बाद से आमेर और उसके बाद बसे शहर जयपुर के सभी आने वाले महाराजाओं ने सभी के साथ उचित राजनयिक संबंधों को जाग्रत रखा और इतनी बड़ी संस्कृति और विरासत की रक्षा करी।

Mirja Raja Maan Singh First (1559-1614)

तो चलिए आज चलते हैं जयपुर के ही कुछ प्रसिद्ध कृष्ण मंदिरों में, जानते हैं उनके विग्रहों के बारे में और एक पैदल मार्ग बनाते हैं जिस पर चलते हुए आम दिनों में और विशेषकर जन्माष्टमी के दिन अधिकतर कृष्ण मंदिरों की यात्रा कर सकते हैं।

गौड़ीय वैष्णव जिन तीन विग्रहों के एक दिवस में दर्शन करके यह मानते हैं की भगवान श्रीकृष्ण के साक्षात् दर्शन हो गए वे हैं गोपीनाथ, गोविंददेव और मदनमोहन। यह तीनो विग्रह जयपुर राज्य में ही विराजमान थे किन्तु मदनमोहन थोड़े समय ही यहाँ ठहरे और अब करौली के राजप्रांगण में स्थित है। यह माना जाता है की इन तीनो विग्रहों को श्री कृष्ण के पौत्र प्रद्युम्न के पौत्र वज्रनाभ ने बनाया था। ऐसा माना जाता है की उस समय मथुरा में वह काले पत्थर की शिला मौजूद थी जिस पर पटक कर कंस ने श्री कृष्ण के सात अग्रजों और उनके बदले आयी कन्या रुपी योगमाया को मृत्यु का वरण करवाया था और वज्रनाभ ने उसी शिला से मूर्ति का निर्माण आरम्भ किया था। उनकी श्रीकृष्ण के दर्शन करने की इच्छा थी और उस समय प्रद्युम्न की पत्नी और वज्रनाभ की दादी जीवित थी उन्होंने अपनी दादी से कृष्ण का विवरण सुन एक कुशल मूर्तिकार से मूर्ति बनवाना प्रारम्भ किया। जिसे देख दादी ने कहा की मूर्ति के चरण तो भगवान से मिलते हैं परन्तु अन्य अवयव नहीं इस पर दूसरी मूर्ति बनवायी गई तो उस के कटिभाग में समानता आई अन्य में नहीं उस के बाद तीसरी प्रतिमा बनवायी गई और जब वज्रनाभ ने उसे दादी को दिखाया तो उन्होंने कहा मुखमण्डल, ग्रीवा, कटी और चरण की मरोड़ से युक्त ओमकाराकृति त्रिभंगस्वरुप यह विग्रह साक्षात् श्रीकृष्ण की छवि प्रस्तुत करने वाला है।

जिस मूर्ति के चरण भगवान के सृदृश्य है वह मदनमोहन की मूर्ति है यह मूर्ति पहले गणगौरी बाजार में पुरानी डिस्पेंसरी के सामने वाले मंदिर में थी परन्तु अब करौली में है। कटिभाग का सृदृश्य गोपीनाथ की मूर्ति है जो जयपुर में पुरानी बस्ती में स्थित है और जो तीसरी मूर्ति सबसे अधिक गुणों से मिलती है जयपुर राजमहल के जयनिवास उद्यान में गोविन्द देव के नाम से विराजित है।

The Krishna Walk

इस यात्रा को प्रारम्भ करना चाहिए जयलाल मुंशी के रास्ते और राजा शिवदास जी के रास्ते से बने चौराहे पर स्थित श्री गोपीनाथ जी मंदिर से।

यहाँ पहुँचने के लिए छोटी चौपड़ से गणगौरी बाजार की तरफ आइये और पहले चौराहे से बाएं मुड़िये फिर लगभग आधा किलोमीटर चलने के बाद बायीं तरफ आएगा और अगर आप चांदपोल की ओर से आ रहे हैं तो पहले चौराहे से बाएं मुड़ें और उसके बाद पहले चौराहे से दाएं मुड़ने पर दाएं तरफ में

Gopinath Ji Temple

श्री श्री 1008 भगवान श्री गोपीनाथ जी का मंदिर यह चैतन्य महाप्रभु की गौड़ीय परंपरा का मंदिर है और इस मूर्ति को वृन्दावन से जयपुर लाया गया था। इस विग्रह को महाभारत कालीन माना जाता है और वृन्दावन में यह विग्रह मधु पंडित ने स्थापित किया था। विक्रम सम्वत 1559 में चैतन्य महाप्रभु की आज्ञा से बंगाल से वृन्दावन आये थे इसका स्पस्ट उल्लेख नरहरि चक्रवाती रचित “भक्ति रत्नाकर: में है। यह वह समय था जब पूरे भारत में भक्ति परंपरा की हवा चल रही थी। मधु पंडित को श्री कृष्ण ने सपने में आकर आदेश दिया था की वंशीवट में कहीं यमुना किनारे विग्रह रेती में लुप्त है, उसे निकला जाये और सेवा पूजा कर मांडना बंधा जाये। इस प्रकार इनकी खोज चालू हुई और माघ शुक्ल पूर्णिमा 1560 को मधु पंडित ने अपनी कुटिया में विग्रह को विराजमान किया और गौड़ीय वैष्णवों की पद्धति से सेवा पूजा व्यवस्थित करी। इस प्रकार वो लगभग 41 वर्ष तक कुटिया में ही सेवा पूजा करते रहे जिसके बाद वृन्दावन में इनके मंदिर का निर्माण हुआ जो बहुत भव्य नहीं था। इस मंदिर का निर्माण रायसल शेखावत ने करवाया था जो अकबरी दरबार के विख्यात राजा रायसल दरबारी थे। गोपीनाथ का प्राकट्य राधिका के साथ हुआ था यह विग्रह अकेला नहीं था किन्तु गोपीनाथ के दोनों और राधिकाएँ हैं। गोपीनाथ के वाम भाग में जान्हवी जी है और दायी और राधारानी। जब गोपीनाथ जी वृन्दावन के मंदिर में थे तो नित्यानंद प्रभु की पत्नी जान्हवादेवी भी तीर्थ यात्रा पर गई थी अन्य श्रीविग्रहों को देखने के बाद जान्हवा देवी गोपीनाथ जी के मंदिर में भी गई और दर्शन करते करते अपने सत के कारन विग्रह में ऐसे समां गई जैसे मीरा बाई द्वारिका में रणछोड़दस जी की मूर्ती में समां गई। गोपीनाथ को इष्ट मानाने वाले शेखावत लोगों ने एक और राधा और दूसरी और रुक्मणि की कल्पना की और गोपीनाथ जी की झांकी को अपने अनुरूप माना परन्तु ये दोनों ही बातें ठीक नहीं लगती है। इस सम्बन्ध में ए के रॉय ने जो कहा है वो अधिक युक्ति संगत लगता है। इसकी कथा है की जब जान्हवा देवी गोपीनाथ के मंदिर में दर्शन के लिए गई तो उन्हें सहज ही लगा की जो राधा की मूर्ति है वो छोटी है और गोपीनाथ जी की तुलना में अनुपातिक नहीं है। इस भावना के अनुसार उन्होंने वापिस अपने राज्य जाकर गोपीनाथ के लिए राधा का विग्रह बनवाया और उसको वृन्दावन भिजवा कर उनके बाएं ओर स्थापित करवाया।

Chaitanya Mahaprabhu founder of Gaudiya Vaishnavism

गोपीनाथ जी की प्रतिष्ठा करवाए जाने के समय से ही यह विग्रह शेखावतों का आराध्य बन गया और जब 1724 में शिवसिंह जी ने सीकर को नए ढंग से बसना चालू किया तो सबसे पहले नगर के केंद्र में गोपीनाथ जी का मंदिर बनवाना ही प्रारम्भ किया था।

जब औरंगजेब के फरमान से 1669 में मथुरा वृन्दावन के मंदिरों को गंभीर खतरा हो गया था तो वल्लभ संप्रदाय और गौड़ीय सम्प्रदाय के विग्रहों को सुरक्षित स्थानों पर ले जाने का प्रयोजन किया गया। इस प्रकार यह विग्रह वृन्दावन से राधाकुंड लाया गया और वहां से कामांवन में। कामां आमेर के राजा सवाई जयसिंह के पुत्र कीरतसिंह को जागीर में मिला था और तब से उन्ही के उत्तराधिकार में था। कामांवन का धार्मिक महत बहुत है पौराणिक प्रमाण के अनुसार यहीं कृष्ण कालीन वृन्दावन है जहाँ वृंदादेवी विराजती है। कहते हैं यहाँ देवता, ऋषि, मुनि, तपस्वी और जन सामान्य की मनोकामना पूरी होती है। वृन्दावन से कामां आने के बाद विग्रह कम से कम 100 साल वहां रहा और धीरे धीरे औरंगजेब का खतरा काम हुआ पर बाद में कामां में आपसी पारिवारिक द्वन्द चालू हुआ और समस्या वहां भी कड़ी होने लगी तब सम्वत 1832 में इस विग्रह का जयपुर आना संभव हुआ, शहर में प्रवेश करने के पूर्व गोपीनाथ उत्तर पश्चिम में स्थित झोटवाड़ा गांव में आकर विराजे थे जिससे अनुमान होता है की शेखावत सरदार कामां से अलवर और शेखावाटी-तोरावाटी होकर इसको लाये होंगे।

इसका एक परचा इस प्रकार मिलता है की मिति सावन बड़ी 13 शनिवार में श्रीजी शहर छोड्यो, फेर पालकी सवा होय कपट कोट का दरवाजा कै बारै मजधार का रास्ता कनै उभा रह्या और ठाकुर श्री गोपीनाथ जी कामां का झोटवाड़ै आय विरज्या छा सो झोटवाड़ा सूं भटजी श्री सदाशिव जी की हवेली कै कनै आया तब श्रीजी पालकी सूं उतर डोरी एक सामां पधार्या, दरसन किया, भेट चढाई पछै ठाकुर जी तो माधोविलास मै दाखिल हुया श्रीजी पालकी सवार होय सिरह ड्योढ़ी में दाखिल हुया। इससे स्पष्ट है की गोपीनाथ जी की अगुवानी स्वयं महाराज ने की थी। यह महाराजा पृथ्वी सिंह जी थे जो 1768 में केवल पांच वर्ष की आयु में अपने पिता माधोसिंह प्रथम की मृत्यु के बाद गद्दी पर बैठे थे। गोपीनाथ जी के आगमन के समय वे 12 वर्ष के थे। सदाशिव भट्ट माधोसिंह जी के गुरु थे और उनके साथ उदयपुर से ही जयपुर आये थे। बड़ी चौपड़ पर भट्ट राजा की हवेली के पास बालक पृथ्वीसिंह ने गोपीनाथ जी को भेंट चढ़ाई थी।

जयपुर आने के बाद 17 वर्ष तक विग्रह माधोविलास में ही रहा, इसको कामां से जयपुर लाने में तत्कालीन दीवान राजा खुशाली राम बोहरा का भी हाथ रहा था क्यूंकि 1792 में बोहरा ने ही पुराणी बस्ती स्थित अपनी हवेली में गोपीनाथ जी को विराजमान करा पुण्य कमाया था। मृत्यु के दो दशक पूर्व उसने अपनी हवेली को वर्तमान मंदिर में परिणत किया था जब से वो आज इसी तरह खड़ी है।

गोपीनाथ जी के दर्शन करने के पश्चात चौड़े रास्ते की ओर बढिये और वहाँ से पैदल यात्रा का आरम्भ कीजिये।

The Krishna Walk Way

जिसमे सबसे पहले परतानियों के रास्ते से थोड़ा आगे दुकान नं 290 के आगे प्रथम मंजिल पर स्थित है श्री मदन गोपाल जी, इस मंदिर से प्रारम्भ करें

पहली मंजिल पर नगर शैली में बना यह मंदिर एक गौड़ीय संप्रदाय का मंदिर है जहाँ कृष्ण-राधा विराजमान है सेवा प्राकट्य और इष्ट लाभ नमक प्राचीन हस्तलिखित ग्रन्थ के अनुसार सम्वत 1590 में वृन्दावन के महावन में निवास कर रहे श्री परशुराम चौबे जी के घर से ठाकुर जी श्री मदनगोपाल जी के दिव्या विग्रह को प्राप्त किया गया और माघ शुक्ल द्वितीय को सेवार्थ प्रतिष्ठित किया। उड़ीसा के राजा प्रताप रूद्र के पुत्र श्री पुरुषोत्तम जाना को स्वप्न में ज्ञात हुआ की ठाकुर श्री जी विहीन अवस्था में विराजमान है तो उन्होंने ठाकुर जी के साथ प्रतिष्ठित होने के लिए प्रिय राधारानी एवं ज्येष्ठ सखी प्रिय श्री ललिता जी की अष्टधातु का विग्रह वृन्दावन भेजा। जब यह वृन्दावन पहुंची तो ठाकुर जी ने अपने सेवाधिकारी को स्वप्न में कहा की ये जो दो विग्रह आये है भक्त लोग उन्हें राधिका के नाम से जानते हैं जबकि यह राधारानी और ललिता सखी है। तुम अग्रसर होकर दोनों को शीघ्र यहाँ ले आओ और प्रतिष्ठित करो। कालांतर में जब 1614 के बाद औरंगजेब ने वृन्दावन के मंदिरों को तोडना प्रारम्भ किया तो जयपुर के राजा सवाई जयसिंह ने प्रधान विग्रहों को लाकर प्रतिष्ठित किया और उसी के साथ पूज्य श्री अद्वैताचार्य प्रभु के वंशजों को भी साथ लाये क्यूंकि वहां श्री जी की पूजा वही लोग करते थे और आज भी उन्ही के वंशज श्रीजी की सेवा कर रहे हैं।

यहाँ से दर्शन कर त्रिपोलिया की ओर चलने पर सामने के हाथ को गोपाल जी के रास्ते के सामने की ओर आता है श्री गोवर्धन नाथ जी का मंदिर

Goverdhan Nath Ji (Chauda Rasta)

पहली मंजिल पर बना यह मंदिर हवेली की तरह राजसिक शैली में बना है, मंदिर की ओर जाने वाली सीढ़ी फुटपाथ को कवर करते हुए सड़क के स्तर तक आती है, जो एक तरह से इसे एक विशिष्ट दृष्टिकोण प्रदान करती है। यह राजसिक लोगों द्वारा निर्मित विरासत मंदिरों की एक अनूठी विशेषता है। मंदिर शिखर से रहित है और एक खुले आंगन के साथ हवेली शैली में बनाया गया है। जयपुर में 18वीं और 19वीं शताब्दी के दौरान निर्मित कई अन्य हवेली शैली के मंदिर हैं। मंदिर राजपूत-मुगल स्थापत्य शैली में बनाया गया है। इसकी दीवारों पर सुंदर पेंटिंग और फूलों की आकृतियां हैं, जो एक मजबूत मुगल प्रभाव को दर्शाती हैं। श्री गोवर्धन नाथ जी मंदिर का अनूठा पहलू यह है कि भगवान कृष्ण की बाल रूप में पूजा की जाती है। जयपुर में भगवान कृष्ण को समर्पित अन्य विरासत मंदिरों के विपरीत, राधा को कृष्ण की मूर्ति के साथ नहीं रखा गया है। दूसरे द्वार की ओर जाने वाला एक छोटा चौक या प्रांगण है जो किसी भी दृष्टि से उल्लेखनीय नहीं है। हालाँकि, इस द्वार के दोनों ओर की दीवार में नाहर या शेर के सुंदर चित्र और चित्र हैं। आज यह मंदिर देवस्थान विभाग द्वारा व्यवस्थित किया जा रहा है।

यहाँ से दर्शन कर त्रिपोलिया की तरफ थोड़ा ही चलने के बाद आता है मंदिर श्री राधा-दामोदर जी

यह भी 18वी और 19वी शताब्दी के काल का बना हुआ एक राजपूत-मुग़ल स्थापत्य शैली में बनाया गया एक राजसिक मंदिर है जो शिखर से रहित है। इसकी दीवारों पर शहर के द्वारों की तरह बने आर्चेस में मांडने का काम किया हुआ है बाहरी आर्च गुलाबी रंग के हैं और आतंरिक पुराने ढंग में टरक्वॉइश रंग के हैं जिसमे पुराणिक कथाओं को भित्ति चित्रों के रूप में दर्शाया गया हुआ है। ऐसा कहा जाता है की राधा-दामोदर जी के विग्रह का निर्माण लगभग 500 साल पहले चैनाया महाप्रभु के शिष्य रूप गोस्वामी ने किया था। अपने हाथो से बनाये इस विग्रह को श्री रूप गोस्वामी जी ने अपने भतीजे श्री जीव गोस्वामी को सेवा के लिए सौंपा था और वे और उनके वंशज वृन्दावन में मठीय गौड़ीय संप्रदाय के अनुसार उनकी पूजा करते रहे। यह विग्रह भी औरंगजेब के समय से ही जयपुर लाया हुआ है और विग्रह के साथ इनके सेवक भी यहाँ आये थे। जिस प्रकार गोपीनाथ जी के लिए बोहरा जी ने अपनी हवेली दान करी उसी प्रकार राधा-दामोदर जी के लिए श्री हिम्मत राम नजरिया जी ने अपनी हवेली को दान में दिया था। इसी के साथ में जिस प्रकार वृन्दावन के राधा-दामोदर जी में गिर्राज शिला है उसी प्रकार यहाँ भी गिर्राज जी गोवर्धन शिला रखी है। राधावृन्दावनचन्द्र का विग्रह बड़ा है और यह राधा-दामोदर जी के पीछे विराजमान है यहाँ से गिरिराज शिला के दर्शन आसानी से किये जा सकते हैं। इस गिरिराज शिला के बारे में मान्यता है की जो भी भक्त इसके 108 परिक्रमा देता है उसको गोवर्धन परिक्रमा का लाभ मिलता है। यहाँ रखी कृष्ण चरण शिला की हर पूर्णिमा पर विशेष पूजा की जाती है।

ऐसा कहा जाता है सन 1796 में जयपुर नरेश से किसी विवाद के चलते राधादामोदर जी के सेवक सभी विग्रहों को लेकर वापस वृन्दावन चले गए थे। भक्तों के सेवाभाव को देख कर उस समय सूने गर्भ गृह में भगवान श्री नरसिंह जी के विग्रह को यहाँ रखा गया था। 25 वर्ष बाद सन 1821 में राधादामोदर जी के विग्रह को पुनः जयपुर लाया गया और उन्हें दुबारा मुख्य गर्भ गृह में नरसिंह जी की जगह विराजित किया गया और नरसिंह जी के लिए एक नया गर्भ गृह बनाया गया। इस प्रकार इस मंदिर में राम चंद्र जी का विग्रह भी है इसी के साथ कुछ वर्ष पहले भगवान श्री षड्भुजदेव की भी प्राणप्रतिष्ठा करवाई गई है जिनके साथ भगवान जगन्नाथ भी है इस प्रकार मंदिर में चरों युगों के चार देव विराजित हो गए हैं। सतयुग के नृसिंह जी, त्रेता युग के श्रीराम, द्वापर के श्री कृष्ण, कलियुग के भगवान षड्भुजानाथ।

राधा दामोदर जी के साथ जुडी है कुछ खास परम्पराएँ
1) कार्तिक मास बड़ा ही पवित्र मास है। इस मास में महिलाएं प्रातः ही स्नान कर ‘हरजस’ (राजस्थानी लोक गीत) गाती है पूरा महीना धार्मिक कृत्यों में बीतता है। दामोदर जी कार्तिक के ठाकुरजी हैं अतः इस माह में महिलाओं का हुजूम उमड़ता है और भगवान की विशेष झांकियां सजाई जाती है सेवा श्रृंगार बहुत आकर्षक होता है।
2) यहाँ जन्माष्टमी का उत्सव भी अन्य गौड़ीय परंपरा के मंदिरों से अलग होता है। गौड़ीय मंदिरों के विपरीत यहाँ भगवान का अभिषेक मध्याह्न में 12 बजे होता है, यह परंपरा वृन्दावन से ही चली आ रही है।

इनके दर्शन करने के पश्चात त्रिपोलिया की तरफ आगे बढ़ कर बाएं हाथ को ही प्रथम मंजिल पर आता है श्री द्वारिकाधीश जी का मंदिर

यह भी राजसिक शैली का बना हुआ राजपूत-मुग़ल स्थापत्य वाला, शिखर रहित और सुन्दर आर्च वाला मंदिर है और यहाँ श्रीकृष्ण का बाल विग्रह द्वारिकाधीश के नाम से विराजित है।

इनके दर्शन करने के पश्चात त्रिपोलिया बाजार से छोटी चौपड़ की ओर चलने पर आतिश के ठीक सामने बाएं हाथ को आता है राधा विनोद जी का मंदिर

Radha Vindo Ji also known as Vinodi Lal Ji

राधा विनोद जी का मंदिर जिसे जयपुर वाले विनोदी लाल जी का मंदिर कहते हैं। यह मंदिर भी अति विशाल था और महाराजा पुस्तकालय के सामने से आतिश के सामने तक फैला था। सर मिर्जा इस्माइल के प्रधान मंत्रित्व में मंदिर के चौड़े रास्ते वाले भाग को हिन्द होटल के निर्माण के लिए दे दिया गया। होटल की ईमारत से मंदिर पूरा छिप सा गया है, मंदिर के साथ लगा शिवालय आज भी हिन्द होटल के चौक में है। त्रिपोलिया बाजार में इसके निचे खड़े आदमी को आभास भी नहीं होता है की यहाँ को मंदिर भी है।
यह मंदिर का विग्रह लोकनाथ गोस्वामी का आराध्य था और लोकनाथ जी गौड़ीय संप्रदाय के मुख्य स्तम्भों में से थे। वे बंगाल के जैसोर परगने हाल में बांग्लादेश से वृन्दावन आये थे और चैतन्य महाप्रभु के शरणागत हुए थे। राधा-विनोद का पाटोत्सव 1510 ई का मन जाता है। इस प्रकार यह विग्रह गौड़ीय संप्रदाय का सबसे पुराण विग्रह कहा कहा जा सकता है। यह नहीं कहा जा सकता की राधा विनोद के सेवायत लोकनाथ गोस्वामी के बाद कौन थे किन्तु यह पता चलता है की विश्वनाथ चक्रवती जयपुर बसने के बहुत पहले ही राधा-विनोद को लेकर आमेर आ गए थे। राजा सवाई जयसिंह और उनके पूर्वजों को गौड़ीय संप्रदाय में अति दिलचस्पी थी। राधा-दामोदर जी को आमेर के राजाओं के पुराने महल में जिसे अब बालाबाई की साल के नाम से जाना जाता है में 1700 ई के आस पास विराजमान किया। जयपुर की नीव लगने के बाद जब नया शहर बसा और आमेर उजड़ने लगा तो राधा-विनोद को बालानंद जी के सुविशाल गढ़ में प्रतिष्ठापित किया परन्तु यह भी उनका अस्थायी निवास ही रहा। इनका आगमन चौड़े रास्ते में कब हुआ इसका विवरण नहीं मिलता है। राधा-विनोद का सेवाधिकार महाराजा सवाई रामसिंह के समय तक गुरु-शिष्य परंपरानुसार ब्रम्ह्चारियों को ही मिलता रहा किन्तु 1916 में तत्कालीन गोस्वामी के निधन के बाद जब गोवामी गोकुललाल सेवाधिकारी बने तो उन्होंने 1920 में महाराजा सवाई माधोसिंह जी की अनुमति से विवाह कर लिया। यह गोस्वामी बड़े ही संगीत प्रेमी थे और मणिपुर के एक हस्त वीणा वादक को भी सदैव अपने साथ रखते थे।

इनके दर्शन करने के पश्चात सामने सीधे आतिश मार्किट के गेट को सीधा पार करिये और दाएं मुड़िये सामने पैलेस के गेट को पार करते ही आएगा एक बहुत बड़ा खुला चौक जिसे चांदनी चौक कहते है

चांदनी चौक के चार कोनो पर चार प्रसिद्ध मंदिर हैं राजराजेश्वर जी, ब्रजनिधि जी, आनंदकृष्ण बिहारी जी और गुप्तेश्वर महादेव।

चांदनी चौक के गेट से अंदर घुसते ही बाएं हाथ को है मंदिर श्री ब्रजनिधि जी

यह ऊँची वेदी पर बसा एक बहुत बड़े और खुले प्रांगण वाला मंदिर है। इस मंदिर का निर्माण जयपुर महाराजा सवाई प्रताप सिंह ने सम्वत 1849 सन 1792 में करवाया था। मंदिर में मूर्ति की स्थापना वैशाख शुक्ल अष्ठमी शुक्रवार सम्वत 1849 में करवाई गई थी। मंदिर में श्री कृष्ण भगवान की काले पाषाण की एवं राधिका जी की धातु की भव्य मूर्ति विद्यमान है। मंदिर में सेवा पूजा वल्लभ कुल और वैष्णव संप्रदाय से मिली जुली पद्धति से होती है। मंदिर के स्थापना के सम्बन्ध में एक विशेष घटना जुड़ी हुई है
महाराजा प्रताप सिंह गोविन्द देव जी के अनन्य भक्त थे। गोविन्द देव जी उन्हें साक्षात् दर्शन देते थे और बात करते थे। अवध नवाब वाजिद अली शाह जिसने अवध के वाइसराय का वध करदिया था ब्रिटिश सरकार से बच कर परतपसिंघ जी की शरण में आया था और उस समय महाराज ने गोविन्द देव जी शपथ ले उसे बचाया था परन्तु बाद में उन्हें वाजिद अली को कुछ शर्तों के साथ ब्रिटिश सरकार को सौंप दिया था और जॉइंड देव की शपथ झुठला दी जिस से गोविन्द देव ने उन्हें दर्शन देना बंद कर दिया था। महाराज इस बात से व्यथित हो गए और उन्होंने अन्न जल का त्याग कर दिया था। श्रीगोविन्द देव ने बाद में उन्हें स्वप्न में दर्शन दिया और श्री ब्रजनिधि का महलों में एक नया मंदिर स्थापित करने को कहा और बताया की यह मूर्ति तुम्हे स्वप्न में दर्शन देती रहेगी। महाराज ब्रजनिधि जी का राजभोग आरती के समय दर्शन करती थे और स्वरचित पद्य सुनाते थे। महाराज द्वारा रचित ब्रजनिधि ग्रंथावली एक प्रसिद्ध ग्रन्थ है।

Brij Nidhi Ji

मंदिर का भव्य भवन वास्तुकला की दृष्टि से अत्यंत कलात्मक है। बृजनिधि मंदिर का अग्रभाग जयपुर के सबसे खूबसूरत मंदिरों में से एक है। यह महाराजा सवाई प्रताप सिंह द्वारा बनाया गया था, जिन्हें गुलाबी शहर की सबसे प्रतिष्ठित इमारत – हवा महल के लिए सबसे ज्यादा याद किया जाता है। बृजनिधि मंदिर हवा महल से पहले का है।

इनके दर्शन करने के पश्चात इस मंदिर के ठीक सामने चांदनी चौक में ही श्री आनंदकृष्ण बिहारी जी के दर्शन करिए


इस मंदिर की स्थापना सवाई प्रताप सिंह जी की पटरानी भटियाणी जी श्री आनंदी बाई ने करवाई थी, मंदिर हवेली नुमा शैली में है। उनके नाम से ही ये मंदिर आनंद कृष्ण बिहारी जी के नाम से जाना जाता है। ऐसी मान्यता है की भगवान कृष्ण बिहारी जी ने महारानी को दर्शन देकर आने को वृन्दावन में होने का आभास करवाया इसी मले आदेश के अनुसार महारानी ने गाजे-बजे के साथ इस विग्रह को ढूंढ कर जयपुर मंगवाया। माघ कृष्ण अस्टमी सम्वत 1849 को भगवान के विग्रह की प्राण-प्रतिष्ठा पूरे विधि विधान से करवाई गई। महारानी ने आदेश दिया की वृन्दावन में गांडीर वन में कहीं किसी संत महात्मा के पास एक पेड़ पर कृष्ण बिहारी जी विराजमान है उनको ढूंढ कर लाओ। मूर्ति की गढ़ाई चल रही थी जिसका आधा स्वरुप आज भी प्रांगण में रखा है। प्राण प्रतिष्ठा कार्यकर्म सात दिन तक चला बताया जाता है जिस दिन समारोह की आखिरी रीति अपनाई जा रही थी महाराज का प्राणांत हो गया और मंदिर के शिखर पर कलश स्थापित नहीं हो सके, कलशों की स्थापना हाल ही में जीर्णोद्धार के समय की गई।

इसके पश्चात आता है जयपुर का पूरे विश्व में प्रसिद्द, सबसे बड़ा, सबसे अधिक भक्तों की संख्या वाला जयनिवास उद्यान में स्थित मंदिर श्री गोविन्द देव जी जिनकी छवि इतनी मनमोहक है की इनसे आँखों का दूर जाना ही संभव नहीं है।

जो भी यात्री या पर्यटक जयपुर शहर में आता है वह यहाँ के अन्य दर्शनीय स्थानों के साथ गोविन्द देव जी के दर्शन करने अवश्य ही जाता है। अपने ज़माने में राजा गोविन्द देव जी को अपना दीवान मानते थे। गोविन्द देव आज भी राजा है। वृन्दावन सी धूम हर समय कभी तो उसे भी ज्यादा मंदिर के प्रांगण में हमेशा ही मची सी रहती है। इत्र और फूलों की महक यहाँ की हवा में हमेशा तैरती रहती है। बंगाल के चैतन्य महाप्रभु ने चार सदियों पहले भक्तिभाव और कीर्तन का जो रास्ता सांसारिक लोगों को बताया था उसका जादू अब भी बरक़रार है और यहाँ देखने को मिलता है।

यहाँ विख्यात मंदिर उस बारहदरी में है जो ‘सूरजमहल’ के नाम से जयनिवास बाग़ में चंद्रमहल और बादल माल के मध्य में बनी थी। किवदंती है की सवाई जयसिंह जब यह शहर बसा रहे थे तो सबसे पहले इसी बारहदरी में रहने लगा था। उसे आदेश हुआ की यह स्थान भगवन का है और उसे छोड़ देना चाहिए। अगले दिन वह चंद्रमहल में रहने लगा और यहाँ गोविन्द देव पाट बैठाया गया। मुग़ल बारहदरी को बंद कर किस प्रकार आसानी से मंदिर में प्रणीत किया गया है यह गोविन्द देव जी के मंदिर से स्पष्ट है। यहाँ के संगमरमर के अत्यंत कलात्मक दोहरे स्तम्भ और ‘लदाव की छत’ जिसमे पट्टियां नहीं होती है, जयपुर के इमारती काम का कमाल है।
गोविन्द देव जी की झांकी सचमुच बहुत मनोहर है। चैतन्य महाप्रभु ने बृज भूमि के उद्धार और वहां के विलुप्त लीला स्थलों को खोजने के लिए अपने दो शिष्यों रूप और सनातन गोवामी को वृन्दावन भेजा था। ये दोनों भाई थे और गौड़ राज्य के मुसाहिब थे लेकिन चैतन्य से दीक्षित होकर सन्यासी बन गए थे। रूप गोस्वामी ने गोविन्द देव की मूर्ति को जो गोमा टीला नामक स्थान पर वृन्दावन में भूमिगत मिली निकालकर 1525 ई में प्राण प्रतिष्ठा की। अकबर के सेनापति और आमेर के प्रतापी राजा मानसिंह ने इस प्रवित्र मूर्ति की पूजा करी। वृन्दावन में 1590 में उसने लाल पत्थर का जो विशाल मंदिर गोविन्द देव के लिए बनाया वह उत्तर भारत के सर्वोत्कृष्ट मंदिरों में गिना जाता है।
अप्रैल 1669 में जब औरंगजेब ने शाही फरमान जारी कर व्रजभूमि के देव मंदिरों को गिराने और उनकी मूर्तियों को तोड़ने का हुक्म दिया तो इसके कुछ आगे पीछे वहां की सभी प्रधान मूर्तियां सुरक्षा के लिए अन्यंत्र ले जाई गई। माध्व-गौड़ या गौड़ीय संप्रदाय के गोविंददेव, गोपीनाथ और मदनमोहन ये तीनो स्वरुप जयपुर आये। गोविन्द देव पहले आमेर घाटी के निचे बिराजे और जयपुर बसने पर जयनिवास की इस बारहदरी में बैठे जहाँ आज भी है।
गोविन्द देवजी की पूजा गौड़ीय वैष्णव की पद्धति से की जाती है। सात झांकियां होती है और प्रत्येक झांकी के समय गए जाने वाले भजन और कीर्तन निर्धारित है।
गोविन्द देव की झांकी में दोनो ओर दो सखियाँ खड़ी है। इसमें से एक राधा ठकुरानी की सेवा के लिए है जो सवाई जयसिंह ने चढ़ाई थी। प्रतापसिंग की कोई सेविका भगवन की पान सेवा करती थी जब उसकी मृत्यु हो गई तो प्रताप सिंह ने उसकी प्रतिमा बनवा कर दूसरी सखी चढ़ाई। सवाई प्रताप सिंह के काल में राधा-गोविन्द का भक्ति भाव बहुत बढ़ गया था।

Govind Dev Ji

इस मंदिर का निर्माण और राजा के चंद्रमहल का निर्माण इस प्रकार किया गया है की राजा के कक्ष से सीधे गोविन्द देव के दर्शन होते हैं। सवाई माधोसिंह द्वितीय रोज प्रातः गोविन्द देव के महल से दर्शन कर ही आपने आगे के कामों को किया करते थे। आज भी गोविन्द देव की लीलाओं और प्रताप में कोई कमी नहीं है किसी भी आरती का कोई भी समय हो और कैसा भी मौसम हो गोविन्द देव के भक्त उनके दर्शन करने आते है और पूरा प्रांगण भक्तों से भरा होता है। जन्माष्टमी के दिन हर साल आने वाले भक्तों की संख्या में रिकॉर्ड बढ़ोतरी होती है। गोविन्द देव आज भी जयपुर के सप्राण देव हैं। सभी लोग अपना दैनिक कार्य शुरू करने से पहले या कुछ भी नया चालू करने से पहले गोविन्द देव के दर्शन करते ही करते हैं।

गोविन्द देव मंदिर के दर्शन कर बहार निकल कर जब पुनः बड़ी चौपड़ की तरफ बाहर निकलने के बाद हवामहल के प्रांगण के भीतर है गोवर्धन नाथ जी का मंदिर जिसकी दीवारों पर बने चित्र देखते ही बनते हैं।

इस ऐतिहासिक मंदिर श्री गोवर्धन नाथ जी का निर्माण सवाई प्रताप सिंह जी ने 1799 में हवामहल के साथ करवाया था। श्री मंदिर का पुष्ट सन 1850 में सवाई राजा प्रताप सिंह के गुरु श्री देवकी नंदनाचार्य जी वाले पंचम पीठाधीश्वर द्वारा किया गया। इस विलक्षण मंदिर में श्री गोवर्धन नाथ जी, श्री स्वामिनी जी व श्री यमुना जी के श्री विग्रह विराजमान है। मंदिर का सञ्चालन गोकुल चन्द्रमा हवेली ट्रस्ट शुद्ध अद्वैतवाद पंचम पीठ कामवन द्वारा किया जाता है। पुष्टि मार्ग वैदिक हिन्दू धर्म का एक अलौकिक सम्प्रदाय है। जो की श्री कृष्ण प्रेम भक्ति और सेवा पर आधारित है। महाप्रभु की वल्लभाचार्य जी द्वारा स्थापित पुष्टि मार्ग ततः सुख की भावना से श्री कृष्ण को सेवा व समर्पण की पद्धति है। यह मंदिर पांच सौ वर्ष प्राचीन सेवा प्रणालिका और पुष्टि मार्ग के सिद्धांतो का प्रतीक स्तम्भ है। श्री कृष्णा को यहाँ राग भोग और श्रृंगार के द्वारा रिझाया जाता है और प्रेम पूर्ण सेवा समर्पित की जाती है। यह मंदिर अपनी शिल्पकला व अन्य कलाकृतियों का दर्शनीय स्थल है जिसके आकर्षण हैं
1. श्री गोवर्धन नाथ जी के अलौकिक दर्शन
2. दीवारों पर श्रीकृष्ण के हाथ निर्मित चित्र
3. श्री गोवर्धन नाथ जी का ऐतिहासिक रथ
4. श्री गोवर्धन नाथ जी का कांच का हिंडोला
5. मार्बल पर अध्भुत नक्काशी

यात्रा की समाप्ति यहां की जा सकती है और आप त्रिपोलिया बाजार में रामचंद्र ज्यूस सेंटर पर ज्यूस पी पुनः चौड़े रास्ते जाकर अपने अपने वाहनों से घर जा सकते हैं और अगर आप चाहे तो ताड़केश्वर जी के बगल में मोहन मंदिर के दर्शन और कर सकते हैं।

अन्य संभव यात्रा कुछ इस प्रकार हो सकती है

  1. अगर आप सिर्फ जयपुर में ही अपने वाहन से करना चाहें।
Vehicle Route covering important temples of Jaipur City

2. अगर आप साक्षात् कृष्ण दर्शन करना चाहें।

Vehicle Route covering temples made by grandson of Krishna Bajranabha

3. जयपुर में इस्कॉन (ISKON) की उपस्थिति

Temples on the concept of ISKON in Jaipur

जयपुर शहर का कृष्ण प्रेम अद्धभुत है जिसका कही और कोई मोल नहीं है। कहा जाता है जहाँ गोविन्द वहीँ वृन्दावन और जयपुर शहर के पर्यटन के पश्चात और यहाँ के मंदिरों के दर्शनों के पश्चात यहाँ सिद्ध होता है की यह नगरी किसी भी तरह से वृंदावन से कम नहीं है। भिन्न भिन्न सम्प्रदायों के मंदिर और उनमे होने वाली कृष्ण भक्ति इसे अतुलनीय बना देती है। जब भी जयपुर में हो इन कृष्ण मंदिरों का दर्शन अवश्य करें बताए गए पैदल मार्ग का पालन करेंगे तो अधिक से अधिक मंदिरों और उनके विग्रहों के दर्शन का लाभ ले पाएंगे और देखें की कैसे चैतन्य महाप्रभु की परम्पराऐं और वृन्दावन के सभी विग्रह कैसे शहर और उसके नागरिकों के बीच पूजनीय है और सभी कृष्ण की भक्ति से ओतप्रोत हैं।

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Festivals of India Stories in Hindi Stories of Cities

Jaipur Shahar aur Rakhi ka Tyonhaar

श्रावण मास पूर्णिमा को उत्तर भारत में मनाया जाता है रक्षाबंधन जो यहां का एक बहुत बड़ा त्योहार है। यह पारिवारिक संबंधों की मजबूती को दर्शाने वाला और उल्लास पूर्वक मनाया जाने वाला पर्व है।

इस दिन बहनें अपने भाइयों को कलाई पर राखी बांध कर संबंधों के सतत और मजबूत रहने की कामना करती है और भाई उन्हें भेंट से इसी कामना का आश्वासन देते है। इस त्योहार की शुरुआत के बारे में बहुत की कहानियां प्रचलित है और सभी कहानियों का निष्कर्ष यही है कि सम्बन्ध का पारिवारिक होना ही नहीं उनका प्रगाढ़ होना अत्यंत महत्वपूर्ण हैं।

रक्षाबंधन के प्रारम्भ की कहानी लगभग 3000 ईसा पूर्व वेदव्यास द्वारा रचित और लगभग 500 ईस्वी में लिखित विष्णु पुराण में विष्णु के वामन अवतार के साथ जुड़ कर प्रारम्भ होती है।

Maharshi Vedavyasa

“भगवान विष्णु ने वामन अवतार लेकर असुरों के राजा बलि से तीन पग भूमि का दान मांगा। दानवीर बलि इसके लिए सहज राजी हो गए। वामन ने पहले ही पग में धरती नाप ली तो बलि समझ गए कि ये वामन स्वयं भगवान विष्णु ही हैं. बलि ने विनय से भगवान विष्णु को प्रणाम किया और अगला पग रखने के लिए अपने शीश को प्रस्तुत किया। विष्णु भगवान बलि पर प्रसन्न हुए और वरदान मांगने को कहा तब असुर राज बलि ने वरदान में उनसे अपने द्वार पर ही खड़े रहने का वर मांग लिया। इस प्रकार भगवान विष्णु अपने ही वरदान में फंस गए तब माता लक्ष्मी ने नारद मुनि की सलाह पर असुर राज बलि को रक्षासूत्र बांध कर उपहार के रूप में भगवान विष्णु को मांग लिया।”

Raja Bali and Laxmi Ji
A Vaaman Sculpture in a temple of Jaipur dipicting Charity of Land by Raja Bali

इसकी द्वितीय कहानी भक्ति परम्परा के लगभग 900 से 1000 ईस्वी के मध्य कहीं लिखे गए एक सुप्रसिद्ध ग्रन्थ भागवत पुराण में महाभारत के प्रसंग के साथ जुडी मिलती है।

“पौराणिक मान्यताओं के अनुसार महाभारत में शिशुपाल के साथ युद्ध के दौरान श्री कृष्ण जी की तर्जनी उंगली कट गई थी। यह देखते ही द्रोपदी कृष्ण जी के पास दौड़कर पहुंची और अपनी साड़ी से एक टुकड़ा फाड़कर उनकी उंगली पर पट्टी बांध दी। इस दिन श्रावण पूर्णिमा थी, इसके बदले में कृष्ण जी ने चीर हरण के समय द्रोपदी की रक्षा की थी।”

Rani Darupadi and Krishna
Cheer Haran

इसकी तृतीय कहानी लगभग 1000 से 1100 ईस्वी में लिखे गए भविष्य पुराण में मिलती है।

इसके अनुसार “सालों से असुरों के राजा बलि के साथ इंद्र देव का युद्ध चल रहा था। इसका समाधान मांगने इंद्र की पत्नी शची विष्णु जी के पास गई, तब विष्णु जी ने उन्हें एक धागा अपने पति इंद्र की कलाई पर बांधने के लिए दिया। शची के ऐसा करते ही इंद्र देव सालों से चल रहे युद्ध को जीत गए। इसलिए ही पुराने समय में भी युद्ध में जाने से पहले राजा-सैनिकों की पत्नियां और बहने उन्हें रक्षा सूत्र बांधा करती थी, जिससे वो सकुशल जीत कर लौट आएं।”

Indra Dev and Raja Bali

एक समय प्राकृतिक परंपरा को मानते हुए किसी और को राखी बांधने से पहले प्रकृति की सुरक्षा के लिए तुलसी और नीम के पेड़ को राखी बाँधी जाती थी, जिसे वृक्ष-रक्षाबंधन भी कहा जाता है। हालांकि आजकल इसका प्रचलन नही है परन्तु झारखंड और छत्तीसग़ढ के आदिवासी इलाकों में राखी को आज भी इसी प्रकार ही मनाया जा रहा है। गुरु-शिष्य परम्परा में शिष्य अपने गुरु को आज भी राखी बांधते है।

Women tying Rakhi to Trees and Celebrating

हालाँकि राखी की परम्परा ऋग्वैदिक काल से ही है और उस समय केवल ब्राह्मण लोग ही एक दूसरे को, देवताओं को और राजा को रक्षासूत्र बंधा करते थे जैसे ही यह प्रचलन में आई और सभी लोग और वर्ण इसके विश्वास को परमविश्वसनीय मानाने लगे तो यह परंपरा आगे बढ़ी और पालतू पशुओं, पीपल, गूलर, नीम, बबूल आदि वृक्षों को मौली के रूप में रक्षासूत्र बांधने लगे। गाय और घोड़ों को आज भी क्रमशः ब्राह्मणों और क्षत्रियों के द्वारा अनेक स्थानों पर रक्षासूत्र बंधा जाता है। इस पर्व के प्रारम्भ का अनुमान लगाना लगभग असंभव ही है।

Celebrating Rakhi with Cow

इस दिन ऋषि तर्पण और श्रवण पूजा का भी विधान है। इस दिन सभी सनातनी लोग श्रवण कुमार का पूजन करते हैं। इसके अलावा कुशा निर्मित ऋषियों की स्थापना करके उनका पूजन, तर्पण और विसर्जन करते हैं। श्रावण शुक्ल पूर्णिमा को ऋग, यजु, साम वेद के स्वाध्यायी ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य, जो ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ, किसी आश्रम के हों, अपने-अपने वेद कार्य और क्रिया के अनुकूल काल में इस कर्म को संपन्न करते हैं। सामान्य तौर पर वे उस दिन नदी आदि के तटवर्ती स्थान में जाकर यथा विधि स्नान करते हैं। कुशा निर्मित ऋषियों की स्थापना करके उनका पूजन, तर्पण और विसर्जन करते हैं। इसके बाद रक्षा पोटलिका बनाकर उसका मार्जन करते हैं।

क्यों की जाती है श्रवण कुमार की पूजा?

इसकी कथा रामायण के एक प्रसिद्द प्रसंग के साथ जुडी है, नेत्रहीन माता पिता के एकमात्र पुत्र श्रवण कुमार उन्हें अपने कन्धों पर बिठा कर तीर्थ यात्रा करवाने ले जा रहे थे, बीच में उन्हें प्यास लगी तो श्रवण उनके लिए पास के ही संसाधन से रात्रि के समय जल लाने गए थे, वहीं कहीं हिरण की ताक में दशरथ जी छुपे थे। उन्होंने घड़े के शब्द को पशु का शब्द समझकर बाण छोड़ दिया, जिससे श्रवण की मृत्यु हो गई। जब इसका दशरथ को पता चला तो वे श्रवण के पास गए और श्रवण ने उन्हें अपने बारे में और माता पिता के बारे में बताया ग्लानि से भरे दशरथ जब श्रवण के माता पिता के पास गए और उन्हें उस अनहोनी का बताया तो उन्होंने क्रोधवश दशरथ को पुत्रवियोग का श्राप दे डाला। जिसके पश्चात दशरथ ने उनसे अनेक बार क्षमायाचना की और पश्चातापवश श्रावण पूर्णिमा को श्रवण कुमार की पूजा आरम्भ की जो अभी तक समाज में निरंतर है। यह रात्रि श्रावण मास की पूर्णिमा ही थी।

Ayodhyapati Raja Dashrath and Shravan Kumar

इन सभी बातों का निष्कर्ष यही है की जिस प्रकार से इसकी महत्वपूर्णता आम प्रचलन में भाई-बहन तक सीमित बताई जाती है यह वास्तविकता में वहीँ तक सीमित नहीं है यह पर्व सिर्फ रक्षा पर्व नहीं है यह पर्व एक विश्वास का पर्व है जिसमे दोनों पक्ष ही याचक और दाता है जिसमे भाई-बहन अपने एक-दूसरे के प्रति प्रेम और सम्मान का आदान प्रदान कर रहे हैं और प्रकृतिवादी प्रकृति को संतुलित रख जीव मात्रा के अस्तित्व की रक्षा कर रहे हैं और गुरु शिष्य ज्ञान के आदान प्रदान के साथ अपनी परम्पराओं को आगे बढ़ा रहे हैं।

जयपुर शहर में रक्षाबंधन के साथ विशेष परंपरा जुडी हुई है यहाँ शहर की स्थापना के साथ महाराष्ट्र से बुलाये गए ब्राह्मणों में से एक प्रमुख विद्वान् और ज्योतिषाचार्य श्री सम्राट जगन्नाथ जी के वंशजों ने जिसे तार्किक और वैदिक परंपरा के अनुरूप प्रारम्भ किया। उनका दिया गया तर्क यह है की जब रक्षासूत्र के साथ एक दूसरे की रक्षा का वचन दिया जाता ही है तो राजा तो पूरे शहर और राज्य का प्रथम और मूल रक्षक है तो क्यों न उन्हें हम जनता के प्रतिनिधि के रूप में रक्षासूत्र बांध सम्मानित करें जिस से राजा भी हमें और जनता को अपने सुशासन से अनुग्रहित करें।

अतः राखी के दिन श्रावणी पूर्णिमा पर शुभ मुहूर्त पर गलता, गोविंददेव जी, गोपीनाथ जी आदि के महंत पालकी में बैठ कर महल आते थे। इस दिन सर्वतो-भद्रः सभागार में महाराजा का राखी का दरबार सजता था। शहर की सबसे पहली राखी शुभ मुहूर्त में सबसे पहली राखी संत, महंतों और धार्मिक गुरुओं द्वारा राजा को बाँधी जाती है। इसका एक परचा सिटी पैलेस के रिकॉर्ड में मिलता है सं 1881 की श्रावणी पूर्णिमा पर महंतों व गुरुओं ने महाराजा सवाई माधो सिंह द्वितीय को वैदिक मंत्रोच्चार के साथ राखी बाँधी। सम्राट जगन्नाथ के वंशज वैधनाथ ने पहली राखी बाँधी बाद में रत्नाकर पौंड्रिक के वंशज गोविन्द धर के अलावा नारायण गुरु, गंगेश्वर भट्ट, उमानाथ ओझा ने राखी बाँधी। सन 1932 के रक्षाबंधन पर दस माह के युवराज भवानी सिंह ने बहन प्रेम कँवर को राखी बांध स्वर्ण मोहर भेट करी। ईसरदा की गोपाल कँवर ने होने ससुराल पन्ना रियासत से भाई मानसिंह को रामबाग में राखी भेजी और मानसिंह ने पेटे के चार सौ रुपये मनीआर्डर किये। रामसिंह द्वितीय की महारानी रणावती भी भाई बहादुर सिंह करनसर के राखी बांधने त्रिपोलिया के किशोर निवास में 15 हथियार बंद सैनिकों के साथ रथ में गई।

सिटी पैलेस में निवास करने वाली जिस महारानी व राजमाता के भाई जयपुर के बाहर होते तो उनके लिए स्वर्ण मोहरें, पाग के साथ राखी दस्तूर किसी जिम्मेदार जागीरदार के साथ उनके पीहर भेजा जाता था। 15 अगस्त 1940 को पंडित गोकुल नारायण के जननी ड्योढ़ी में राखी का पूजन किया था और दिवंगत महाराज सवाई माधोसिंह की पत्नी राजमाता तंवराणी जी माधोबिहारी जी मंदिर से संगीन पहरों में भाई भवानी सिंह व रणजीत सिंह को राखी बांधने खातीपुरा गई।

मानसिंह की ज्येष्ठ रानी मरुधर कँवर ने अपने खजांची मुकुंदराम जी के साथ पीहर जोधपुर में व तीसरी रानी गायत्री देवी ने कामा के राजा प्रतापसिंह व ओहदेदार भंवरलाल के साथ पीहर कूचबिहार में राखी भेजी। देवर्षि कलानाथ शास्त्री जी बचपन में पिता मथुरानाथ शास्त्री के साथ राजा सवाई मानसिंह को राखी बांधने सिटी पैलेस जाते थे। उस समय जागीरदार भी अपना बकाया टैक्स जमा करवा कर राखी के लिए दरबार में आया करते थे।

राखी और उसके मुहूर्त
हिन्दू परम्पराओं में मुहूर्तों का अत्यधिक महत्त्व है और राखी के दिन अनेक महिलाएं अपने भाइयों को राखी बांधने के पश्चात ही भोजन ग्रहण करती है। अनेक अवसरों पर रक्षाबंधन के दिन भद्रा के देर से आने से मुहूर्त भद्रा के रहने तक टल जाता है।

आइये जानते हैं की यह भद्रा क्या है?
हिन्दू कलैंडर चन्द्रमा और सूर्य दोनों की गति के अनुसार चलता है और चन्द्रमा की एक कला के परिवर्तन को एक तिथि कहा जाता है और सूर्य की एक कला के परिवर्तन को दिवस। तिथियां 5 प्रकार की होती है नंदा, भद्रा, जया, रिक्ता और पूर्णा। एक तिथि दो करण के योग से बनती है और करण 11 प्रकार के होते हैं जिनमे कुछ गतिशील है और कुछ स्थिर। इन 11 करणों में से सप्तम करण का नाम है विष्टि करण जिसे भद्रा भी कहा जाता है। यह विष्टि करण एक गतिशील करण है, यह स्त्रीलिंग है और यह तीनो लोकों में घूमती है जब यह मृत्युलोक अर्थात पृथ्वी पर होती है तो शुभ कार्यों में बाधक होती है या उनका नाश कर देती है। जब चन्द्रमा कर्क, सिंह, कुम्भ और मीन राशि में विचरण करता है और विष्टि करण का योग होता है तब भद्रा पृथ्वीलोक में होती है और इस समय सभी शुभ कार्य वर्जित होते है। 21 अगस्त 2021 को मध्य रात्रि (Gregorian Date 22 August) पर चन्द्रमा मकर से कुम्भ राशि में प्रवेश करेगा और यहाँ से श्रावणी पूर्णिमा का आरम्भ होगा, विष्टि करण से तिथि प्रारम्भ होगी और यह करण 22 को सुबह 06:14 AM तक है अतः भद्रा सुबह तक ही है और रक्षाबंधन उसके पश्चात पूरे दिन मनाया जा सकता है।

पौराणिक भद्रा है कौन?
यह भगवन सूर्यदेव की पुत्री और शनि देव की बहन है और अपने भ्राता शनि की तरह ही इनका स्वभाव है। इनके इसी स्वाभाव को नियंत्रित करने के लिए भगवान ब्रम्हा ने इन्हे पंचांग में एक प्रमुख अंग विष्टि करण में स्थान दिया है। चूँकि यह शनि की बहन है और शनि न्याय के देव हैं इसी प्रकार ये भी न्याय की देवी होती हैं अतः भद्रा में हर मांगलिक कार्य वर्जित है परन्तु न्यायिक कार्यों को किया जा सकता है।

Bhadra Devi

भारत उत्सवों और पर्वों का देश है जिसमे देशज पर्व भी हैं और राज्यों के अपने विशेष पर्व भी, राखी इसी प्रकार से आधे से ज्यादा भारत में श्रावणी पूर्णिमा के दिन हर्षोल्लास से मनाया जाता है। जयपुर शहर की परम्पराओं के उल्लेख और यहाँ के विशेष प्रचलनो से यह सिद्ध होता है की इस पर्व की शहर में कितनी महत्वपूर्णता है और इसका ज्योतिष से व खगोल विज्ञान से कितना गहरा सम्बन्ध है। अतः सभी नियमो का यथोचित रूप से पालन करते हुए, त्योंहार के मूल कारण आपसी विश्वास और प्रेम को बनाये रखने के लिए हर बार की तरह इस बार भी इस पर्व को अपने परिवारजनों से साथ हर्षोल्लास के साथ मनाइये।

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Narsingh Chaturdashi

नृसिंह जयंती वैशाख माह के शुक्ल पक्ष की चतुर्दशी को मनाई जाती है, पुराणों में विष्णु पुराण में सतयुग की एक कहानी है जिसके अनुसार ऐसा माना जाता है की इस दिन भगवन विष्णु अपने भक्त प्रह्लाद जिसे अपने पिता हिरण्यकश्यप से मृत्युदंड मिलने के बाद जिस समय उसे दंड दिया जा रहा होता है उस समय वे खम्ब फाड़ नृसिंह अवतार ले प्रकट होते हैं, और अपने भक्त प्रह्लाद को बचा आतातायी राजा और उसके पिता हिरण्यकश्यप को मार पृथ्वी को उसके अत्याचारों से बचाते हैं। इस कहानी का पूर्वार्ध यह है की हिरण्यकश्यप नाम के असुर होते हैं वे अनेक वर्षों तक भगवान ब्रम्हा की कठिन आराधना कर उनसे अमर होने का वरदान मांगते है, जिसे देने में ब्रम्हा अपनी असमर्थता व्यक्त करते हैं और उसे कुछ दूसरा वरदान मांगने को कहते है, हिरण्यकश्यप अपनी बुद्धि का इस्तेमाल कर उनसे कुछ इस प्रकार का वरदान मांगते हैं की कोई उसे न तो कोई दिन में मार सके न रात में, न अस्त्र से न शस्त्र से, न ही आकाश में न धरती पर, न ही कोई मनुष्य और न ही कोई जंतु, न घर के अंदर न बाहर। इस प्रकार का वरदान पा वे अपने को एक तरह से अमर समझ कर अत्याचार करना शुरू कर देता और और इस वरदान के कारण उसे कोई मार भी नहीं पाता और वह समग्र पृथ्वी को जीत लेता है।

18 Century Painting depicting Hiranyakashipu killing his son Prahlada

अमर समझने के कारण वह अपने को भगवान घोषित कर देता है व सभी प्रकार की पूजा अर्चना पर प्रतिबंध लगा अपनी प्रजा को स्वयं की पूजा करने को कहता है, परन्तु उसका पुत्र प्रह्लाद ही विष्णु का बहुत बड़ा भक्त होता है और जब यह बात हिरण्यकश्यप को पता चलती है तो उसे अनेक प्रकार से समझाता है की वह भी विष्णु को छोड़ अपने पिता की पूजा करे व उसके न मानाने पर अनेक प्रकार से दंड देता है इसी क्रम में वह अपनी बहन होलिका जिसे न जलने का वरदान प्राप्त था के साथ प्रह्लाद को जलने के लिए भी भेज देता है परन्तु हर बार जिस प्रकार उसे विष्णु बचाते हैं उसी प्रकार इस बार भी विष्णु की कृपा से होलिका जल जाती है और प्रह्लाद बच जाता है।

इसी क्रम में आगे हिरण्यकश्यप अपनी आत्ममुग्धता और अमर होने के घमंड के कारण अपने पुत्र को मृत्युदंड देता है, और भगवान नृसिंह का अवतार ले प्रकट होते हैं, श्री ब्रम्हा के वरदान की रक्षा करते हुए व हिरण्यकश्यप को मारने के लिए विष्णु उसके द्वारा मांगे हुए वरदान को अपूर्ण बताते हुए आधा नर और आधा सिंह का रूप लिए अवतरित होते हैं, उसे संध्या के समय द्वार की दहलीज पर बैठ कर अपनी गोदी में रख सिंह की तरह अपने लम्बे नाखूनों से उसका वध कर देते हैं व प्रह्लाद को धरती का राजा घोषित कर देते हैं जो पृथ्वी पर पुनः सौहाद्र की स्थापना करते है।

Narsingh/Narsimha and Hiranyakashipu Fight

उनका पुत्र विरोचन भी बड़ा प्रतापी राजा होता है परन्तु ऐसा कहा जाता है की असुर जाति, अपने स्वाभाव व क्षीण बुद्धि के कारण वह अपनी शिक्षा को गलत रूप में ले लेता है और उस समय पूजा में देव के मूर्ति के आत्मिक स्वरुप की जगह देव के मूर्त रूप को पूजने लगता है और उसी प्रकार की शिक्षा को आगे बढ़ावा देता है और ऐसा माना जाता है की उसी समय से लोगो ने भी मंदिर में मूर्ति के आत्मिक स्वरुप का दर्शन करने के बजाए उनके बनावटी रूप को देखना शुरू कर दिया।

Narsimha/Narisngh killing Hiranyakashyapu, Halebidu, Karnataka

राजा विरोचन का पुत्र राजा बलि भी बहुत प्रतापी हुआ उसने पृथ्वी के साथ साथ पुरे ब्रम्हांड को ही जीत लिया था जिसे बाद में विष्णु ने ही वामन अवतार ले समग्र संसार व स्वयं उसे दान में मांग कर सम्बंधित लोगों को पुनः दिया व राजा बलि को पाताल लोक का राजा बना अमर होने का वरदान भी दिया।

Left to Right Vamana, Raja Bali, Shukracharya and Raja Bali
Painting for Mankot, Jammu and Kashmir (1700-25)

जयपुर शहर में रियासत काल से ही नृसिंह जी की लीला को आम लोगो के मनोरंजन के लिए आयोजित किया जा रहा है। इन आयोजनों में
नृसिंह जी के खम्ब फाड़ प्रकट होने से लेकर हिरण्यकश्यप को मारने और प्रह्लाद को राजा बनाने तक के प्रकरण को स्थानीय लोगों द्वारा दिखाया जाता है। यह कार्यक्रम आजकल के नुक्कड़ नाटक शैली की तरह सडकों पर इधर उधर आ जा कर किया जाता रहा है, शहर के सभी मुख्य शिव मंदिरों से पास के किसी और प्रसिद्ध मंदिर तक यह नृसिंह जी की सवारी निकलती है। शिव मंदिर से भगवान का रूप लिए कलाकार खम्बा फाड़ कर निकलता है और सभी उनके साथ दूसरे स्थान या मंदिर तक जाते है इस बीच रास्ते में अनेक लोग उनका दर्शन करते हैं, भोग लगते हैं, आशीर्वाद लेते है और वह व्यक्ति सिंह की भांति रास्ते पर मदमस्त सा चलता जाता है उसी के साथ कुछ साथी उसे रास्ते का भान करवाने, उसके जाने का रास्ता खाली करवाने, भीड़ की तरफ से लेकर जाकर हंगामा करने वाले और एक उसके साथ उसे वेशभूषा के करना लगने वाली गर्मी में हवा देने का काम करते हैं। इस प्रकार वह पूरे रास्ते लोगों का मनोरंजन करते हुए अपने अंतिम गंतव्य की और अग्रसर होता है और अंतिम स्थान पर उसकी लड़ाई हिरण्यकश्यप से होती है वह नाटक में उसका द्वार की दहलीज पर नाखूनों के उसका वध करते हैं और प्रह्लाद को राज गद्दी प्रदान करते हैं। इस प्रकार से नृसिंह चतुर्दशी के दिन पूरे शहर में संध्या पश्चात् इस प्रकार के सामाजिक सहयोग से कार्यकर्म आयोजित किये जाते रहे हैं इन कार्यक्रमों में पहली बार अवरोध इस कोरोना काल में ही आया है।

narsingh leela
Narsingh Leela

नृसिंह लीला को आयोजित करने वाली कुछ प्रमुख स्थल हैं :-
1 ताड़केश्वर महादेव, चौड़ा रास्ता
2 जागेश्वर महादेव, ब्रम्हपुरी
3 झारखण्ड महादेव, वैशाली नगर
4 चांदपोल बाजार, चांदपोल
5 नृसिंह मंदिर, पुरानी बस्ती
6 नाहरगढ़ रोड
7 गोपीनाथ मंदिर, पुरानी बस्ती
8 नींदड़ राव जी का रास्ता, चांदपोल
9 गोपालपुरा बाईपास, त्रिवेणी नगर
10 चांदी की टकसाल, सुभाष चौक
11 खजाने वालों का रास्ता, चांदपोल बाजार

इस प्रकार शहर के सभी मुख्य रास्तों में नृसिंह जी की सवारी निकलती है, और पूर्व निर्धारित स्थानों या मंदिरों में जाकर लीला का समापन होता है।

यह लीला बुराई पर अच्छी की जीत और भक्तों की रक्षा भगवान हमेशा करते हैं के सन्देश देने वाली पुराणों की कथाओं को जन जन तक पहुंचने का बहुत सुन्दर और मनोरंजक माध्यम हैं।
यह बड़ा ही मनोरंजक कार्यक्रम होता है चप्पे-चप्पे पर लोग जमा होते हैं और भजन गाते हैं, मिठाइयां और प्रसाद बांटे जाते हैं। यह पूरा कार्यकर्म लगभग 30 मिनट से 45 मिनट तक चलता है और उसके बाद जिसकी इच्छा हो वह मंदिर में भजन कार्यक्रम में हिस्सा ले सकता है ।

नृसिंह चतुर्दशी का यह कार्यक्रम आज भी सतत रूप से जारी है और जनता का कार्यक्रम में उत्साह से भाग लेना देखते ही बनता है यद्यपि समय के साथ बाहरी इलाकों में होने वाली कार्यक्रमों में भीड़ कम होती जा रही है और कार्यक्रम का समय भी कम हो गया है परन्तु आज भी यह पुरानी लिगेसी बनी हुई है और लोग इसमें पर्याप्त संख्या में भाग ले रहे हैं।

शहर की चारदीवारी में तो आज भी लोगों में वही उत्साह बना हुआ है और हर साल उतने ही लोगों का आना जाना लगा रहता है, शहर की यह 300 साल पुरानी लिगेसी उसी तरह आज भी कायम है और कुछ समय तो अच्छे आयोजकों के मिलने की वजह से कार्यक्रम की शोभा बढ़ी ही है। मुख्य स्थानों पर होने वाले कार्यक्रम आज भी दर्शनीय है।

तो कोरोना की समस्या ख़त्म होते ही आइये और देखिये नृसिंह चतुर्दशी पर होने वाली नृसिंह लीला और आनंद लीजिये सभी के साथ उनकी सिंह जैसी मदमस्त चाल और उछाल का और अंतिम कार्यक्रम में देखिये की कैसे वे प्रह्लाद को गद्दी प्रदान करते हैं।