एक सुनियोजित शहर में क्रीड़ांगन न हो यह संभव ही नहीं है शहर में लोगो के सिर्फ व्यापर करने और अपनी कला का प्रदर्शन करने, पढ़ने लिखने, और विभिन्न आयोजन करने का ही स्थान नहीं थे, यहाँ खेलने और शारीरिक व्यायाम करने से अनेकाने संस्थान और बाग़ हुआ करते थे। जिसमे सबसे बड़ा और जयपुर के लड़कों के खेलने के लिए जिला स्टेडियम चौगान हुआ करता था। ‘चौगान’ शब्द का मतलब जयपुरी भाषा में खेलने के लिए एक खुला मैदान है। साहित्यिक विश्लेषण से देखा जाये तो चौगान का फ़ारसी अर्थ है एक सिरे से मुड़ी हुई लकड़ी, कुछ वैसे जैसे आज कल हॉकी हुआ करती है। इस लकड़ी के साथ गेंद को मार कर जो खेल खेला जाता था उसे चौगान कहते थे। अकबर और दूसरे मुग़ल बादशाह के समय में बेगमें घोड़ों पर बैठ कर चौगान खेला करती थी। पोलो का खेल जिसके कारण महाराजा मान सिंह जी ने जयपुर को अंतर्राष्ट्रीय उपलब्धि दिलवाई इसी का एक आधुनिक और संवर्धित स्वरुप है।
चौगान नगर से घिरा हुआ महल के पश्चिम में (ताकि लम्बे समय तक सूर्य रहे) बना प्राचीरों से घिरा एक बहुत विशाल मैदान है जिसमे एक खुला मैदान और अनेक बाड़े हैं। सबसे बड़ा मैदान होने के कारण तीज और गणगौर के मेलों का सबसे जयादा भराव यहीं हुआ करता था। चौगान के दक्षिण में तीन अष्टकोणीय बुर्जें हैं जिनपर आठ कोनो के मंडप बने हुए हैं जिनमे मेलों और त्योहारों के समय पे राजा और अन्य आला लोग बैठा करते थे और सामने मैदान में घुड़सवारों, नागा पल्टन, शुतुर सवारों और फौजियों के करतब हुआ करते थे। ये थीं बुर्जें हैं चीनी की बुर्ज, मोती बुर्ज और श्याम बुर्ज।
चौगान चूँकि एक सार्वजानिक स्थान हुआ करता था अतः उसकी दैनिक गतिविधियों की जानकारी नहीं मिलती है परन्तु जब भी वहां कोई भी मेला या त्योंहार का आयोजन किया गया है का पूरा विवरण मिलता है। जयपुर के संस्थापक सवाई जय सिंह को चौगान खेलने का काफी शौक था इस बारे में काफी चित्र मिलते हैं परन्तु कुछ खास लिखित दस्तावेज नहीं है एक दस्तावेज कहता है की जय सिंह ने उदयपुर में अपने ससुराल में चौगान खेल में भाग लिया था। परन्तु बाद के राजाओं जैसे सवाई ईश्वरी सिंह और सवाई माधो सिंह प्रथम को अनेकों चित्रों और दस्तावेजों में चौगान खेलते और उसका विवरण लेते दिखाया है। ईश्वरी सिंह को जानवरों की लड़ाइयां करवाने में बड़ा मजा आता था। गैटोरे की छतरियों में, सुखनिवास के दीवारों पर, संग्रहालयों के चित्रों में सभी जगह ईश्वरी सिंह को साटेमरी करते और जानवरों की लड़ाई देखते हुए दिखाया गया है। इसकी पश्चात् उनके सौतेले भाई माधो सिंह जी प्रथम को भी इसी प्रकार की अनेकों गतिविधियों में दिखाया गया है। एक चित्र में जो जगरूप नाम के कलाकार का बनाया हुआ है में ईश्वरी सिंह को मोती बुर्ज पर बैठा दिखता है जिसमे उसके सामने चतर की आड़ के दोनों ओर से हाथी अपने सवारों सहित आकर एक दूसरे से भीड़ रहे हैं एक अन्य चित्र जो ऊदा का बनाया हुआ है में इस तरह दो घोड़ों को लड़ते हुए दिखाया गया है जिसमे दर्शकों की भीड़ में कुछ क्रिस्चियन पादरी भी नज़र आ रहे हैं। एक चित्र जो सबसे अनुभवी चितेरे साहबराम का बनाया हुआ है में चौगान में शेर और हाथी की लड़ाई दिखाई गई है, आसमान में तरह तरह की पतंगें भी उड़ रही है। यूरोपियन लोगों का आना नगर निर्माण के बाद से काफी जो गया था और उनके मनोरंजन के लिए चौगान में और चौगान के खेलों से बेहतर और क्या हो सकता था।
चौगान हमेशा से ही जयपुर के लोगों के लिए सबसे बड़ा और प्रसिद्ध खेल मैदान रहा है आज़ादी के बाद जब इसे जिला स्टेडियम बनाया गया तब कुछ मामलों में इसे अपनी वास्तविक पहचान मिली थी परन्तु समय के बीतने और स्थान की कमी के साथ जगह छोटी पड़ने लगी और रामबाग के पास एक नया मैदान बनाया गया परन्तु उस से चौगान की रौनक को तब तक नज़र नहीं लगी जब तक नई नगर निगम ने यहाँ भूमिगत पार्किंग बनाने का निर्णय नहीं ले लिया। कुछ वर्षों पहले शहर में भूमिगत पार्किंग को लेकर चर्चाएं होने लगी और चौगान को भूमिगत पार्किंग में बदलने का फैसला लिया गया जो वैसे अब पूरा हो चुका है परन्तु सभी सरकारी कामों की तरह चौगान की पार्किंग आज धूल फांक रही है, रख रखाव और कोई जिम्मेदार व्यक्ति नियुक्त न होने के कारण न ही तो पार्किंग ढंग से काम आ पा रही है न ही खेल का मैदान, एक समय में रणजी मैच की मेजबानी करने वाला यह खेल के मैदान का एक बड़ा भूभाग पार्किंग बन चुका है लोगो के खेलने की जगह वैसे ही बहुत कम है जो और भी कम होती जा रही है।
इन सब बातों के बावजूद शहर के सभी मेलों और त्योहारों का आयोजन स्थान बनाने वाला चौगान आज भी तीज और गणगौर मेलों के लिए शहरी लोगों का जमावड़ बिंदु है और हमेशा बना रहेगा जहाँ से गणगौर की सवारी बाड़े ही शान, लवाजमे और धूमधाम के साथ नाचती जाती निकलती है।