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Naraian Singh Circle (Name and Behind)

Let’s start today from Narayan Singh Circle, one of the most famous places in Jaipur, ( there is also a road named “Thakur Narayan Singh ” which is located in Raja Park). So why was this name given to this place ?

Narayan Niwas Hotel is on Narayan Singh circle which used to be Narayan Niwas Haveli earlier. This circle became famous by the name of Narayan Niwas and this Narayan Niwas used to be the residence in the princely state Jaipur of the Thakurs of Kanota. It’s worth mentioning that almost all the princely states have residences in the national capital Delhi like Rajasthan House (GOR), Hyderabad House (GOI), Kota House, Bikaner House (RTDC), Dholpur House (UPSC).

All these houses were built by the kings of those states and when they used to come to the British Parliament for some work or they came to Delhi for any work, they used to stay in these houses. After independence, the kings voluntarily gave all these houses to the state and central government to operate and today governments are using them as their offices and rest houses for VIPs.

Similarly, there used to be a residence of the Jagirdars of Jagir that came under their ownership. Like this, Jaipur, which used to be a very important state, has 18 Jagir houses, some of the famous residences are Sikar Haveli (Sikar House), Chomu Haveli (Chomu House), Alsisar Haveli, Mandawa, Samode Haveli, Uniara Haveli, Naila Haveli (Naila House) and Narayan Niwas Haveli etc.

Have you noticed that all the Havelis are named after their places or estates but this Narayan Niwas is named after a person Thakur Narayan Singh Kanota. There must be some reason that a haveli is named after a person, in oral history the name of a dynasty or place is named after a person only when that person`s life has been illustrious.

There are hundreds of examples of this in front of us, so it would not be right to mention all of them.

Thakur Narayan Singh ji was born in Kanota estate in January 1851 and he was the Thakur of Kanota estate and chief of police of Jaipur state from 1908 to 1924. Jaipur has seen two kings when Thakur Narayan was the chief; those were Mirza Raja Sawai Madho Singh 2nd and Mirza Raja Sawai Man Singh.

He had a very close friendship with Raja Madho Singh ji and both of them managed the administration of the state very well.

Security of Jaipur was a very important task and Narayan Singh was a very efficient guard. His fear was so much that dacoits and thieves did not even come close to the capital. He was aware of every nook and cranny of the city and also used to go with Khawas Ji to help him in collecting revenue many times.

Archive 1: 17 September 1914; it is said that once Narayan Singh ji went to Amer to observe the guards on his tower and from there he saw someone coming out after taking bath in Shivkunda pool. He got suspicious that who is this person that is coming out from there at such a late hour and he also has a horse. Since dacoits did not wander around the state, he had a strategic advantage and directly caught hold of that person’s neck and asked who are you?

That person was also very tall and bored like him but he directly surrendered and said, Annadaata, let me go, I know who you are, who else can grab my neck except you.

Archive 2: On 22nd December 1914, Narayan Singh and madho singh went out to hunt in Aaudi after dinner. They got very late while returning from there and were looted by dacoits on the way. When they returned to the palace, the Maharaja said, “You screwed Narayan Singh today, how do you do your work? If I became a victim of robbery in my own state then what will happen to our people?

Then Narayan Singh said to Maharaj, your life was more important at that time, you should take rest, I’ll come in the morning.

In the morning, he was in Sarvatobhadra with the looted goods and some other things. The Maharaja asked, “What is this Narayan?” He said who can go to your empire by ducking me? I completely solved that problem once and for all.

When the British police were searching for Chandrashekhar Azad, he was hiding in Jaipur for some time, and during that time he used to visit Narayan Singh`s mansion quite frequently from June 1928 to July 1929 but by that time Narayan Singh had died in 1924.

At present, many such written incidents, descriptions of his daily routine and appointments are there in Rajpatra Narayan Niwas library and Kanota Thikana Library. Today the garden left by him at that time where the RBI office is located is now called Kanota Bagh.

Today this Narayan Niwas and castle Kanota are being managed by the Kanota Hotel Group and belong to his family. Maan Singh Kanota, who will become the Thakur (formally), he is also emerging as a good polo player (+2 handicap).

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Jaipur ke Pratham Poojya

जयपुर की स्थापना महाराजा सवाई जयसिंह जी के द्वारा की गई। महाराजा सवाई जयसिंह जी स्वयं ज्योतिष, विज्ञान, यंत्र और वेधशालाओं के प्रकांड विद्वान थे अतः उन्होंने इसी प्रकार के विद्वानों को शहर में संरक्षण प्रदान किया। इसी क्रम में सवाई जयसिंह जी जब रत्नाकर पुंडरीक जी से मिले तो उन्हे अपना गुरु बनाया और उन्हें आमेर ले आए। जब अपने गुरु से उन्होंने आमेर से दक्षिण में एक नगर बसने की बात करी तब पुंडरीक जी ने उन्हे नगर स्थापना के साथ अश्वमेध यज्ञ करने के बारे में कहा और यहीं से प्रारंभ होती है जयपुर के प्रथम पूज्य गणेश जी के मंदिरों की, उनके स्थापत्य और स्थापना की कहानियां।

जयपुर की बसावट के साथ एक ओर नए शहर के लिए भूमि की सफाई और नींव की खुदाई चल रही थी वहीं दूसरी ओर अश्वमेध यज्ञ प्रारंभ हो रहा था, जिसके लिए जलमहल के साथ सुदर्शनगढ़ की पहाड़ियों की तलहटी में लगते एक स्थान को चिन्हित कर उसकी सफाई करवा सहस्र ब्राह्मणों और पुरोहितों के बैठने के लिए स्थान बनाया गया। इसी के साथ उसी स्थान पर यज्ञदण्ड को लगाया गया इस यज्ञ के लिए पुरोहित और ब्राह्मण पूरे विश्व से आए, देवता इस यज्ञ के साक्षी हुए, यह कलियुग का अभी तक का एकमात्र अश्वमेध हुआ और आगे होने की संभावना भी नहीं है क्युकी इस यज्ञ के नियमो का पालन करना और इतने लंबे समय तक यज्ञ को चला पाना आज और भविष्य में संभव नहीं है। इसके लिए भगवान वरदराज की मूर्ति को दक्षिण से हीदा मीणा के द्वारा लाया गया, जिसकी भी एक अलग कहानी है। सभी देवताओं को स्थापित करने के साथ सर्वप्रथम प्रारंभ हुई मंदार के गणेश की स्थापना और जयसिंह के द्वारा बनवाई गई वैदिक गणेश की प्रतिमा की प्राण प्रतिष्ठा, यह यज्ञ दस वर्षों तक चला और इसी बीच में रत्नाकर जी पुंडरीक और सवाई जयसिंह जी का भी देहांत हो गया जिसके पश्चात यज्ञ को रत्नाकर जी के पुत्र और सवाई जयसिंह के उत्तराधिकारी सवाई ईश्वरी सिंह के द्वारा संचालित किया गया। जब तक यज्ञ चलता रहा गणेश जी यज्ञ में विराजमान रहे। ऐसा कहा जाता है की पृथ्वी पर होने वाले अश्वमेध को देखने स्वयं त्रिदेव, देव यक्ष गंधर्वों सहित पधारते है। यहां भी कुछ ऐसा ही रहा और इस गणेश प्रतिमा को यज्ञ के पश्चात दक्षिण की ओर एक पहाड़ी पर, दक्षिणायन सूर्य बिंदु को देखते हुए स्थापित किया गया। यह स्थापना नगर के ठीक उत्तर में, उत्तरायण सूर्य बिंदु पर है और नगर, प्रतिमा स्थापना केंद्र से दक्षिण में है। यह स्थापना एक पहाड़ी के ऊपर है जहां से नगर का विस्तार दिखता है ताकि गणेश जी के दर्शन हर कोई कर सके और गणेश जी की दृष्टि पूरे नगर पर रहे। गणेश जी को विराजने के स्थान पर एक गढ़ का निर्माण किया गया और आज यह गणेश गढ़ गणेश के नाम से विश्वप्रसिद्ध है। यह जयपुर शहर में प्रथम पूज्य की प्रथम स्थापना थी। इसके पूजन और संरक्षण का दायित्व उसी समय यज्ञादि क्रियाओं के लिए बुलाए गए पंडितों में से एक गुजराती औदिच्य पंडित के परिवार को दिया गया जिनके वंशज आज भी मंदिर की प्रतिदिन उसी प्रकार से सेवा कर रहे हैं। यह मंदिर ब्रम्हपुरी में स्थित है।

Gadh Ganesh Ji, Bramhpuri

गढ़ गणेश के गणेश की प्रतिमा की तस्वीर नहीं ली जाती है और न ही लेनी चाहिए।

नागरिक प्रतिदिन प्रातःकाल में सूर्य को अर्घ्य देने के साथ में गणेश जी की पूजा कर लिया करते थे और जिन्हे गढ़ में स्थापित मंदिर जाना होना था वह पहाड़ी पर चढ़ मंदिर जाया करते थे, समय के साथ यह अनुभव किया गया की अनेक बुजुर्ग व अन्य व्यक्ति गणेश के दर्शन करने की अभिलाषा रखते है परंतु वह अपनी शारीरिक असमर्थता के कारण ऐसा नहीं कर पा रहे है। इसके लिए गढ़ पर स्थापित प्रतिमा से प्रेरणा ले पौराणिक प्रतिलिपि बना पहाड़ी की तलहटी में नहर के किनारे रखी गई जिससे ऊपर गढ़ पर दर्शन करने न जा पाने वाले व्यक्ति नीचे ही उनके दर्शन कर सके। नहर के साथ स्थापित करने की वजह से वह गणेश, नहर के गणेश नाम से प्रसिद्ध है और हर बुधवार व मुख्य दिनों में दोनो ही जगह दर्शनार्थियों का तांता लगा रहता है। यह मंदिर ब्रम्हपुरी में स्थित है।

Nahar ke Ganesh Ji, Bramhpuri

नहर के गणेश जी का मंदिर गढ़ गणेश से कुछ 100 वर्ष बाद का है, गढ़ गणेश के गणेश वैदिक गणेश है जबकि तलहटी में नहर के गणेश एक पौराणिक गणेश है जिनकी सूंड है और वामवर्ती है। दक्षिणावर्ती सूंड वाले गणेश सिद्धिविनायक होते है जिनको तंत्र साधना में तांत्रिकों द्वारा पूजा जाता है। गढ़ गणेश की तलहटी के पास बावड़ी पर तंत्र साधना करने वाले ब्रम्हचारी बाबा के द्वारा किए गए यज्ञ की राख से राम चंद्र ऋग्वेदी ने प्रतिमा का निर्माण कर उसकी प्राण प्रतिष्ठा करी और आज उन्ही की कुछ पांचवी छठी पीढ़ी गणेश की सेवा कर रही है। गौर करना आवश्यक है की भारत के अनेक शहरों में द्वार गणेश की परंपरा है अर्थात घर के द्वार के बाहर गणेश को स्थापित किया जाता है और उनका रोज पूजन किया जाता है, यहां यह समझना आवश्यक है की घरों के बाहर स्थापित गणेश प्रतिमा की पूजा प्रायः दैनिक रूप से की जाती ही है, परंतु वर्तमान परिस्थिति में किसी भी कारणवश, घर में किसी अत्यावश्यक कार्य के चलते, विवाह – जन्म – मृत्यु के चलते कई बार पूजा रह भी जाती है अतः चाहते हुए भी वहां पूजन का नियम परिस्थितिवश छूट भी सकता है अतः वहां स्थापित गणेश की प्रकृति भिन्न होनी चाहिए अतः गणेश का वह रूप सौम्य होना चाहिए, इसलिए प्रतिमा वामवर्ती सूंड की होनी चाहिए क्योंकि वह संकटनाशन गणेश का प्रतीक है और घरों को सभी प्रकार के संकटों से बचाते है। घर में तांत्रिक साधना वाली मूर्ति को नहीं लगाना चाहिए, ब्रम्हचारी बाबा जिनका प्रकरण बताया गया है प्रतिदिन गणेश की प्रत्यक्ष आराधना करते थे, और जितने भी सिद्धिविनायक गणेश मंदिर है प्राचीन समय में तांत्रिक क्रियाओं के लिए, तंत्र द्वारा स्थापित और पोषित है। अतः नहर के गणेश एक संकटनाशक गणेश है।

अनेक व्यक्तियों द्वारा आज के समय में तर्क दिया जाता है की द्वार गणेश की धारणा गलत है क्योंकि यहां आप गणेश की प्रतिमा घर से बाहर देखते हुए लगाते है और गणेश का मुख आपके घर की ओर न होकर बाहर की ओर है जिससे आपके परिवार पर गणेश की कृपा नहीं होगी क्योंकि आपके उन्हे घर से बाहर देखते हुए उनकी पीठ को घर की ओर रखा है जबकि वास्तविकता में उस गणेश प्रतिमा की स्थापना बाहर से आने वाले संकटों से बचने के लिए की जाती है ताकि गणेश द्वारा उन संकटों से परिवार की रक्षा की जा सके, परिवार पर कृपा करने के लिए गणेश को घर के मंदिरों में स्थापित किया जाता है, द्वार के बाहर या अंदर की तरफ नहीं।

शहर की स्थापना के समय से ही बसाए गए सभी लोगो द्वारा गणेश के प्रथम दर्शन कर और जयपुर के आराध्य देव के दर्शन कर ही अपने अपने कार्यस्थलों की ओर जाना और कार्य प्रारंभ करना हुआ करता था। ब्राह्मणों, वैश्यों, कलाकारों के लिए कालांतर में मानक चौक (बड़ी चौपड़) पर भी गणेश की स्थापना की गई थी जिनका नाम ध्वजाधीष गणेश है जयपुर के जौहरी अपने संस्थानों में व कटले में आने से पहले प्रतिदिन गणेश जी के दर्शन आवश्यक रूप से करते है। इन गणेश की सेवा भी उसी परिवार द्वारा की जा रही है।

कालांतर में शहर का विस्तार जब दक्षिण की ओर हुआ तो राजपरिवार ने एक शहर के बीच अंगूठी में मोती की तरह स्थित एक पहाड़ी पर अपना महल बनाया जिसे आज सब मोती डूंगरी के नाम से जानते है। यहाँ मोती डूंगरी के बायीं ओर गणेश जी का एक और मंदिर है। जिसकी प्रतिमा सवाई माधो सिंह जी प्रथम की पटरानी के द्वारा 1761 में अपने पीहर से लाई गई थी और वहां यह गुजरात से आई थी। इस मूर्ति की प्राचीनता के बारे में कहा जाता है की जब यह पटरानी के पीहर में आई थी तब यह लगभग 500 वर्ष पुरानी थी। यह एक सिद्धिविनायक की मूर्ति है अर्थात इसकी सूंड दक्षिण की ओर है इन गणेश की स्थापना पूर्व की ओर पीठ करके की गई है। यह मंदिर स्थानीय विशेषता के नाम से ही जाना जाता है मोती डूंगरी गणेश । नगर के सेठ पालीवाल इस मूर्ति को वहां से अपने साथ में लेकर आए थे, उन्ही की देख रेख में मंदिर का निर्माण किया गया है और उन्ही के साथ मंदिर निर्माण की तकनीक को देखने वाले पंडित शिव नारायण शर्मा जी के वंशज आज भी इसकी पूजा कर रहे है। आज के समय में यह प्रतिमा लगभग 761 वर्ष प्राचीन हो गई है।

Moti Dungari Ganesh Ji, Moti Dungari

इसी के साथ शहर में उत्तर पूर्व ईशान कोण में रामगंज क्षेत्र के सूरजपोल में स्थित है श्वेत सिद्धिविनायक मंदिर, यहां गणेश की प्रतिमा श्वेत संगमरमर से बनी है इसलिए इन्हे श्वेत सिद्धिविनायक कहा जाता है। इस मंदिर की दो विशेष बातें है

  1. यहां गणेश के साथ राधा व कृष्ण भी विराजमान है
    और
  2. यहां यमराज के सहायक चित्रगुप्त भी विराजित है

मंदिर के स्थापत्य, शैली और राधा कृष्ण के प्रभाव की वजह से यह सवाई राम सिंह जी के काल का मंदिर प्रतीत होता है। इसके ईशान में स्थापित होने के पीछे यह कारण बताया जाता है की इसे चित्रगुप्त के लिए लोगो के कर्मों का लेखा जोखा रखने के लिए बनाया गया था। यहां ब्राह्मण रूप के गणेश के आभूषण सर्पाकार है और गणेश के जनेऊ का आकार भी वही है। यहां पर दीपावली से एक दिन पहले यम चतुर्दशी पर यज्ञ का आयोजन किया जाता है।

Shwet Siddhi Vinayak Ji, Suraj Pol

इन सभी मंदिरों में बुधवार, चतुर्थी, पुष्य नक्षत्र, रविपुष्य, गणेश चतुर्थी के दिन लोगो की भीड़ लगी ही रहती है। शहर की एक परंपरा यह भी है की गणेश चतुर्थी के अगले दिन शुभ मुहूर्त में मोती डूंगरी गणेश से नहर के गणेश तक गणेश जी की सवारी निकाली जाती है और दोनो ही मुख्य स्थानों पर मेला भरता है जिसमे भिन्न भिन्न आकर्षण रहते है।

जयपुर की स्थापना के समय से ही जयपुर के प्रथम पूज्य के लिए नागरिकों में वही विशेषता, प्रभाव और श्रद्धा है जो स्थापना के समय हुआ करती थी, शहर की भाग दौड़ और भीड़ के बीच में आज भी यह मंदिर अपना विशेष स्थान रखते है। नागरिक अपने घर के मंगलकार्यों में प्रथम निमंत्रण प्रथम पूज्य को ही देते है, अपने नए वाहनों को ले सर्वप्रथम इन्ही के आशीर्वाद लेने जाते है, अपने दैनिक कार्यों को प्रारंभ करने से पहले इन्ही के दर्शन करते है। प्रभाव इतना है की बाहर से आने वाले लोग भी अपने काम को करने से पहले इनका आशीर्वाद लेना व दर्शन करना नही भूलते, चाहे वह कोई राजनीतिक दल के नेता हो, बॉलीवुड के महानायक अमिताभ बच्चन या सबसे बड़े उद्योगपति मुकेश अंबानी, प्रथम पूज्य के लिए सभी समान है और सभी पर वे समान रूप से कृपा बनाए रखते है।
जयपुर आने वाले यात्री भी अपनी यात्रा इन्ही मंदिरों के प्रातः काल दर्शन कर प्रारंभ करते है।

Kale Ganesh Ji, Chaura Rasta

आज यहाँ बात जयपुर के प्रथम पूज्य के बारे में कर रहा हूँ। आगे सभी मंदिरों के बसावट की कहानी और स्थापत्य का वर्णन विस्तार से करूँगा। जयपुर शहर में गणेश के प्राचीन मंदिरों की संख्या बहुत है जैसे चौड़े रस्ते के काळा गणेश, कुंड के गणेश, गंगापोल गणेश मंदिर, खोले के हनुमान मंदिर के गणेश, घाट के प्राचीन गणेश। हर मंदिर के साथ में गणेश मंदिर और उन मंदिरों के द्वार गणेश की पूजा होती है।

वैदिक गणेश और पौराणिक गणेश में अंतर होता है। वैदिक गणेश के सूंड नहीं है अनेक पंडित उसे गणेश के बाल रूप से संलग्न करते है परंतु वह भी पूर्ण रूप से उचित नहीं है अनेक स्थानों पर और क्रियाओं में गणेश के बाल रूप का ध्यान और दर्शन किया जाता है परन्तु वह वैदिक गणेश का पूर्ण रूप नहीं है। वैदिक गणेश एक प्रत्यक्ष तत्व है, ब्रम्ह है, आत्मन है, चिन्मय है, सांख्ययियों के लिए वे सत-चित-आनंद सच्चिदानंद है, वे तीनो गुणों से बाहर है, नित्य है और योगियों के मूलाधार में स्थित है जिनका योगी हर समय ध्यान और जाप करते रहते है। वैदिक गणेश मूलाधार में स्थित है और पुरुष रुपी है।

पौराणिक गणेश वे गणेश है जिनकी प्रतिमाएं सभी मंदिरों में देखी जाती है। जिनके एक सूंड है, जो क्रिया के अनुसार वाम और दक्षिणा वर्ती हो सकती है। सामुद्रिक शास्त्र की सहायता से उनके रूप को वैदिक रूप में समझा जा सकता है। यह गणेश, गजानन है। लम्बी नासिका का होना बुद्धि का सूचक है इसी भाव का अनुसरण करके गणपति को लम्बी नासिका देकर विश्व में बुद्धिमान बना दिया गया है, अतः वह बुद्धि से अधीश्वर है। इनके जितने रूपों को कल्पना की जाये उन सभी में अखंडित सत्ता की उपासना होती है और उसी अनुसार भिन्न भिन्न रूपों का निर्माण किया जाता है, इसी क्रम में गणेश पुराण के अनुसार गणेश के भिन्न 32 रूप है, जैसे ॐकार गणेश, नटेश, विनायक, श्वेतार्क, बाल, तरुण, लक्ष्मी, रिद्धि इत्यादी।

गणेश के विश्व में अनेक रूप हैं जिनमे से भारत के सुचिन्द्रम में स्त्री रूप भी है जिसे गणेशी कहा जाता है।

तो जब भी कभी जयपुर आना हो तो प्रथम पूज्य के दर्शन हेतु जरूर जाइएगा और देखिएगा की कैसे जयपुर की स्थापना के समय से आज तक मंदिरों को समय समय पर बनाया गया, थोड़ी देर ध्यान लगा समझने का प्रयास कीजिएगा की लोगो की आस्था के प्रतीक ये महान मंदिर आज भी कैसे उसी संस्कृति, परंपरा और विश्वास को कायम रखने में समर्थ है और पूरे विश्व के हृदय में बसते है।

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Jaipur aur uska Krishna Prem (The Krishna Walk Way)

जयपुर शहर अपने कृष्ण प्रेम के लिए पूरी दुनिया में प्रसिद्ध है। यहाँ के कृष्ण मंदिरों की शोभा देखते ही बनती है और कुछ मंदिरों में तो लगभग रोज ही लाखों भक्तों का आना होता रहता है। यहाँ महिलाएं और पुरुष दोनों ही कृष्ण की भक्ति में तल्लीन दिखाई पड़ते है और मंदिरों के अंदर का वातावरण कहीं से भी मथुरा-वृन्दावन के मंदिरों से कम नहीं है। जयपुर के प्राचीन कृष्ण मंदिरों की संख्या का आंकड़ा सैंकड़े से कम नहीं है और यहाँ शहर में लगभग सभी घरों में कृष्ण के मंदिर है। भगवान श्रीकृष्ण के विभिन्न स्वरूपों के मंदिरों के कारण गुलाबी नगरी जयपुर को ब्रजभूमि वृंदावन के रूप में भी जाना जाता है।

श्रीकृष्ण जयपुर के आराध्य देव भी हैं। यहाँ सभी लोग अपने किसी भी काम को व दैनिक दिनचर्या को प्रारम्भ करने से पहले कृष्ण के दर्शन करने जरूर जाते है अथवा अपने घरों के मंदिरों में सुबह और सायं कृष्ण की विधिवत आरती कर पूजा करते हैं और भोग लगते हैं। जन्माष्टमी के दिन शहर के सभी मंदिरों और विग्रहों का श्रृंगार देखने लायक होता है। नाना प्रकार के कार्यक्रमों के साथ लोगों द्वारा विभिन्न भेट चढ़ाई जाती है और पूरे दिन भोग और प्रसादी का कार्यक्रम चलता रहता है, कहा जाता है आज के दिन किसी भी मंदिर से कोई भी निराश नहीं जाता है।

जयपुर में कृष्ण मंदिरों की अधिकतम स्थापना मुग़ल काल की है, जब भारत के क्षेत्रफल में आने वाले अधिकतर प्रतिशत पर मुग़ल वंश का अधिकार था तब उनके अनेक बादशाहों ने धार्मिक प्रतिद्वंदिता के चलते प्रागऐतिहसिक से लेकर प्राचीन मंदिरों को तुड़वाना प्रारम्भ कर दिया था जिसके मुख्यतः दो उद्देश्य बताये जाते हैं पहला धार्मिक प्रतिद्वंदिता और दूसरा पराजित राज्य के मनोबल को तोडना। जयपुर राजपरिवार हमेशा से ही मुगलों के साथ किये राजनीतिक समझौतों को लेकर निन्दित होता आया है और इनकी आज तक इस बात को लेकर आलोचना की जाती रही है परन्तु इसका एक दूसरा पक्ष भी है राजनीतिक समझौतों के कारण बादशाह अकबर के समय जयपुर (उस समय आमेर) के तत्कालीन महाराजा मानसिंह प्रथम को बादशाह ने अपना सेनापति बना रखा था और उनके अधिकतर युद्धों को मुग़ल राज के लिए उन्होंने ही जीता है चूँकि उनमे अधिकतर राज्य प्राचीन हिन्दू राज्य हुआ करते थे जिनमे श्रीकृष्ण के मंदिरों की संख्या भी बहुत थी। इन सभी मंदिरों को टूटने से बचने के लिए महाराजा मानसिंह ने उन्हें सुरक्षित भिन्न भिन्न राज्यों में स्थापित करवाया और इस तरह कच्चवाहों और उनके वंशजों ने मुगलों और उनके बाद आने वाले ब्रिटिशर्स से मंदिरों और मंदिरों के खजाने के रक्षा करी। अगर राजनीतिक समझौते के चलते महाराजा मानसिंह को पद नहीं मिला होता और वे इन मंदिरों और विग्रहों को नहीं बचा पाते तो भारतियों की विरासत को एक और बहुत बड़ा झटका लगता। महाराजा मानसिंह के बाद से आमेर और उसके बाद बसे शहर जयपुर के सभी आने वाले महाराजाओं ने सभी के साथ उचित राजनयिक संबंधों को जाग्रत रखा और इतनी बड़ी संस्कृति और विरासत की रक्षा करी।

Mirja Raja Maan Singh First (1559-1614)

तो चलिए आज चलते हैं जयपुर के ही कुछ प्रसिद्ध कृष्ण मंदिरों में, जानते हैं उनके विग्रहों के बारे में और एक पैदल मार्ग बनाते हैं जिस पर चलते हुए आम दिनों में और विशेषकर जन्माष्टमी के दिन अधिकतर कृष्ण मंदिरों की यात्रा कर सकते हैं।

गौड़ीय वैष्णव जिन तीन विग्रहों के एक दिवस में दर्शन करके यह मानते हैं की भगवान श्रीकृष्ण के साक्षात् दर्शन हो गए वे हैं गोपीनाथ, गोविंददेव और मदनमोहन। यह तीनो विग्रह जयपुर राज्य में ही विराजमान थे किन्तु मदनमोहन थोड़े समय ही यहाँ ठहरे और अब करौली के राजप्रांगण में स्थित है। यह माना जाता है की इन तीनो विग्रहों को श्री कृष्ण के पौत्र प्रद्युम्न के पौत्र वज्रनाभ ने बनाया था। ऐसा माना जाता है की उस समय मथुरा में वह काले पत्थर की शिला मौजूद थी जिस पर पटक कर कंस ने श्री कृष्ण के सात अग्रजों और उनके बदले आयी कन्या रुपी योगमाया को मृत्यु का वरण करवाया था और वज्रनाभ ने उसी शिला से मूर्ति का निर्माण आरम्भ किया था। उनकी श्रीकृष्ण के दर्शन करने की इच्छा थी और उस समय प्रद्युम्न की पत्नी और वज्रनाभ की दादी जीवित थी उन्होंने अपनी दादी से कृष्ण का विवरण सुन एक कुशल मूर्तिकार से मूर्ति बनवाना प्रारम्भ किया। जिसे देख दादी ने कहा की मूर्ति के चरण तो भगवान से मिलते हैं परन्तु अन्य अवयव नहीं इस पर दूसरी मूर्ति बनवायी गई तो उस के कटिभाग में समानता आई अन्य में नहीं उस के बाद तीसरी प्रतिमा बनवायी गई और जब वज्रनाभ ने उसे दादी को दिखाया तो उन्होंने कहा मुखमण्डल, ग्रीवा, कटी और चरण की मरोड़ से युक्त ओमकाराकृति त्रिभंगस्वरुप यह विग्रह साक्षात् श्रीकृष्ण की छवि प्रस्तुत करने वाला है।

जिस मूर्ति के चरण भगवान के सृदृश्य है वह मदनमोहन की मूर्ति है यह मूर्ति पहले गणगौरी बाजार में पुरानी डिस्पेंसरी के सामने वाले मंदिर में थी परन्तु अब करौली में है। कटिभाग का सृदृश्य गोपीनाथ की मूर्ति है जो जयपुर में पुरानी बस्ती में स्थित है और जो तीसरी मूर्ति सबसे अधिक गुणों से मिलती है जयपुर राजमहल के जयनिवास उद्यान में गोविन्द देव के नाम से विराजित है।

The Krishna Walk

इस यात्रा को प्रारम्भ करना चाहिए जयलाल मुंशी के रास्ते और राजा शिवदास जी के रास्ते से बने चौराहे पर स्थित श्री गोपीनाथ जी मंदिर से।

यहाँ पहुँचने के लिए छोटी चौपड़ से गणगौरी बाजार की तरफ आइये और पहले चौराहे से बाएं मुड़िये फिर लगभग आधा किलोमीटर चलने के बाद बायीं तरफ आएगा और अगर आप चांदपोल की ओर से आ रहे हैं तो पहले चौराहे से बाएं मुड़ें और उसके बाद पहले चौराहे से दाएं मुड़ने पर दाएं तरफ में

Gopinath Ji Temple

श्री श्री 1008 भगवान श्री गोपीनाथ जी का मंदिर यह चैतन्य महाप्रभु की गौड़ीय परंपरा का मंदिर है और इस मूर्ति को वृन्दावन से जयपुर लाया गया था। इस विग्रह को महाभारत कालीन माना जाता है और वृन्दावन में यह विग्रह मधु पंडित ने स्थापित किया था। विक्रम सम्वत 1559 में चैतन्य महाप्रभु की आज्ञा से बंगाल से वृन्दावन आये थे इसका स्पस्ट उल्लेख नरहरि चक्रवाती रचित “भक्ति रत्नाकर: में है। यह वह समय था जब पूरे भारत में भक्ति परंपरा की हवा चल रही थी। मधु पंडित को श्री कृष्ण ने सपने में आकर आदेश दिया था की वंशीवट में कहीं यमुना किनारे विग्रह रेती में लुप्त है, उसे निकला जाये और सेवा पूजा कर मांडना बंधा जाये। इस प्रकार इनकी खोज चालू हुई और माघ शुक्ल पूर्णिमा 1560 को मधु पंडित ने अपनी कुटिया में विग्रह को विराजमान किया और गौड़ीय वैष्णवों की पद्धति से सेवा पूजा व्यवस्थित करी। इस प्रकार वो लगभग 41 वर्ष तक कुटिया में ही सेवा पूजा करते रहे जिसके बाद वृन्दावन में इनके मंदिर का निर्माण हुआ जो बहुत भव्य नहीं था। इस मंदिर का निर्माण रायसल शेखावत ने करवाया था जो अकबरी दरबार के विख्यात राजा रायसल दरबारी थे। गोपीनाथ का प्राकट्य राधिका के साथ हुआ था यह विग्रह अकेला नहीं था किन्तु गोपीनाथ के दोनों और राधिकाएँ हैं। गोपीनाथ के वाम भाग में जान्हवी जी है और दायी और राधारानी। जब गोपीनाथ जी वृन्दावन के मंदिर में थे तो नित्यानंद प्रभु की पत्नी जान्हवादेवी भी तीर्थ यात्रा पर गई थी अन्य श्रीविग्रहों को देखने के बाद जान्हवा देवी गोपीनाथ जी के मंदिर में भी गई और दर्शन करते करते अपने सत के कारन विग्रह में ऐसे समां गई जैसे मीरा बाई द्वारिका में रणछोड़दस जी की मूर्ती में समां गई। गोपीनाथ को इष्ट मानाने वाले शेखावत लोगों ने एक और राधा और दूसरी और रुक्मणि की कल्पना की और गोपीनाथ जी की झांकी को अपने अनुरूप माना परन्तु ये दोनों ही बातें ठीक नहीं लगती है। इस सम्बन्ध में ए के रॉय ने जो कहा है वो अधिक युक्ति संगत लगता है। इसकी कथा है की जब जान्हवा देवी गोपीनाथ के मंदिर में दर्शन के लिए गई तो उन्हें सहज ही लगा की जो राधा की मूर्ति है वो छोटी है और गोपीनाथ जी की तुलना में अनुपातिक नहीं है। इस भावना के अनुसार उन्होंने वापिस अपने राज्य जाकर गोपीनाथ के लिए राधा का विग्रह बनवाया और उसको वृन्दावन भिजवा कर उनके बाएं ओर स्थापित करवाया।

Chaitanya Mahaprabhu founder of Gaudiya Vaishnavism

गोपीनाथ जी की प्रतिष्ठा करवाए जाने के समय से ही यह विग्रह शेखावतों का आराध्य बन गया और जब 1724 में शिवसिंह जी ने सीकर को नए ढंग से बसना चालू किया तो सबसे पहले नगर के केंद्र में गोपीनाथ जी का मंदिर बनवाना ही प्रारम्भ किया था।

जब औरंगजेब के फरमान से 1669 में मथुरा वृन्दावन के मंदिरों को गंभीर खतरा हो गया था तो वल्लभ संप्रदाय और गौड़ीय सम्प्रदाय के विग्रहों को सुरक्षित स्थानों पर ले जाने का प्रयोजन किया गया। इस प्रकार यह विग्रह वृन्दावन से राधाकुंड लाया गया और वहां से कामांवन में। कामां आमेर के राजा सवाई जयसिंह के पुत्र कीरतसिंह को जागीर में मिला था और तब से उन्ही के उत्तराधिकार में था। कामांवन का धार्मिक महत बहुत है पौराणिक प्रमाण के अनुसार यहीं कृष्ण कालीन वृन्दावन है जहाँ वृंदादेवी विराजती है। कहते हैं यहाँ देवता, ऋषि, मुनि, तपस्वी और जन सामान्य की मनोकामना पूरी होती है। वृन्दावन से कामां आने के बाद विग्रह कम से कम 100 साल वहां रहा और धीरे धीरे औरंगजेब का खतरा काम हुआ पर बाद में कामां में आपसी पारिवारिक द्वन्द चालू हुआ और समस्या वहां भी कड़ी होने लगी तब सम्वत 1832 में इस विग्रह का जयपुर आना संभव हुआ, शहर में प्रवेश करने के पूर्व गोपीनाथ उत्तर पश्चिम में स्थित झोटवाड़ा गांव में आकर विराजे थे जिससे अनुमान होता है की शेखावत सरदार कामां से अलवर और शेखावाटी-तोरावाटी होकर इसको लाये होंगे।

इसका एक परचा इस प्रकार मिलता है की मिति सावन बड़ी 13 शनिवार में श्रीजी शहर छोड्यो, फेर पालकी सवा होय कपट कोट का दरवाजा कै बारै मजधार का रास्ता कनै उभा रह्या और ठाकुर श्री गोपीनाथ जी कामां का झोटवाड़ै आय विरज्या छा सो झोटवाड़ा सूं भटजी श्री सदाशिव जी की हवेली कै कनै आया तब श्रीजी पालकी सूं उतर डोरी एक सामां पधार्या, दरसन किया, भेट चढाई पछै ठाकुर जी तो माधोविलास मै दाखिल हुया श्रीजी पालकी सवार होय सिरह ड्योढ़ी में दाखिल हुया। इससे स्पष्ट है की गोपीनाथ जी की अगुवानी स्वयं महाराज ने की थी। यह महाराजा पृथ्वी सिंह जी थे जो 1768 में केवल पांच वर्ष की आयु में अपने पिता माधोसिंह प्रथम की मृत्यु के बाद गद्दी पर बैठे थे। गोपीनाथ जी के आगमन के समय वे 12 वर्ष के थे। सदाशिव भट्ट माधोसिंह जी के गुरु थे और उनके साथ उदयपुर से ही जयपुर आये थे। बड़ी चौपड़ पर भट्ट राजा की हवेली के पास बालक पृथ्वीसिंह ने गोपीनाथ जी को भेंट चढ़ाई थी।

जयपुर आने के बाद 17 वर्ष तक विग्रह माधोविलास में ही रहा, इसको कामां से जयपुर लाने में तत्कालीन दीवान राजा खुशाली राम बोहरा का भी हाथ रहा था क्यूंकि 1792 में बोहरा ने ही पुराणी बस्ती स्थित अपनी हवेली में गोपीनाथ जी को विराजमान करा पुण्य कमाया था। मृत्यु के दो दशक पूर्व उसने अपनी हवेली को वर्तमान मंदिर में परिणत किया था जब से वो आज इसी तरह खड़ी है।

गोपीनाथ जी के दर्शन करने के पश्चात चौड़े रास्ते की ओर बढिये और वहाँ से पैदल यात्रा का आरम्भ कीजिये।

The Krishna Walk Way

जिसमे सबसे पहले परतानियों के रास्ते से थोड़ा आगे दुकान नं 290 के आगे प्रथम मंजिल पर स्थित है श्री मदन गोपाल जी, इस मंदिर से प्रारम्भ करें

पहली मंजिल पर नगर शैली में बना यह मंदिर एक गौड़ीय संप्रदाय का मंदिर है जहाँ कृष्ण-राधा विराजमान है सेवा प्राकट्य और इष्ट लाभ नमक प्राचीन हस्तलिखित ग्रन्थ के अनुसार सम्वत 1590 में वृन्दावन के महावन में निवास कर रहे श्री परशुराम चौबे जी के घर से ठाकुर जी श्री मदनगोपाल जी के दिव्या विग्रह को प्राप्त किया गया और माघ शुक्ल द्वितीय को सेवार्थ प्रतिष्ठित किया। उड़ीसा के राजा प्रताप रूद्र के पुत्र श्री पुरुषोत्तम जाना को स्वप्न में ज्ञात हुआ की ठाकुर श्री जी विहीन अवस्था में विराजमान है तो उन्होंने ठाकुर जी के साथ प्रतिष्ठित होने के लिए प्रिय राधारानी एवं ज्येष्ठ सखी प्रिय श्री ललिता जी की अष्टधातु का विग्रह वृन्दावन भेजा। जब यह वृन्दावन पहुंची तो ठाकुर जी ने अपने सेवाधिकारी को स्वप्न में कहा की ये जो दो विग्रह आये है भक्त लोग उन्हें राधिका के नाम से जानते हैं जबकि यह राधारानी और ललिता सखी है। तुम अग्रसर होकर दोनों को शीघ्र यहाँ ले आओ और प्रतिष्ठित करो। कालांतर में जब 1614 के बाद औरंगजेब ने वृन्दावन के मंदिरों को तोडना प्रारम्भ किया तो जयपुर के राजा सवाई जयसिंह ने प्रधान विग्रहों को लाकर प्रतिष्ठित किया और उसी के साथ पूज्य श्री अद्वैताचार्य प्रभु के वंशजों को भी साथ लाये क्यूंकि वहां श्री जी की पूजा वही लोग करते थे और आज भी उन्ही के वंशज श्रीजी की सेवा कर रहे हैं।

यहाँ से दर्शन कर त्रिपोलिया की ओर चलने पर सामने के हाथ को गोपाल जी के रास्ते के सामने की ओर आता है श्री गोवर्धन नाथ जी का मंदिर

Goverdhan Nath Ji (Chauda Rasta)

पहली मंजिल पर बना यह मंदिर हवेली की तरह राजसिक शैली में बना है, मंदिर की ओर जाने वाली सीढ़ी फुटपाथ को कवर करते हुए सड़क के स्तर तक आती है, जो एक तरह से इसे एक विशिष्ट दृष्टिकोण प्रदान करती है। यह राजसिक लोगों द्वारा निर्मित विरासत मंदिरों की एक अनूठी विशेषता है। मंदिर शिखर से रहित है और एक खुले आंगन के साथ हवेली शैली में बनाया गया है। जयपुर में 18वीं और 19वीं शताब्दी के दौरान निर्मित कई अन्य हवेली शैली के मंदिर हैं। मंदिर राजपूत-मुगल स्थापत्य शैली में बनाया गया है। इसकी दीवारों पर सुंदर पेंटिंग और फूलों की आकृतियां हैं, जो एक मजबूत मुगल प्रभाव को दर्शाती हैं। श्री गोवर्धन नाथ जी मंदिर का अनूठा पहलू यह है कि भगवान कृष्ण की बाल रूप में पूजा की जाती है। जयपुर में भगवान कृष्ण को समर्पित अन्य विरासत मंदिरों के विपरीत, राधा को कृष्ण की मूर्ति के साथ नहीं रखा गया है। दूसरे द्वार की ओर जाने वाला एक छोटा चौक या प्रांगण है जो किसी भी दृष्टि से उल्लेखनीय नहीं है। हालाँकि, इस द्वार के दोनों ओर की दीवार में नाहर या शेर के सुंदर चित्र और चित्र हैं। आज यह मंदिर देवस्थान विभाग द्वारा व्यवस्थित किया जा रहा है।

यहाँ से दर्शन कर त्रिपोलिया की तरफ थोड़ा ही चलने के बाद आता है मंदिर श्री राधा-दामोदर जी

यह भी 18वी और 19वी शताब्दी के काल का बना हुआ एक राजपूत-मुग़ल स्थापत्य शैली में बनाया गया एक राजसिक मंदिर है जो शिखर से रहित है। इसकी दीवारों पर शहर के द्वारों की तरह बने आर्चेस में मांडने का काम किया हुआ है बाहरी आर्च गुलाबी रंग के हैं और आतंरिक पुराने ढंग में टरक्वॉइश रंग के हैं जिसमे पुराणिक कथाओं को भित्ति चित्रों के रूप में दर्शाया गया हुआ है। ऐसा कहा जाता है की राधा-दामोदर जी के विग्रह का निर्माण लगभग 500 साल पहले चैनाया महाप्रभु के शिष्य रूप गोस्वामी ने किया था। अपने हाथो से बनाये इस विग्रह को श्री रूप गोस्वामी जी ने अपने भतीजे श्री जीव गोस्वामी को सेवा के लिए सौंपा था और वे और उनके वंशज वृन्दावन में मठीय गौड़ीय संप्रदाय के अनुसार उनकी पूजा करते रहे। यह विग्रह भी औरंगजेब के समय से ही जयपुर लाया हुआ है और विग्रह के साथ इनके सेवक भी यहाँ आये थे। जिस प्रकार गोपीनाथ जी के लिए बोहरा जी ने अपनी हवेली दान करी उसी प्रकार राधा-दामोदर जी के लिए श्री हिम्मत राम नजरिया जी ने अपनी हवेली को दान में दिया था। इसी के साथ में जिस प्रकार वृन्दावन के राधा-दामोदर जी में गिर्राज शिला है उसी प्रकार यहाँ भी गिर्राज जी गोवर्धन शिला रखी है। राधावृन्दावनचन्द्र का विग्रह बड़ा है और यह राधा-दामोदर जी के पीछे विराजमान है यहाँ से गिरिराज शिला के दर्शन आसानी से किये जा सकते हैं। इस गिरिराज शिला के बारे में मान्यता है की जो भी भक्त इसके 108 परिक्रमा देता है उसको गोवर्धन परिक्रमा का लाभ मिलता है। यहाँ रखी कृष्ण चरण शिला की हर पूर्णिमा पर विशेष पूजा की जाती है।

ऐसा कहा जाता है सन 1796 में जयपुर नरेश से किसी विवाद के चलते राधादामोदर जी के सेवक सभी विग्रहों को लेकर वापस वृन्दावन चले गए थे। भक्तों के सेवाभाव को देख कर उस समय सूने गर्भ गृह में भगवान श्री नरसिंह जी के विग्रह को यहाँ रखा गया था। 25 वर्ष बाद सन 1821 में राधादामोदर जी के विग्रह को पुनः जयपुर लाया गया और उन्हें दुबारा मुख्य गर्भ गृह में नरसिंह जी की जगह विराजित किया गया और नरसिंह जी के लिए एक नया गर्भ गृह बनाया गया। इस प्रकार इस मंदिर में राम चंद्र जी का विग्रह भी है इसी के साथ कुछ वर्ष पहले भगवान श्री षड्भुजदेव की भी प्राणप्रतिष्ठा करवाई गई है जिनके साथ भगवान जगन्नाथ भी है इस प्रकार मंदिर में चरों युगों के चार देव विराजित हो गए हैं। सतयुग के नृसिंह जी, त्रेता युग के श्रीराम, द्वापर के श्री कृष्ण, कलियुग के भगवान षड्भुजानाथ।

राधा दामोदर जी के साथ जुडी है कुछ खास परम्पराएँ
1) कार्तिक मास बड़ा ही पवित्र मास है। इस मास में महिलाएं प्रातः ही स्नान कर ‘हरजस’ (राजस्थानी लोक गीत) गाती है पूरा महीना धार्मिक कृत्यों में बीतता है। दामोदर जी कार्तिक के ठाकुरजी हैं अतः इस माह में महिलाओं का हुजूम उमड़ता है और भगवान की विशेष झांकियां सजाई जाती है सेवा श्रृंगार बहुत आकर्षक होता है।
2) यहाँ जन्माष्टमी का उत्सव भी अन्य गौड़ीय परंपरा के मंदिरों से अलग होता है। गौड़ीय मंदिरों के विपरीत यहाँ भगवान का अभिषेक मध्याह्न में 12 बजे होता है, यह परंपरा वृन्दावन से ही चली आ रही है।

इनके दर्शन करने के पश्चात त्रिपोलिया की तरफ आगे बढ़ कर बाएं हाथ को ही प्रथम मंजिल पर आता है श्री द्वारिकाधीश जी का मंदिर

यह भी राजसिक शैली का बना हुआ राजपूत-मुग़ल स्थापत्य वाला, शिखर रहित और सुन्दर आर्च वाला मंदिर है और यहाँ श्रीकृष्ण का बाल विग्रह द्वारिकाधीश के नाम से विराजित है।

इनके दर्शन करने के पश्चात त्रिपोलिया बाजार से छोटी चौपड़ की ओर चलने पर आतिश के ठीक सामने बाएं हाथ को आता है राधा विनोद जी का मंदिर

Radha Vindo Ji also known as Vinodi Lal Ji

राधा विनोद जी का मंदिर जिसे जयपुर वाले विनोदी लाल जी का मंदिर कहते हैं। यह मंदिर भी अति विशाल था और महाराजा पुस्तकालय के सामने से आतिश के सामने तक फैला था। सर मिर्जा इस्माइल के प्रधान मंत्रित्व में मंदिर के चौड़े रास्ते वाले भाग को हिन्द होटल के निर्माण के लिए दे दिया गया। होटल की ईमारत से मंदिर पूरा छिप सा गया है, मंदिर के साथ लगा शिवालय आज भी हिन्द होटल के चौक में है। त्रिपोलिया बाजार में इसके निचे खड़े आदमी को आभास भी नहीं होता है की यहाँ को मंदिर भी है।
यह मंदिर का विग्रह लोकनाथ गोस्वामी का आराध्य था और लोकनाथ जी गौड़ीय संप्रदाय के मुख्य स्तम्भों में से थे। वे बंगाल के जैसोर परगने हाल में बांग्लादेश से वृन्दावन आये थे और चैतन्य महाप्रभु के शरणागत हुए थे। राधा-विनोद का पाटोत्सव 1510 ई का मन जाता है। इस प्रकार यह विग्रह गौड़ीय संप्रदाय का सबसे पुराण विग्रह कहा कहा जा सकता है। यह नहीं कहा जा सकता की राधा विनोद के सेवायत लोकनाथ गोस्वामी के बाद कौन थे किन्तु यह पता चलता है की विश्वनाथ चक्रवती जयपुर बसने के बहुत पहले ही राधा-विनोद को लेकर आमेर आ गए थे। राजा सवाई जयसिंह और उनके पूर्वजों को गौड़ीय संप्रदाय में अति दिलचस्पी थी। राधा-दामोदर जी को आमेर के राजाओं के पुराने महल में जिसे अब बालाबाई की साल के नाम से जाना जाता है में 1700 ई के आस पास विराजमान किया। जयपुर की नीव लगने के बाद जब नया शहर बसा और आमेर उजड़ने लगा तो राधा-विनोद को बालानंद जी के सुविशाल गढ़ में प्रतिष्ठापित किया परन्तु यह भी उनका अस्थायी निवास ही रहा। इनका आगमन चौड़े रास्ते में कब हुआ इसका विवरण नहीं मिलता है। राधा-विनोद का सेवाधिकार महाराजा सवाई रामसिंह के समय तक गुरु-शिष्य परंपरानुसार ब्रम्ह्चारियों को ही मिलता रहा किन्तु 1916 में तत्कालीन गोस्वामी के निधन के बाद जब गोवामी गोकुललाल सेवाधिकारी बने तो उन्होंने 1920 में महाराजा सवाई माधोसिंह जी की अनुमति से विवाह कर लिया। यह गोस्वामी बड़े ही संगीत प्रेमी थे और मणिपुर के एक हस्त वीणा वादक को भी सदैव अपने साथ रखते थे।

इनके दर्शन करने के पश्चात सामने सीधे आतिश मार्किट के गेट को सीधा पार करिये और दाएं मुड़िये सामने पैलेस के गेट को पार करते ही आएगा एक बहुत बड़ा खुला चौक जिसे चांदनी चौक कहते है

चांदनी चौक के चार कोनो पर चार प्रसिद्ध मंदिर हैं राजराजेश्वर जी, ब्रजनिधि जी, आनंदकृष्ण बिहारी जी और गुप्तेश्वर महादेव।

चांदनी चौक के गेट से अंदर घुसते ही बाएं हाथ को है मंदिर श्री ब्रजनिधि जी

यह ऊँची वेदी पर बसा एक बहुत बड़े और खुले प्रांगण वाला मंदिर है। इस मंदिर का निर्माण जयपुर महाराजा सवाई प्रताप सिंह ने सम्वत 1849 सन 1792 में करवाया था। मंदिर में मूर्ति की स्थापना वैशाख शुक्ल अष्ठमी शुक्रवार सम्वत 1849 में करवाई गई थी। मंदिर में श्री कृष्ण भगवान की काले पाषाण की एवं राधिका जी की धातु की भव्य मूर्ति विद्यमान है। मंदिर में सेवा पूजा वल्लभ कुल और वैष्णव संप्रदाय से मिली जुली पद्धति से होती है। मंदिर के स्थापना के सम्बन्ध में एक विशेष घटना जुड़ी हुई है
महाराजा प्रताप सिंह गोविन्द देव जी के अनन्य भक्त थे। गोविन्द देव जी उन्हें साक्षात् दर्शन देते थे और बात करते थे। अवध नवाब वाजिद अली शाह जिसने अवध के वाइसराय का वध करदिया था ब्रिटिश सरकार से बच कर परतपसिंघ जी की शरण में आया था और उस समय महाराज ने गोविन्द देव जी शपथ ले उसे बचाया था परन्तु बाद में उन्हें वाजिद अली को कुछ शर्तों के साथ ब्रिटिश सरकार को सौंप दिया था और जॉइंड देव की शपथ झुठला दी जिस से गोविन्द देव ने उन्हें दर्शन देना बंद कर दिया था। महाराज इस बात से व्यथित हो गए और उन्होंने अन्न जल का त्याग कर दिया था। श्रीगोविन्द देव ने बाद में उन्हें स्वप्न में दर्शन दिया और श्री ब्रजनिधि का महलों में एक नया मंदिर स्थापित करने को कहा और बताया की यह मूर्ति तुम्हे स्वप्न में दर्शन देती रहेगी। महाराज ब्रजनिधि जी का राजभोग आरती के समय दर्शन करती थे और स्वरचित पद्य सुनाते थे। महाराज द्वारा रचित ब्रजनिधि ग्रंथावली एक प्रसिद्ध ग्रन्थ है।

Brij Nidhi Ji

मंदिर का भव्य भवन वास्तुकला की दृष्टि से अत्यंत कलात्मक है। बृजनिधि मंदिर का अग्रभाग जयपुर के सबसे खूबसूरत मंदिरों में से एक है। यह महाराजा सवाई प्रताप सिंह द्वारा बनाया गया था, जिन्हें गुलाबी शहर की सबसे प्रतिष्ठित इमारत – हवा महल के लिए सबसे ज्यादा याद किया जाता है। बृजनिधि मंदिर हवा महल से पहले का है।

इनके दर्शन करने के पश्चात इस मंदिर के ठीक सामने चांदनी चौक में ही श्री आनंदकृष्ण बिहारी जी के दर्शन करिए


इस मंदिर की स्थापना सवाई प्रताप सिंह जी की पटरानी भटियाणी जी श्री आनंदी बाई ने करवाई थी, मंदिर हवेली नुमा शैली में है। उनके नाम से ही ये मंदिर आनंद कृष्ण बिहारी जी के नाम से जाना जाता है। ऐसी मान्यता है की भगवान कृष्ण बिहारी जी ने महारानी को दर्शन देकर आने को वृन्दावन में होने का आभास करवाया इसी मले आदेश के अनुसार महारानी ने गाजे-बजे के साथ इस विग्रह को ढूंढ कर जयपुर मंगवाया। माघ कृष्ण अस्टमी सम्वत 1849 को भगवान के विग्रह की प्राण-प्रतिष्ठा पूरे विधि विधान से करवाई गई। महारानी ने आदेश दिया की वृन्दावन में गांडीर वन में कहीं किसी संत महात्मा के पास एक पेड़ पर कृष्ण बिहारी जी विराजमान है उनको ढूंढ कर लाओ। मूर्ति की गढ़ाई चल रही थी जिसका आधा स्वरुप आज भी प्रांगण में रखा है। प्राण प्रतिष्ठा कार्यकर्म सात दिन तक चला बताया जाता है जिस दिन समारोह की आखिरी रीति अपनाई जा रही थी महाराज का प्राणांत हो गया और मंदिर के शिखर पर कलश स्थापित नहीं हो सके, कलशों की स्थापना हाल ही में जीर्णोद्धार के समय की गई।

इसके पश्चात आता है जयपुर का पूरे विश्व में प्रसिद्द, सबसे बड़ा, सबसे अधिक भक्तों की संख्या वाला जयनिवास उद्यान में स्थित मंदिर श्री गोविन्द देव जी जिनकी छवि इतनी मनमोहक है की इनसे आँखों का दूर जाना ही संभव नहीं है।

जो भी यात्री या पर्यटक जयपुर शहर में आता है वह यहाँ के अन्य दर्शनीय स्थानों के साथ गोविन्द देव जी के दर्शन करने अवश्य ही जाता है। अपने ज़माने में राजा गोविन्द देव जी को अपना दीवान मानते थे। गोविन्द देव आज भी राजा है। वृन्दावन सी धूम हर समय कभी तो उसे भी ज्यादा मंदिर के प्रांगण में हमेशा ही मची सी रहती है। इत्र और फूलों की महक यहाँ की हवा में हमेशा तैरती रहती है। बंगाल के चैतन्य महाप्रभु ने चार सदियों पहले भक्तिभाव और कीर्तन का जो रास्ता सांसारिक लोगों को बताया था उसका जादू अब भी बरक़रार है और यहाँ देखने को मिलता है।

यहाँ विख्यात मंदिर उस बारहदरी में है जो ‘सूरजमहल’ के नाम से जयनिवास बाग़ में चंद्रमहल और बादल माल के मध्य में बनी थी। किवदंती है की सवाई जयसिंह जब यह शहर बसा रहे थे तो सबसे पहले इसी बारहदरी में रहने लगा था। उसे आदेश हुआ की यह स्थान भगवन का है और उसे छोड़ देना चाहिए। अगले दिन वह चंद्रमहल में रहने लगा और यहाँ गोविन्द देव पाट बैठाया गया। मुग़ल बारहदरी को बंद कर किस प्रकार आसानी से मंदिर में प्रणीत किया गया है यह गोविन्द देव जी के मंदिर से स्पष्ट है। यहाँ के संगमरमर के अत्यंत कलात्मक दोहरे स्तम्भ और ‘लदाव की छत’ जिसमे पट्टियां नहीं होती है, जयपुर के इमारती काम का कमाल है।
गोविन्द देव जी की झांकी सचमुच बहुत मनोहर है। चैतन्य महाप्रभु ने बृज भूमि के उद्धार और वहां के विलुप्त लीला स्थलों को खोजने के लिए अपने दो शिष्यों रूप और सनातन गोवामी को वृन्दावन भेजा था। ये दोनों भाई थे और गौड़ राज्य के मुसाहिब थे लेकिन चैतन्य से दीक्षित होकर सन्यासी बन गए थे। रूप गोस्वामी ने गोविन्द देव की मूर्ति को जो गोमा टीला नामक स्थान पर वृन्दावन में भूमिगत मिली निकालकर 1525 ई में प्राण प्रतिष्ठा की। अकबर के सेनापति और आमेर के प्रतापी राजा मानसिंह ने इस प्रवित्र मूर्ति की पूजा करी। वृन्दावन में 1590 में उसने लाल पत्थर का जो विशाल मंदिर गोविन्द देव के लिए बनाया वह उत्तर भारत के सर्वोत्कृष्ट मंदिरों में गिना जाता है।
अप्रैल 1669 में जब औरंगजेब ने शाही फरमान जारी कर व्रजभूमि के देव मंदिरों को गिराने और उनकी मूर्तियों को तोड़ने का हुक्म दिया तो इसके कुछ आगे पीछे वहां की सभी प्रधान मूर्तियां सुरक्षा के लिए अन्यंत्र ले जाई गई। माध्व-गौड़ या गौड़ीय संप्रदाय के गोविंददेव, गोपीनाथ और मदनमोहन ये तीनो स्वरुप जयपुर आये। गोविन्द देव पहले आमेर घाटी के निचे बिराजे और जयपुर बसने पर जयनिवास की इस बारहदरी में बैठे जहाँ आज भी है।
गोविन्द देवजी की पूजा गौड़ीय वैष्णव की पद्धति से की जाती है। सात झांकियां होती है और प्रत्येक झांकी के समय गए जाने वाले भजन और कीर्तन निर्धारित है।
गोविन्द देव की झांकी में दोनो ओर दो सखियाँ खड़ी है। इसमें से एक राधा ठकुरानी की सेवा के लिए है जो सवाई जयसिंह ने चढ़ाई थी। प्रतापसिंग की कोई सेविका भगवन की पान सेवा करती थी जब उसकी मृत्यु हो गई तो प्रताप सिंह ने उसकी प्रतिमा बनवा कर दूसरी सखी चढ़ाई। सवाई प्रताप सिंह के काल में राधा-गोविन्द का भक्ति भाव बहुत बढ़ गया था।

Govind Dev Ji

इस मंदिर का निर्माण और राजा के चंद्रमहल का निर्माण इस प्रकार किया गया है की राजा के कक्ष से सीधे गोविन्द देव के दर्शन होते हैं। सवाई माधोसिंह द्वितीय रोज प्रातः गोविन्द देव के महल से दर्शन कर ही आपने आगे के कामों को किया करते थे। आज भी गोविन्द देव की लीलाओं और प्रताप में कोई कमी नहीं है किसी भी आरती का कोई भी समय हो और कैसा भी मौसम हो गोविन्द देव के भक्त उनके दर्शन करने आते है और पूरा प्रांगण भक्तों से भरा होता है। जन्माष्टमी के दिन हर साल आने वाले भक्तों की संख्या में रिकॉर्ड बढ़ोतरी होती है। गोविन्द देव आज भी जयपुर के सप्राण देव हैं। सभी लोग अपना दैनिक कार्य शुरू करने से पहले या कुछ भी नया चालू करने से पहले गोविन्द देव के दर्शन करते ही करते हैं।

गोविन्द देव मंदिर के दर्शन कर बहार निकल कर जब पुनः बड़ी चौपड़ की तरफ बाहर निकलने के बाद हवामहल के प्रांगण के भीतर है गोवर्धन नाथ जी का मंदिर जिसकी दीवारों पर बने चित्र देखते ही बनते हैं।

इस ऐतिहासिक मंदिर श्री गोवर्धन नाथ जी का निर्माण सवाई प्रताप सिंह जी ने 1799 में हवामहल के साथ करवाया था। श्री मंदिर का पुष्ट सन 1850 में सवाई राजा प्रताप सिंह के गुरु श्री देवकी नंदनाचार्य जी वाले पंचम पीठाधीश्वर द्वारा किया गया। इस विलक्षण मंदिर में श्री गोवर्धन नाथ जी, श्री स्वामिनी जी व श्री यमुना जी के श्री विग्रह विराजमान है। मंदिर का सञ्चालन गोकुल चन्द्रमा हवेली ट्रस्ट शुद्ध अद्वैतवाद पंचम पीठ कामवन द्वारा किया जाता है। पुष्टि मार्ग वैदिक हिन्दू धर्म का एक अलौकिक सम्प्रदाय है। जो की श्री कृष्ण प्रेम भक्ति और सेवा पर आधारित है। महाप्रभु की वल्लभाचार्य जी द्वारा स्थापित पुष्टि मार्ग ततः सुख की भावना से श्री कृष्ण को सेवा व समर्पण की पद्धति है। यह मंदिर पांच सौ वर्ष प्राचीन सेवा प्रणालिका और पुष्टि मार्ग के सिद्धांतो का प्रतीक स्तम्भ है। श्री कृष्णा को यहाँ राग भोग और श्रृंगार के द्वारा रिझाया जाता है और प्रेम पूर्ण सेवा समर्पित की जाती है। यह मंदिर अपनी शिल्पकला व अन्य कलाकृतियों का दर्शनीय स्थल है जिसके आकर्षण हैं
1. श्री गोवर्धन नाथ जी के अलौकिक दर्शन
2. दीवारों पर श्रीकृष्ण के हाथ निर्मित चित्र
3. श्री गोवर्धन नाथ जी का ऐतिहासिक रथ
4. श्री गोवर्धन नाथ जी का कांच का हिंडोला
5. मार्बल पर अध्भुत नक्काशी

यात्रा की समाप्ति यहां की जा सकती है और आप त्रिपोलिया बाजार में रामचंद्र ज्यूस सेंटर पर ज्यूस पी पुनः चौड़े रास्ते जाकर अपने अपने वाहनों से घर जा सकते हैं और अगर आप चाहे तो ताड़केश्वर जी के बगल में मोहन मंदिर के दर्शन और कर सकते हैं।

अन्य संभव यात्रा कुछ इस प्रकार हो सकती है

  1. अगर आप सिर्फ जयपुर में ही अपने वाहन से करना चाहें।
Vehicle Route covering important temples of Jaipur City

2. अगर आप साक्षात् कृष्ण दर्शन करना चाहें।

Vehicle Route covering temples made by grandson of Krishna Bajranabha

3. जयपुर में इस्कॉन (ISKON) की उपस्थिति

Temples on the concept of ISKON in Jaipur

जयपुर शहर का कृष्ण प्रेम अद्धभुत है जिसका कही और कोई मोल नहीं है। कहा जाता है जहाँ गोविन्द वहीँ वृन्दावन और जयपुर शहर के पर्यटन के पश्चात और यहाँ के मंदिरों के दर्शनों के पश्चात यहाँ सिद्ध होता है की यह नगरी किसी भी तरह से वृंदावन से कम नहीं है। भिन्न भिन्न सम्प्रदायों के मंदिर और उनमे होने वाली कृष्ण भक्ति इसे अतुलनीय बना देती है। जब भी जयपुर में हो इन कृष्ण मंदिरों का दर्शन अवश्य करें बताए गए पैदल मार्ग का पालन करेंगे तो अधिक से अधिक मंदिरों और उनके विग्रहों के दर्शन का लाभ ले पाएंगे और देखें की कैसे चैतन्य महाप्रभु की परम्पराऐं और वृन्दावन के सभी विग्रह कैसे शहर और उसके नागरिकों के बीच पूजनीय है और सभी कृष्ण की भक्ति से ओतप्रोत हैं।

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Festivals of India Stories in Hindi Stories of Cities

Jaipur Shahar aur Rakhi ka Tyonhaar

श्रावण मास पूर्णिमा को उत्तर भारत में मनाया जाता है रक्षाबंधन जो यहां का एक बहुत बड़ा त्योहार है। यह पारिवारिक संबंधों की मजबूती को दर्शाने वाला और उल्लास पूर्वक मनाया जाने वाला पर्व है।

इस दिन बहनें अपने भाइयों को कलाई पर राखी बांध कर संबंधों के सतत और मजबूत रहने की कामना करती है और भाई उन्हें भेंट से इसी कामना का आश्वासन देते है। इस त्योहार की शुरुआत के बारे में बहुत की कहानियां प्रचलित है और सभी कहानियों का निष्कर्ष यही है कि सम्बन्ध का पारिवारिक होना ही नहीं उनका प्रगाढ़ होना अत्यंत महत्वपूर्ण हैं।

रक्षाबंधन के प्रारम्भ की कहानी लगभग 3000 ईसा पूर्व वेदव्यास द्वारा रचित और लगभग 500 ईस्वी में लिखित विष्णु पुराण में विष्णु के वामन अवतार के साथ जुड़ कर प्रारम्भ होती है।

Maharshi Vedavyasa

“भगवान विष्णु ने वामन अवतार लेकर असुरों के राजा बलि से तीन पग भूमि का दान मांगा। दानवीर बलि इसके लिए सहज राजी हो गए। वामन ने पहले ही पग में धरती नाप ली तो बलि समझ गए कि ये वामन स्वयं भगवान विष्णु ही हैं. बलि ने विनय से भगवान विष्णु को प्रणाम किया और अगला पग रखने के लिए अपने शीश को प्रस्तुत किया। विष्णु भगवान बलि पर प्रसन्न हुए और वरदान मांगने को कहा तब असुर राज बलि ने वरदान में उनसे अपने द्वार पर ही खड़े रहने का वर मांग लिया। इस प्रकार भगवान विष्णु अपने ही वरदान में फंस गए तब माता लक्ष्मी ने नारद मुनि की सलाह पर असुर राज बलि को रक्षासूत्र बांध कर उपहार के रूप में भगवान विष्णु को मांग लिया।”

Raja Bali and Laxmi Ji
A Vaaman Sculpture in a temple of Jaipur dipicting Charity of Land by Raja Bali

इसकी द्वितीय कहानी भक्ति परम्परा के लगभग 900 से 1000 ईस्वी के मध्य कहीं लिखे गए एक सुप्रसिद्ध ग्रन्थ भागवत पुराण में महाभारत के प्रसंग के साथ जुडी मिलती है।

“पौराणिक मान्यताओं के अनुसार महाभारत में शिशुपाल के साथ युद्ध के दौरान श्री कृष्ण जी की तर्जनी उंगली कट गई थी। यह देखते ही द्रोपदी कृष्ण जी के पास दौड़कर पहुंची और अपनी साड़ी से एक टुकड़ा फाड़कर उनकी उंगली पर पट्टी बांध दी। इस दिन श्रावण पूर्णिमा थी, इसके बदले में कृष्ण जी ने चीर हरण के समय द्रोपदी की रक्षा की थी।”

Rani Darupadi and Krishna
Cheer Haran

इसकी तृतीय कहानी लगभग 1000 से 1100 ईस्वी में लिखे गए भविष्य पुराण में मिलती है।

इसके अनुसार “सालों से असुरों के राजा बलि के साथ इंद्र देव का युद्ध चल रहा था। इसका समाधान मांगने इंद्र की पत्नी शची विष्णु जी के पास गई, तब विष्णु जी ने उन्हें एक धागा अपने पति इंद्र की कलाई पर बांधने के लिए दिया। शची के ऐसा करते ही इंद्र देव सालों से चल रहे युद्ध को जीत गए। इसलिए ही पुराने समय में भी युद्ध में जाने से पहले राजा-सैनिकों की पत्नियां और बहने उन्हें रक्षा सूत्र बांधा करती थी, जिससे वो सकुशल जीत कर लौट आएं।”

Indra Dev and Raja Bali

एक समय प्राकृतिक परंपरा को मानते हुए किसी और को राखी बांधने से पहले प्रकृति की सुरक्षा के लिए तुलसी और नीम के पेड़ को राखी बाँधी जाती थी, जिसे वृक्ष-रक्षाबंधन भी कहा जाता है। हालांकि आजकल इसका प्रचलन नही है परन्तु झारखंड और छत्तीसग़ढ के आदिवासी इलाकों में राखी को आज भी इसी प्रकार ही मनाया जा रहा है। गुरु-शिष्य परम्परा में शिष्य अपने गुरु को आज भी राखी बांधते है।

Women tying Rakhi to Trees and Celebrating

हालाँकि राखी की परम्परा ऋग्वैदिक काल से ही है और उस समय केवल ब्राह्मण लोग ही एक दूसरे को, देवताओं को और राजा को रक्षासूत्र बंधा करते थे जैसे ही यह प्रचलन में आई और सभी लोग और वर्ण इसके विश्वास को परमविश्वसनीय मानाने लगे तो यह परंपरा आगे बढ़ी और पालतू पशुओं, पीपल, गूलर, नीम, बबूल आदि वृक्षों को मौली के रूप में रक्षासूत्र बांधने लगे। गाय और घोड़ों को आज भी क्रमशः ब्राह्मणों और क्षत्रियों के द्वारा अनेक स्थानों पर रक्षासूत्र बंधा जाता है। इस पर्व के प्रारम्भ का अनुमान लगाना लगभग असंभव ही है।

Celebrating Rakhi with Cow

इस दिन ऋषि तर्पण और श्रवण पूजा का भी विधान है। इस दिन सभी सनातनी लोग श्रवण कुमार का पूजन करते हैं। इसके अलावा कुशा निर्मित ऋषियों की स्थापना करके उनका पूजन, तर्पण और विसर्जन करते हैं। श्रावण शुक्ल पूर्णिमा को ऋग, यजु, साम वेद के स्वाध्यायी ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य, जो ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ, किसी आश्रम के हों, अपने-अपने वेद कार्य और क्रिया के अनुकूल काल में इस कर्म को संपन्न करते हैं। सामान्य तौर पर वे उस दिन नदी आदि के तटवर्ती स्थान में जाकर यथा विधि स्नान करते हैं। कुशा निर्मित ऋषियों की स्थापना करके उनका पूजन, तर्पण और विसर्जन करते हैं। इसके बाद रक्षा पोटलिका बनाकर उसका मार्जन करते हैं।

क्यों की जाती है श्रवण कुमार की पूजा?

इसकी कथा रामायण के एक प्रसिद्द प्रसंग के साथ जुडी है, नेत्रहीन माता पिता के एकमात्र पुत्र श्रवण कुमार उन्हें अपने कन्धों पर बिठा कर तीर्थ यात्रा करवाने ले जा रहे थे, बीच में उन्हें प्यास लगी तो श्रवण उनके लिए पास के ही संसाधन से रात्रि के समय जल लाने गए थे, वहीं कहीं हिरण की ताक में दशरथ जी छुपे थे। उन्होंने घड़े के शब्द को पशु का शब्द समझकर बाण छोड़ दिया, जिससे श्रवण की मृत्यु हो गई। जब इसका दशरथ को पता चला तो वे श्रवण के पास गए और श्रवण ने उन्हें अपने बारे में और माता पिता के बारे में बताया ग्लानि से भरे दशरथ जब श्रवण के माता पिता के पास गए और उन्हें उस अनहोनी का बताया तो उन्होंने क्रोधवश दशरथ को पुत्रवियोग का श्राप दे डाला। जिसके पश्चात दशरथ ने उनसे अनेक बार क्षमायाचना की और पश्चातापवश श्रावण पूर्णिमा को श्रवण कुमार की पूजा आरम्भ की जो अभी तक समाज में निरंतर है। यह रात्रि श्रावण मास की पूर्णिमा ही थी।

Ayodhyapati Raja Dashrath and Shravan Kumar

इन सभी बातों का निष्कर्ष यही है की जिस प्रकार से इसकी महत्वपूर्णता आम प्रचलन में भाई-बहन तक सीमित बताई जाती है यह वास्तविकता में वहीँ तक सीमित नहीं है यह पर्व सिर्फ रक्षा पर्व नहीं है यह पर्व एक विश्वास का पर्व है जिसमे दोनों पक्ष ही याचक और दाता है जिसमे भाई-बहन अपने एक-दूसरे के प्रति प्रेम और सम्मान का आदान प्रदान कर रहे हैं और प्रकृतिवादी प्रकृति को संतुलित रख जीव मात्रा के अस्तित्व की रक्षा कर रहे हैं और गुरु शिष्य ज्ञान के आदान प्रदान के साथ अपनी परम्पराओं को आगे बढ़ा रहे हैं।

जयपुर शहर में रक्षाबंधन के साथ विशेष परंपरा जुडी हुई है यहाँ शहर की स्थापना के साथ महाराष्ट्र से बुलाये गए ब्राह्मणों में से एक प्रमुख विद्वान् और ज्योतिषाचार्य श्री सम्राट जगन्नाथ जी के वंशजों ने जिसे तार्किक और वैदिक परंपरा के अनुरूप प्रारम्भ किया। उनका दिया गया तर्क यह है की जब रक्षासूत्र के साथ एक दूसरे की रक्षा का वचन दिया जाता ही है तो राजा तो पूरे शहर और राज्य का प्रथम और मूल रक्षक है तो क्यों न उन्हें हम जनता के प्रतिनिधि के रूप में रक्षासूत्र बांध सम्मानित करें जिस से राजा भी हमें और जनता को अपने सुशासन से अनुग्रहित करें।

अतः राखी के दिन श्रावणी पूर्णिमा पर शुभ मुहूर्त पर गलता, गोविंददेव जी, गोपीनाथ जी आदि के महंत पालकी में बैठ कर महल आते थे। इस दिन सर्वतो-भद्रः सभागार में महाराजा का राखी का दरबार सजता था। शहर की सबसे पहली राखी शुभ मुहूर्त में सबसे पहली राखी संत, महंतों और धार्मिक गुरुओं द्वारा राजा को बाँधी जाती है। इसका एक परचा सिटी पैलेस के रिकॉर्ड में मिलता है सं 1881 की श्रावणी पूर्णिमा पर महंतों व गुरुओं ने महाराजा सवाई माधो सिंह द्वितीय को वैदिक मंत्रोच्चार के साथ राखी बाँधी। सम्राट जगन्नाथ के वंशज वैधनाथ ने पहली राखी बाँधी बाद में रत्नाकर पौंड्रिक के वंशज गोविन्द धर के अलावा नारायण गुरु, गंगेश्वर भट्ट, उमानाथ ओझा ने राखी बाँधी। सन 1932 के रक्षाबंधन पर दस माह के युवराज भवानी सिंह ने बहन प्रेम कँवर को राखी बांध स्वर्ण मोहर भेट करी। ईसरदा की गोपाल कँवर ने होने ससुराल पन्ना रियासत से भाई मानसिंह को रामबाग में राखी भेजी और मानसिंह ने पेटे के चार सौ रुपये मनीआर्डर किये। रामसिंह द्वितीय की महारानी रणावती भी भाई बहादुर सिंह करनसर के राखी बांधने त्रिपोलिया के किशोर निवास में 15 हथियार बंद सैनिकों के साथ रथ में गई।

सिटी पैलेस में निवास करने वाली जिस महारानी व राजमाता के भाई जयपुर के बाहर होते तो उनके लिए स्वर्ण मोहरें, पाग के साथ राखी दस्तूर किसी जिम्मेदार जागीरदार के साथ उनके पीहर भेजा जाता था। 15 अगस्त 1940 को पंडित गोकुल नारायण के जननी ड्योढ़ी में राखी का पूजन किया था और दिवंगत महाराज सवाई माधोसिंह की पत्नी राजमाता तंवराणी जी माधोबिहारी जी मंदिर से संगीन पहरों में भाई भवानी सिंह व रणजीत सिंह को राखी बांधने खातीपुरा गई।

मानसिंह की ज्येष्ठ रानी मरुधर कँवर ने अपने खजांची मुकुंदराम जी के साथ पीहर जोधपुर में व तीसरी रानी गायत्री देवी ने कामा के राजा प्रतापसिंह व ओहदेदार भंवरलाल के साथ पीहर कूचबिहार में राखी भेजी। देवर्षि कलानाथ शास्त्री जी बचपन में पिता मथुरानाथ शास्त्री के साथ राजा सवाई मानसिंह को राखी बांधने सिटी पैलेस जाते थे। उस समय जागीरदार भी अपना बकाया टैक्स जमा करवा कर राखी के लिए दरबार में आया करते थे।

राखी और उसके मुहूर्त
हिन्दू परम्पराओं में मुहूर्तों का अत्यधिक महत्त्व है और राखी के दिन अनेक महिलाएं अपने भाइयों को राखी बांधने के पश्चात ही भोजन ग्रहण करती है। अनेक अवसरों पर रक्षाबंधन के दिन भद्रा के देर से आने से मुहूर्त भद्रा के रहने तक टल जाता है।

आइये जानते हैं की यह भद्रा क्या है?
हिन्दू कलैंडर चन्द्रमा और सूर्य दोनों की गति के अनुसार चलता है और चन्द्रमा की एक कला के परिवर्तन को एक तिथि कहा जाता है और सूर्य की एक कला के परिवर्तन को दिवस। तिथियां 5 प्रकार की होती है नंदा, भद्रा, जया, रिक्ता और पूर्णा। एक तिथि दो करण के योग से बनती है और करण 11 प्रकार के होते हैं जिनमे कुछ गतिशील है और कुछ स्थिर। इन 11 करणों में से सप्तम करण का नाम है विष्टि करण जिसे भद्रा भी कहा जाता है। यह विष्टि करण एक गतिशील करण है, यह स्त्रीलिंग है और यह तीनो लोकों में घूमती है जब यह मृत्युलोक अर्थात पृथ्वी पर होती है तो शुभ कार्यों में बाधक होती है या उनका नाश कर देती है। जब चन्द्रमा कर्क, सिंह, कुम्भ और मीन राशि में विचरण करता है और विष्टि करण का योग होता है तब भद्रा पृथ्वीलोक में होती है और इस समय सभी शुभ कार्य वर्जित होते है। 21 अगस्त 2021 को मध्य रात्रि (Gregorian Date 22 August) पर चन्द्रमा मकर से कुम्भ राशि में प्रवेश करेगा और यहाँ से श्रावणी पूर्णिमा का आरम्भ होगा, विष्टि करण से तिथि प्रारम्भ होगी और यह करण 22 को सुबह 06:14 AM तक है अतः भद्रा सुबह तक ही है और रक्षाबंधन उसके पश्चात पूरे दिन मनाया जा सकता है।

पौराणिक भद्रा है कौन?
यह भगवन सूर्यदेव की पुत्री और शनि देव की बहन है और अपने भ्राता शनि की तरह ही इनका स्वभाव है। इनके इसी स्वाभाव को नियंत्रित करने के लिए भगवान ब्रम्हा ने इन्हे पंचांग में एक प्रमुख अंग विष्टि करण में स्थान दिया है। चूँकि यह शनि की बहन है और शनि न्याय के देव हैं इसी प्रकार ये भी न्याय की देवी होती हैं अतः भद्रा में हर मांगलिक कार्य वर्जित है परन्तु न्यायिक कार्यों को किया जा सकता है।

Bhadra Devi

भारत उत्सवों और पर्वों का देश है जिसमे देशज पर्व भी हैं और राज्यों के अपने विशेष पर्व भी, राखी इसी प्रकार से आधे से ज्यादा भारत में श्रावणी पूर्णिमा के दिन हर्षोल्लास से मनाया जाता है। जयपुर शहर की परम्पराओं के उल्लेख और यहाँ के विशेष प्रचलनो से यह सिद्ध होता है की इस पर्व की शहर में कितनी महत्वपूर्णता है और इसका ज्योतिष से व खगोल विज्ञान से कितना गहरा सम्बन्ध है। अतः सभी नियमो का यथोचित रूप से पालन करते हुए, त्योंहार के मूल कारण आपसी विश्वास और प्रेम को बनाये रखने के लिए हर बार की तरह इस बार भी इस पर्व को अपने परिवारजनों से साथ हर्षोल्लास के साथ मनाइये।

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Bramhpuri (A true place of fairy tales)

Jaipur is a city settled in nine squares. One square among nine became important because the king placed the Ganesha, scholars of Jaipur, the teachers, subject experts, astrologers, ritualists, philosophers and Pundarik Ji here. There is a Ganesh temple on the mountain to the north of this square established by Sawai Jai Singh with the establishment of Jaipur. The Guru of Maharaja Sawai Jai Singh, Shri Ratnakar Pundrik Ji had a heartfelt wish that Maharaj should perform the Ashwamedh Yagna, the process which he had started, due to his death in 1977, it could not complete during Pundrik Ji’s lifetime. Ganesh Ji was placed at the top of the mountain by the tantric methods when Shri Ratnakar Pundarik performing Ashwamedha Yagna at the foothill of this mountain. It was called Bramhapuri due to it being a city of scholars completely like Kailash. Brahmapuri means the place where those who know Brahma reside. Similarly, there is Brahmapuri in many big cities of Rajputana.

Ghar Ganesh

When Maharaj Jai Singh built Bramhapuri, first of all, his Guru Shri Ratnakar Ji Pundarik settled here. When Sawai Ishwari Singh had completed the Ashwamedh Yagya after Raja Sawai Jai Singh, then scholars called from the country and abroad were given settlement and livelihood here. At that time, about 4500 square yards one raw bigha land was provided to all for use and living. All the main scholars of Jaipur city used to live here. Out of which prominent scholars of early times were Shri Ratnakar Pundarik Ji and Shri Jagannath Samrat Ji. Ratnakar Ji Pundarik was a Maharashtrian scholar Brahmin who was a master in Mantra and Tantra.

Similarly another Maharashtrian Brahmin, Shri Samrat Jagannath Ji was also among the first inhabitants of Bramhapuri. He was a great man of Mantra and a unique scholar of astronomy. During the time of Maharaj Jai Singh, he had created the texts of geometry. He was also a great scholar of the Arabic language according to history, he translated those texts into Arabic and some texts from Arabic as well. He also wrote a famous book named ‘Siddhanta Kaustubh-Samratsiddhanta’. In Jaipur’s state astronomical observatory ‘Jantar-Mantar’, the ‘Samrat Yantra’ has been invented by him, which even today tells the local time calculation very accurately. He also wrote the book ‘Siddhant Samrat’ which describes the astronomical instruments, design and construction, and observations. It also describes the use of these observations in correcting the parameters and preparing the calendar. This book also mentions how Jai Singh who previously used astronomical instruments made of metal (such as the Astrolab), later switched to larger external observatories built of stone instead of brick to reduce wear and tear and the effects of climate (such as the Jantar Mantar), as they were more accurate. He wrote a book named ‘Yantra Prakar’ which describes the astronomical instruments, measurements, calculations etc. in more detail and describes the observations made by them. There was also a security gate of the city near the haveli of Samrat Ji, which is known by all today as Samrat Gate.

According to historians, he also provided evidence for the measurements of trigonometry given by Bhaskara II was essentially geometric interestingly it involved an analytical process in terms of trigonometric and algebraic steps. The city of Jaipur has a unique tradition on the day of Rakhi the first Rakhi was tied to the king by saints, mahants and religious gurus the Samrat Jagannath was the one who started this tradition. Details of this are in the records of the City Palace, on the Shravani Purnima of 1881, Mahants and Gurus tied Rakhi to Maharaja Sawai Madho Singh II with Vedic chants. Vaidyanath, a descendant of the Samrat, tied the first rakhi. Later Govind Dhar, the descendant of Ratnakar Paundrik, Narayan Guru, Gangeshwar Bhatt, Umanath Ojha tied the rakhi.

Maharaja Jai ​​Singh invited such extraordinary personalities to Jaipur and first settled them in Bramhapuri and many private Siddha scholars were also given land here with respect. The description of Brahmapuri and all these are in the epic ‘Ishwar-Vilas’ written by poet Kalanidhi Shri Krishnabhattji in the court of Shri Sawai Ishwari Singh, son of Maharaja Sawai Jai Singh.

Ishwar Villas/Jaipur Villas

Two Akhadas are also famous in this place of the city, Bada Akhara and Chhota Akhara. The name Akhada suggests that in the Akharas wrestlers would have practised exercise and wrestling in front of their God, but the Rangasthals were called Akhadas in the local language. Rangasthal means the place where dance, music, singing, acting and other arts are practised. The venues here were socially indecent without any hesitation, in which there was a lot of use of satire. Musical performances have been performed here on Holi, in which there are many songs of romanticism, satire and bravery touching obscenity. Until recently, these acts, which used to be obscene, called ‘tamasha’ in Jaipur, used to be only for men adult women used to see and hear them from a specific place on the screen. This Tamasha performed by circulating around the same place, it is not performed by roaming around in the locality as other Holi plays. This particular style of drama is known as Jaipur’s Tamasha is world-famous today.

The title of the Holi Tamasha is ‘Heer-Ranjha‘. In which with playing traditional songs, sarcasm and satire are also made on contemporary politics and problems. The main reason for calling them a Tamasha is that it has been taking deep sarcasm on contemporary problems, superstitions and evils. The work of public awareness was made by making a spectacle of all the problems, superstitions and evils. This tamasha is performed by the Tailang Bhatt family in which the main role plays Dilip Bhatt and Tapan Bhatt.

Of all these invited scholars, the Dravidian scholars invited from the south were the most, they are known by the surnames Dravida, Kathabhatta or Tailang Bhatt. All these were scholars who believed in the Vedas and performed Agnihotra daily.

Ishwar Vilas says

येन ब्रम्हपुरी कृताऽतिधवलैः कैलासशैलोपमैर्विप्राणां भवनैः सदा समुदयत्संपद्विलसंचितैः।
प्रत्यागारमुरुप्रकारहवनैर्यत्राग्निहोत्राणयभूर्लीलादत्तचतुः पुमर्थपटलीजातादराणी स्फुटं।
श्रियं धत्ते यस्यामधिगिरिशिरः श्रीगणपतेर्गृहं दुराददृश्यम सुखचितमणिभाभिररुणम।
ध्रुवं तस्या एव क्षितिपतिरमन्याः सुरुचिरे ललाटे सिन्दूरैः कलितमिव सौभाग्यातिलकम।

Vedic, Vaishnava, Shaiva, Shakta and Smarta scholars lived in Brahmapuri with wealth and prosperity. That is why the temples of all these meet at a short distance here. In its northwest direction was the abode of Vaishnava Brahmins and Goswamis.

Shri Gokulnath Ji was a Vaishnava scholar of the revered Shuddhvaita Sampradaya (South). Gokuldwara and Gokulnath Ji’s stepwell are still today on his name.

Gokulnath ki Bawadi/Pond

To the northeast, Smarta Gujarati Prashnavar Brahmins were given Kothis (chambers) who were great scholars of astrology, tantra and rituals. Among these Prasyanvar Brahmins, there was a Kanhaiyalal Prasyanvar, whose ancestors were responsible for worshipping the famous Jageshwar Mahadev after getting the new form of Shiva in the dream of Pundarik and building a temple on that Shivling. Because of the beautiful handwriting of Shri Kanhaiyalal Ji, he was appointed by Maharaja Madho Singh as the scribe of handwritten texts in Pothikhana.

Jageshwar Temple

Among these Prashnora scholars, at the time of Sawai Ram Singh Ji, Shri Krishnalal Shastri Prashnwar ‘Kanhaji’ was a great scholar of Sanskrit language and philosophy. It is famous about him that he had a debate with Dayanand Saraswati who was the founder of Arya Samaj and used to say that except the Vedas, no other text is philosophically authentic, he also strongly opposed idol worship. When he had been victorious in all states and in all religions with his knowledge of scriptures, Kanhaji stopped his victory. Shri Dayanand asked him that ‘Kasvatvam’, he replied ‘Krishno (a)ham’. Thereafter Saraswati said in sarcasm, ‘Krishnatvam tu na kutopidrishte’. At the same time, he replied, “Na Dayasti Na Chanando Na Cha Tvayi Saraswati. Bhuyopi vad kasmatvam ‘dayanandsaraswati’.”
To understand this a little background is needed When Dayanand came to the Jaipur royal court, Maharaja Sawai Ram Singh Ji of Jaipur was a great Shaivite devotee and since the establishment of Arya Samaj, Dayanand had been debating in all the big cities and defeating everyone in it and his coming to Jaipur was inevitable because at that time Jaipur was a famous name in the whole country. When he came to the Jaipur royal court and challenged the debate, then Kanhji was called and on his arrival, when Dayanand asked him that Ksvatvam (who are you) then he introduced himself that Krishno Aham (I am Krishna) then Dayanand ridiculed his skin being fair and named Krishna and said in a sarcastic form that Krishnatvam tu na kutopidrishte (Krishna, you do not seem in any way) then he replied that na dayasti nor chanando na cha tvayi Saraswati bhuyopi vad Kasmatvam DayanandSaraswati (You have no mercy because you have been denying people’s beliefs and traditions everywhere, that’s why no one enjoys your presence and you have commented on my colour while not looking at my knowledge that’s why You do not even seem to have Saraswati in you, then how did you become Dayanand Saraswati) hearing this, Dayanand became unresponsive and ended his debate. After this Dayanand went to Ajmer and there he spent the last moments of his life because he died there due to a conspiracy. Kanhji was also very fond of the Tamashas of Jaipur, many songs composed by him are still known in the Tamashas. He used to compose songs in Dhundadi (local language) as well as in Punjabi. He especially used to write stanzas.

A Beautiful Haveli with Murals

The list of Prashnvar scholars and their contribution to the history of Jaipur is incomparable, even today they are in charge of Jaipur’s administration, music, literature and grammar of Sanskrit and Hindi language, Mrs Dr Chetna Pathak, granddaughter of Shri Kanhaiyalal Prashnwar, Sanskrit of Jaipur today. Professor in the college.

In the lineage of Krishnalal Shastri Prashnwar, Sanskrit scholars have been predominant. His descendant Mr Girraj Prasad Sharma had been a teacher of Sanskrit and grammar in the schools of Jaipur. Despite being visually impaired he has memorized many Sanskrit texts and the Shrimad Bhagwat Gita because of his interest in language and literature and keeps on reciting it daily.

In administration, Late Shri Narsingh Prasad Bhatt had been an officer of the Indian Administrative Service in independent India.

In these, Shri Vinod Pandya, grandson of Vyakaranacharya Shri Madanlal Prashnwar, had been an officer of the Indian Administrative Service in independent India.

In these, Shri Sumant Pandya, the grandson of Vyakranacharya Shri Madanlal Prashnwar, has been a professor of Hindi in the oldest and only women’s university of Rajasthan.

Late Shri Vishnu Chandra Pathak became very famous among scholars of the Hindi language. He was also a professor of Hindi language in colleges and universities of Jaipur and he was also made the President of Brijbhasha Academy.

In music, Mrs Anusuya Pathak had been a professor and HOD of the Department of Music in Rajasthan University her daughter Mrs Aishwarya Bhatt is today a professor in the Department of Music at the oldest and only women’s university in Rajasthan.

Since Gujarati scholars have been very knowledgeable smarta ritualists most of the temples of Brahmapuri are worshipped and maintained by their descendants. Prominent temples whose worshipers are Prashnavars Jageshwar Mahadev, Veer Hanuman, Hanuman of the big akhada and small akhada, Prasyanvars. Hatkeshwar Mahadev of Ki Baori.

Jageshwar
Hanuman Ji (Bada Akhada)
Hatkeshwar Mahadev
Veer Hanuman

Goswamis are the main worshiper of the world-famous Vaishnava temple of Jaipur, Govind Dev Ji. This Govind Dev temple is in Jai Niwas Garden and today due to the expansion of the area, it is also believed to be in Brahmapuri to some extent. Similarly, Tal Katora and Chaugaan have also been considered in Brahmapuri itself. The temples of Shaktas is Mangala Mata Temple.

Mangala Mata Temple

Once outside the temple of Govind Dev, near the City Palace, the place where farmers from the princely state of Jaipur used to sell grains, vegetables and fruits and flowers to the court, that place used to be the oldest market of Jaipur and keeping the legacy even today. Even today there is a market for vegetables, fruits and flowers at the same place. This is the only wholesale market for flowers in the city. This place is between the pond (which was called Rajmal ka Talab) and the palace near the residence of Rajmal, the courtier of Jai Singh. After the drying of Rajmal’s pond, it has been dumped and made Kanwar Nagar and Sindhi Colony there.

Vegetable Market
Flower Mandi
Flower Market with Tourist

Brahmapuri has been the abode of scholars and Brahmins. It has always had temples in everyone’s homes among them the names of the most ancient and awakened temples are the names of the places and markets there such as Jageshwar Mahadev Bus Stand also known as Bramhapuri Bus. Sitaram Bazaar, Veer Hanuman Chowk or Revati Chowk, Chhota Akhara, Bada Akhara, Shankar Nagar. All these scholars used to go to the temple every morning, first, they used to take bath in the stepwell or kund of that temple, so there used to be a kund with every temple in the Brahmapuri. One of them is Kadamba Kund, built in the hollow of Garh Ganesh and Nahargarh is recognized by the Kadamba trees growing on its banks. At the foothills of Nahargarh in the northwest bank of Bramhapuri is the place of the funeral of the royal family, which is called in the local language the Gayo ki Thor (place of the deads) or Gaitor. Here Mahadev resides in the name of Gaiteswar and a program on the night of Shivratri of playing hymns, Dhruvapad and Bhajans organize by Tailang Bhattas.

Today, most of these old Havelis, which earlier used to shower splendour and beauty, are lying in dilapidated condition due to lack of maintenance many of them have now ended and colonies have been formed in the area of ​​the haveli. Due to the paucity of space, most of the ponds have been filled with soil. There is only Kadamba Kund with Kadamba tree, for which cleaning campaigns are carried out every year, but every year it gets filled with dirt again and in the evening, the gathering of anti-social elements is also increasing with time. The pool of Gokulnath is full of mud and moss, the pools of the temples are exhausted, only the wells are left.

Kadamb Kund/Pond

Bramhapuri, which was earlier built on a small square, has today its boundary from the end of Gangauri Bazaar (where there used to be small and big ponds, these ponds have been filled with soil and colonies have been made on these too) till Ramgarh Mod. Kanwar Nagar, Shankar Nagar, Kagdiwada, Mohan Nagar and many more new colonies have been formed. The canal at the foothills of the Garh Ganesh is destroyed, now the rainwater flows on the road and enters the houses. The importance of the canal can be understood from this that for those who could not go to Garh Ganesh, a temple named Nahar’s Ganesha (Ganesha belongs to Canal) was built by the canal, which has been given the name of the canal itself.

Ganesha belong to Canal

Samrat Ji’s haveli is no longer left, in few remains of it, a Sanskrit college was made in 1967. Now Sanskrit is taught in the remnants of the Samrat Haveli.

Sanskrit College

Today the descendants of Samrat Ji had left the main mansion and living in one of the 12 Kothis and the condition is not very good and doesn’t even have a title.

Mansion where family of Jagnnath Samrat is living now

Bramhapuri has always been a colony of scholars, experts of every field used to live here and still is, whenever you come to Jaipur, a roundabout of Bramhapuri is expected to see how the oldest area of ​​Jaipur looks like today and to pass the time, meet the people here and listen to the amusing stories of witches, ghosts, tantriks and miracles. There is not much space left to visit here, yet you will not be able to complete it even in three days by listening to all the parts and its stories. There is not a single place in the Bamhapuri that does not have any legacy, come someday and sit at any one of these old places in the evening and think how Bramhapuri has seen the passage of time and even today somewhere it’s own. existence is preserved.

Note: Do not take the narrow meaning of the word Brahmin here, here this word is not indicative of any particular caste, but it represents everyone who knows Brahm, knows or wants to know the meaning of life.

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Bramhapuri

नौ चौकड़ियों में बसा शहर है जयपुर इन चौकड़ियों में एक बहुत महत्वपूर्ण चौकड़ी है जहाँ राजा ने जयपुर के प्रथमपूज्य गणेश और विद्वानों को बसाया लगभग सभी अध्यापक, विषय विशेषज्ञ, ज्योतिष, कर्मकांडी, दार्शनिक और पुण्डरीक जी यहीं रहते थे। इसके चौकड़ी के उत्तर दिशा में पहाड़ पर एक गणेश मंदिर है जिसे जयपुर की स्थापना के साथ ही सवाई जय सिंह द्वारा स्थापित किया गया था। महाराजा सवाई जय सिंह के गुरु श्री रत्नाकर पुण्डरीक जी की हार्दिक इच्छा थी की महाराज अश्वमेध यज्ञ करें, जिसकी प्रक्रिया को उन्होंने प्रारम्भ भी करवा दिया था परन्तु 1977 में उनके देहांत की वजह से वह पुण्डरीक जी के जीवन काल में नहीं हो पाया। अश्वमेध यज्ञ का आयोजन इस पहाड़ी की तलहटी में ही पीछे की और हुआ था और उसी समय तांत्रिक विधि से श्री रत्नाकर पुण्डरीक जी के द्वारा जिन गणेश जी की स्थापना यज्ञ के समय यज्ञ के स्थान पर की गई उन्हें फिर शहर की और देखते हुए पहाड़ी के ऊपर उत्तर दिशा में स्थापित किया। यह कैलाश के सामान पूर्ण रूप से विद्वानों की नगरी होने के कारण इसे ब्रह्मपुरी कहा जाता था। ब्रह्मपुरी अर्थात वह स्थान जहाँ ब्रह्म को जानने वाले रहते है। इसी प्रकार राजपूताने के कई बड़े शहरों में ब्रह्मपुरी है।

Gadh Ganesh Temple

जब महाराज जय सिंह ने ब्रह्मपुरी का निर्माण किया तब सबसे पहले अपने गुरु श्री रत्नाकर जी पुण्डरीक को यहाँ लाकर बसाया। जब राजा सवाई जय सिंह के पश्चात् सवाई ईश्वरी सिंह ने अश्वमेध यज्ञ को पूर्ण किया था तब देश विदेश से बुलाये विद्वानों को यहीं पर बसावट और आजीविका दी थी। सभी को बसावट में व्यक्तिगत प्रयोग व रहने के लिए उस समय लगभग 3000~3200 वर्ग गज एक कच्ची बीघा जमीन दी गई थी। जयपुर शहर के सभी मुख्य विद्वान् यहीं रहा करते थे। जिनमे से प्रारंभिक समय के दो विद्वानों श्री रत्नाकर पुण्डरीक जी और श्री जगन्नाथ सम्राट जी प्रमुख रहे हैं। रत्नाकर जी पुण्डरीक एक महाराष्ट्रियन विद्वान् ब्राह्मण थे जिन्हे मंत्र और तंत्र में सिद्धि प्राप्त थी।

इसी प्रकार एक और महाराष्ट्रियन ब्राह्मण श्री सम्राट जगन्नाथ जी भी ब्रह्मपुरी के सबसे पहले निवासियों में थे। वे मंत्र के महान और ज्योतिष के अद्वितीय पंडित थे। महाराज जयसिंह के समय इन्होने रेखागणित के ग्रंथों का निर्माण किया था। वे अरबी भाषा के भी परम विद्वान् थे और इतिहास के अनुसार उन्होंने उन ग्रंथों का अरबी में और कुछ ग्रंथों का अरबी से भी स्वयं अनुवाद किया था। इन्होने ‘सिद्धांतकौस्तुभ-सम्राटसिद्धांत’ नाम के प्रसिद्ध ग्रन्थ का भी लेखन किया था। जयपुर की राजकीय खगोल वेधशाला ‘जंतर-मंतर’ में सम्राट यन्त्र इन्हीं का अविष्कार कर बनाया हुआ है जो आज भी स्थानीय समय को एकदम सटीक गणना कर बताता है। इसी के साथ इन्होने ‘सिद्धांत सम्राट’ पुस्तक लिखी जो खगोलीय उपकरणों, उनके डिजाइन और निर्माण, और अवलोकनों का वर्णन करती है। यह मापदंडों को सही करने और पंचांग तैयार करने में इन अवलोकनों के उपयोग का भी वर्णन करती है। इसमें उल्लेख है कि कैसे जय सिंह, जो पहले धातु से बने खगोलीय उपकरणों (जैसे एस्ट्रोलैब) का इस्तेमाल करते थे, बाद में विशाल बाहरी वेधशालाओं (जैसे जंतर मंतर) का प्रयोग करने लग गए, क्योंकि वे अधिक सटीक थे; वे टूट-फूट और जलवायु के प्रभावों को कम करने के लिए ईंट के बजाय पत्थर और गारे से बने थे। एक ‘यन्त्र प्रकार’ नाम से पुस्तक भी लिखी जो खगोलीय उपकरणों, मापों, संगणनाओं आदि का अधिक विस्तार से वर्णन करती है, और उनके द्वारा किए गए अवलोकनों का भी वर्णन करती है। सम्राट जी की हवेली के पास ही शहर का एक मुख्य सुरक्षा द्वार भी था जिसे आज सभी सम्राट गेट के नाम से जानते हैं।

इतिहासकारों के अनुसार इन्होने भास्कर द्वितीय द्वारा दिए गए त्रिकोणमिति के मापों का सबूत भी दिया था जो अनिवार्य रूप से प्रकृति में ज्यामितीय था, लेकिन दिलचस्प बात यह है कि इसमें त्रिकोणमितीय और बीजगणितीय चरणों के संदर्भ में एक विश्लेषणात्मक प्रक्रिया शामिल थी। जयपुर शहर की एक अनोखी परम्परा रही है राखी के दिन शुभ मुहूर्त में सबसे पहली राखी संत, महंतों और धार्मिक गुरुओं द्वारा राजा को बाँधी जाती थी इस परपम्परा को प्रारम्भ करने वाले भी सम्राट जगन्नाथ रहे हैं। इसका एक परचा सिटी पैलेस के रिकॉर्ड में मिलता है सं 1881 की श्रावणी पूर्णिमा पर महंतों व गुरुओं ने महाराजा सवाई माधो सिंह द्वितीय को वैदिक मंत्रोच्चार के साथ राखी बाँधी। सम्राट के वंशज वैधनाथ ने पहली राखी बाँधी बाद में रत्नाकर पौंड्रिक के वंशज गोविन्द धर के अलावा नारायण गुरु, गंगेश्वर भट्ट, उमानाथ ओझा ने राखी बाँधी।

महाराजा जय सिंह ने इसी प्रकार के असाधारण व्यक्तित्वों को जयपुर में आमंत्रित कर सबसे पहले ब्रह्मपुरी में बसाया और अनेक निजी सिद्ध विद्वानों को भी सम्मानपूर्वक यहाँ भूमि दी गई। ब्रह्मपुरी और इन सभी बातों का विवरण महाराजा सवाई जयसिंह के पुत्र श्री सवाई ईश्वरी सिंह जी के दरबार के कवि कलानिधि श्री कृष्णभट्ट जी के महाकाव्य ‘ईश्वर-विलास’ में मिलता है।

Ishwar Villas/Jaipur Villas

शहर के इस मुख्य स्थान में दो अखाडे भी प्रसिद्ध है बड़ा अखाडा और छोटा अखाडा। अखाडा नाम से प्रतीत होता है की यहाँ अखाड़ों में एक समय पहलवान अपने इष्ट के सामने व्यायाम और पहलवानी का अभ्यास किया करते होंगे परन्तु रंगस्थलों को स्थानीय भाषा में अखाडा कहा जाता था। रंगस्थल अर्थात वह जगह जहाँ नृत्य, संगीत, गायन, अभिनय और अन्य कलाओं का अभ्यास किया जाता है। यहाँ के रंगस्थल बिना किसी झिझक के सामाजिक रूप से अमर्यादित थे जिसमे व्यंग रुपी गली-गलौच का खूब प्रयोग होता था। होली पर यहाँ संगीतमय अभिनय किया जाता रहा है जिसमे अश्लीलता को स्पर्श करते हुए श्रृंगार, व्यंग और यश के खूब ही गीत हैं। कुछ समय पहले तक इन अभिनयों में जिनमे अश्लीलता हुआ करती थी, जिन्हे जयपुर में ‘तमाशा’ कहा जाता है में सिर्फ पुरुष की हुआ करते थे, व्यस्क स्त्रियां उन्हें परदे में से विशिष्ठ स्थान से देखा और सुना करती थी। इन तमाशों को एक ही स्थान पर घूम घूम कर किया जाता है यह बाकि होली के नाटकों जैसे मोहल्ले में टोली बना कर घूम कर नहीं किया जाता है यद्यपि यहाँ एक मंच पर ही घूम घूम कर किया जाता है, यहाँ तमाशे आज विश्व प्रसिद्द है और नाटक की यह विशेष शैली जयपुर की तमाशा शैली के नाम से प्रसिद्ध है।

होली पर होने वाले तमाशे का शीर्षक ‘हीर-राँझा’ है। जिसमे परम्परागत गाने-बजाने के साथ समकालीन राजनीति और समस्याओं पर भी कटाक्ष और व्यंग किये जाते हैं। इन्हे तमाशा कहने का मुख्य कारण यही है की समकालीन समस्याओं, अंधविश्वासों और कुरीतियों पर गहरे कटाक्ष करता आया है। इसमें सभी समस्याओं, अंधविश्वासों और कुरीतियों का तमाशा बना जनजागृति का कार्य किया जाता था। यह तमाशा तैलंग भट्ट परिवार द्वारा किया जाता है जिसमे मूल पत्र हाल में दिलीप भट्ट और तपन भट्ट निभाते हैं।

एक तमाशा बड़े अखाड़े में जोगी – जोगन का हुआ करता था जो अब पूरी तरह से बंद हो चुका है न तो उनके कलाकारों और न ही उनके कथानक का विवरण प्राप्त होता है, सिर्फ इतनी जानकारी प्राप्त होती है की वह विरह भाव का प्रकरण दर्शाया करते थे।

इन सभी आमंत्रित विद्वानजनों में दक्षिण से आमंत्रित किये हुए विशेष द्रविड़ विद्वान् सर्वाधिक थे इन्हे द्रविड़, काथभट्ट या तैलंग भट्ट उपनामों से जाना जाता है। ये सभी वेदों को मानाने वाले और प्रतिदिन अग्निहोत्र करने वाले विद्वान् थे।

ईश्वर विलास कहती है

येन ब्रह्मपुरी कृताऽतिधवलैः कैलासशैलोपमैर्विप्राणां भवनैः सदा समुदयत्संपद्विलसंचितैः।
प्रत्यागारमुरुप्रकारहवनैर्यत्राग्निहोत्राणयभूर्लीलादत्तचतुः पुमर्थपटलीजातादराणी स्फुटं।
श्रियं धत्ते यस्यामधिगिरिशिरः श्रीगणपतेर्गृहं दुराददृश्यम सुखचितमणिभाभिररुणम।
ध्रुवं तस्या एव क्षितिपतिरमन्याः सुरुचिरे ललाटे सिन्दूरैः कलितमिव सौभाग्यातिलकम।

ब्रह्मपुरी में वैदिक, वैष्णव, शैव, शाक्त और स्मार्त विद्वान् वैभव और सुखसमृद्धि से रहते थे। इसी लिए यहाँ थोड़ी थोड़ी दूरी पर इन सभी के मंदिर मिला करते है। इसके उत्तरपश्चिम दिशा में वैष्णव ब्राह्मणों और गोस्वामियों का निवास स्थान था।

पूज्य शुद्धद्वैतसंप्रदाय (दक्षिण) के वैष्णव विद्वान् श्री गोकुलनाथ जी हुए जिनके नाम से गोकुलद्वारा और गोकुलनाथ जी की बावड़ी आज तक है।

Gokulnath Ji ki Bawadi/Kund

इसके उत्तर पूर्व में स्मार्त गुजराती प्रश्नवर ब्राह्मणों को कोठियां (कोठरियां) दी गई जो ज्योतिष, तंत्र और कर्मकांड के प्रकांड विद्वान् थे। इन्ही प्रश्नवर ब्राह्मणो में एक कन्हैयालाल प्रश्नवर थे जिनके पूर्वजों को पुण्डरीक की के स्वप्न में शिव के नए रूप को मिलने और उस शिवलिंग पर मंदिर बनाने के बाद उस विख्यात जाग्रत जागेश्वर महादेव की उपासना की जिम्मेदारी दी गई थी और आज भी वे उसकी उपासना कर रहे हैं। श्री कन्हैयालाल जी की सुन्दर लिपि के कारण उन्हें महाराजा माधोसिंह ने पोथीखाने में हस्थलिखित ग्रंथों का लिपिकार नियुक्त किया था।

Jageshwar Mandir

इन्ही प्रश्नवर विद्वानों में सवाई रामसिंह जी के समय श्री कृष्णलाल शास्त्री प्रश्नवर ‘कान्हजी’ संस्कृत भाषा और दर्शन के प्रकांड विद्वान् थे। इनके बारे प्रसिद्द है की इनका शास्त्रार्थ दयानन्द सरस्वती से हुआ था वे आर्य समाज के संस्थापक थे और कहते थे की वेदों को छोड़ कर अन्य कोई भी ग्रन्थ दार्शनिक रूप से प्रामाणिक नहीं है, उन्होंने मूर्तिपूजा का भी घना विरोध किया था। जब वे सभी राज्यों में और सभी धर्मों में अपने शास्त्र ज्ञान को लेकर जीतते आये थे तब कान्हजी ने उनका विजयरथ रोका था। श्री दयानद ने इनसे प्रश्न किया की ‘कस्वत्वम’ इन्होने उत्तर दिया ‘कृष्णो(अ)हम्’। तत्पश्चात सरस्वती ने व्यंग में कहा था ‘कृष्णत्वं तु न कुतोपिदृश्यते’। उसी समय इन्होने उत्तर दिया “न दयास्ति न चानंदो न च त्वयि सरस्वती। भूयोपि वद कस्मात्वं ‘दयानन्दसरस्वती’।” इसे समझने के लिए थोड़ी पृष्ठभूमि को जानना जरुरी है, जब दयानन्द जयपुर राज दरबार में आये उस समय जयपुर के महाराजा सवाई रामसिंह जी बहुत बड़े शैव भक्त थे और दयानन्द आर्य समाज की स्थापना करने से बाद से सभी बड़े शहरों में शास्त्रार्थ कर सभी को उसमे पराजित करते आये थे और उनका जयपुर आना लाजिमी था क्यूंकि उस समय जयपुर पूरे देश में एक प्रसिद्ध नाम था, जब उन्होंने जयपुर राज दरबार में आकर शास्त्रार्थ की चुनौती दी तब इन्हे बुलाया गया और इनके आने पर दयानन्द ने जब इनसे पूछा की क्स्वत्वं (आप कौन हैं) तब इन्होने अपना परिचय दिया की कृष्णो अहम् (मैं कृष्ण हूँ) तब दयानन्द ने इनके त्वचा से गोरे होने और नाम कृष्ण होने का उपहास कर व्यंगात्मक रूप में कहा की कृष्णत्वं तु न कुतोपिदृश्यते (कृष्ण तो तुम किसी भी प्रकार से नहीं लगते हो) तब उन्होंने इस का उत्तर दिया की न दयास्ति न चानंदो न च त्वयि सरस्वती। भूयोपि वद कस्मात्वं ‘दयानन्दसरस्वती’ (आपमें न दया है क्यूंकि आप सभी जगह लोगो की आस्था और परम्पराओं का खंडन करते आ रहे हो इसी वजह से न ही आपसे किसी को आनंद मिलता है और आपने ज्ञान को न जान मेरे वर्ण पर टिपण्णी की है इसलिए आपमें सरस्वती का होना भी प्रतीत नहीं होता है तो फिर आप दयानन्द सरस्वती कैसे हो गए) दयानन्द यह सुन निरुत्तर हो गए और उन्होंने शास्त्रार्थ समाप्त किया। इसके पश्चात दयानन्द अजमेर चले गए और वहां उन्होंने अपने जीवन से अंतिम क्षण गुजारे क्यूंकि एक षडयंत्र से वहां उनकी मृत्यु हो गई। कान्हजी जयपुर के तमाशों के भी बहुत शौकीन थे इनके द्वारा रचित अनेक गीत आज भी तमाशों में गए जाते हैं। वे ढूंढाड़ी (स्थानीय भाषा) के साथ साथ पंजाबी में भी गीत बनाया करते थे। वे विशेषकर गीतियाँ लिखा करते थे।

A Beautiful Haveli with Murals

प्रश्नवर विद्वानों की सूचि और उनका जयपुर के इतिहास में योगदान अतुलनीय है आज भी वे लोग जयपुर के प्रशासन, संगीत, संस्कृत और हिंदी भाषा के साहित्य और व्याकरण की बागडोर संभाले हुए है, श्री कन्हैयालाल प्रश्नवर की पौत्री श्रीमती ड़ॉ चेतना पाठक आज जयपुर के संस्कृत महाविद्यालय में प्रोफेसर है।

कृष्णलाल शास्त्री प्रश्नवर के वंश में आगे संस्कृत विद्वानों का बाहुल्य रहा है उन्ही के वंशज श्रीमान गिर्राज प्रसाद शर्मा जयपुर के विद्यालयों में संस्कृत और व्याकरण के आचार्य रहे हैं, इनकी भाषा में और साहित्य में रुचि के कारण ये सूर होते हुए भी अनेक संस्कृत ग्रंथों और श्रीमद्भागवत गीता को कंठस्थ किये हुए है और प्रतिदिन दोहरान करते रहते है।


इन्ही में प्रशासन के क्षेत्र में स्व श्री नृसिंह प्रसाद भट्ट, स्वतंत्र भारत में भारतीय प्रशासनिक सेवा के उच्च अधिकारी रहे हैं।

इन्ही में व्याकरणाचार्य श्री मदनलाल प्रश्नवर के पौत्र श्री विनोद पंड्या, स्वतंत्र भारत में भारतीय प्रशासनिक सेवा के उच्च अधिकारी रहे हैं।


इन्ही में व्याकरणाचार्य श्री मदनलाल प्रश्नवर के पौत्र श्री सुमंत पंड्या, राजस्थान के सबसे पुराने और एक मात्र महिला विश्वविद्यालय में राजनीति शास्त्र के प्रोफेसर रहे हैं।


हिंदी भाषा के प्रश्नवर विद्वानों में स्व श्री विष्णु चंद्र पाठक बहुत प्रसिद्ध हुए वे भी जयपुर के महाविद्यालयों और विश्वविद्यालयों में हिंदी भाषा के प्रोफेसर रहे और उन्हें बृजभाषा अकादमी का अध्यक्ष भी बनाया गया।


इन्ही में संगीत के क्षेत्र में श्रीमती अनुसूया पाठक राजस्थान विश्वविद्यालय में संगीत विभाग की प्रोफेसर और अध्यक्षा रही हैं, इनकी पुत्री श्रीमती ऐश्वर्या भट्ट आज राजस्थान के सबसे पुराने और एक मात्र महिला विश्वविद्यालय में संगीत विभाग में प्रोफेसर है।

इन्ही लोगों में और नाम श्री मूलचंद पाठक, पद्मा पाठक हिंदी व दर्शन के विशेषज्ञ रहे हैं

मदनलाल प्रश्नवर के प्रपोत्र श्री रोहित पंड्या सर्जन हैं।

नाम अनेक हैं परन्तु उन सभी के बारे में बात कभी और क्यूंकि प्रश्नवरों के वंशजों के योगदान पर एक पूरी पुस्तक लिखी जा सकती है।

चूँकि गुजराती विद्वान् बहुत ही ज्ञानी स्मार्त कर्मकांडी रहे है अतः ब्रह्मपुरी के अधिकतर मंदिरों की उपासना और रखरखाव इन्ही के वंशजों के पास है जिनमे से कुछ प्रमुख मंदिर है जिनके प्रश्नवर उपासक है जागेश्वर महादेव, वीर हनुमान, बड़े अखाड़े और छोटे अखाड़े के हनुमान, प्रश्नवरों की बावड़ी के हाटकेश्वर महादेव

Jageshwar
Hanuman Ji (Bada Akhada)
Hatkeshwar Mahadev
Veer Hanuman

जयपुर के विश्वप्रसिद्ध वैष्णव मंदिर गोविन्द देव जी के मुख्य उपासक गोस्वामी है यह गोविन्द देव मंदिर जय निवास उद्यान में है और आज क्षेत्र विस्तार के कारण यह भी कुछ हद तक ब्रह्मपुरी में ही माना जाता है। इसी प्रकार ताल कटोरा और चौगान भी ब्रह्मपुरी में ही गिने जाने लगे है। शाक्तों के मंदिरों में मंगला माता मंदिर है।

Mangla Mata

सिटी पैलेस के पास में ही गोविन्द देव के मंदिर के बाहर एक समय जिस स्थान पर जयपुर रियासत से किसान अन्न, सब्जियां और फल-फूल लेकर दरबार को बेचते थे वह स्थान जयपुर की सबसे पुरानी मंडी हुआ करता था और लिगेसी को आज भी रखते हुए उसी स्थान पर आज भी सब्जी, फल और फूल की मंडी है। फूलों की तो यह शहर की एकमात्र मंडी है। यह स्थान जय सिंह के दरबारी रहे राजमल के आवास के निकट के तालाब (जिसे राजमल का तालाब कहा जाता था) और पैलेस के बीच है। राजमल के तालाब के सूखने के बाद उसे पाट कर काफी समय पहल-से वहां कँवर नगर और सिंधी कॉलोनी बना दी गई है।

Sabji Mandi/Vegetable Market
Fool Mandi/Flower Market
Flower Market with Tourists

ब्रह्मपुरी चूँकि विद्वानों और ब्राह्मणो का निवास स्थान रहा है अतः इसमें हमेशा से ही सभी के घरों में मंदिर रहे हैं और उन्ही में से सबसे प्राचीन और जाग्रत मंदिरो के नाम से वहां के स्थानों और बाज़ारों के नाम है जैसे जागेश्वर महादेव बस स्टैंड जिसे ब्रह्मपुरी बस स्टैंड भी कहा जाता है, सीताराम बाजार, वीर हनुमान चौक या रेवती चौक, छोटा अखाडा, बड़ा अखाडा, शंकर नगर। यह सभी विद्वान् जब रोज सुबह मंदिर जाते थे तो पहले उस मंदिर की बावड़ी या कुंड में स्नान करते थे इसलिए पूरी ब्रह्मपुरी में हर मंदिर के साथ कुंड हुआ ही करते थे। उनमे से एक कुंड है कदम्ब कुंड, गढ़ गणेश और नाहरगढ़ की खोळ में बना यह कुंड इसके किनारे उगे हुए कदम्ब के वृक्षों से पहचाना जाता है। ब्रह्मपुरी के उत्तर पश्चिम किनारे में नाहरगढ़ की तलहटी में है राजपरिवार का अंतिम संस्कार का स्थान जिसे स्थानीय भाषा में गयों की ठोर या गैटोर कहा जाता है यहाँ महादेव गैटेश्वर नाम से विराजते है और तैलंग भट्टों का शिवरात्रि पर पूरी रात गाने बजाने, ध्रुवपद और भजनो का कार्यक्रम चलता है।

आज ये अधिकतर पुरानी हवेलियां जिनमे पहले वैभव और सौंदर्य बरसता था, सार-संभल के आभाव में जीर्ण-शीर्ण हालत में पड़ी है उनमे से काफी तो अब खत्म हो हवेली के क्षेत्रफल में कॉलोनीया बन चुकी है। जगह की कमी के चलते अधिकतर कुंडों को मिटटी भरके पाट दिया गया है। सिर्फ कदम्ब वृक्ष वाला कदम्ब कुंड बचा है जिसको लेकर हर साल सफाई अभियान चलते है पर हर साल वह फिर से गंदगी से भर जाता है और तो और वहां शाम को असामाजिक तत्वों का जमावड़ा भी समय के साथ बढ़ता जा रहा है

Kadamb Kund

गोकुलनाथ के कुंड में कीचड़ और काई भरी है, मंदिरों के सभी कुंड समाप्त है बस कुएं बचे है।

ब्रह्मपुरी जो पहले एक छोटी चौकड़ी भर थी, आज गणगौरी बाजार के समाप्ति (जहाँ पहले छोटा और बड़ा तालाब हुआ करते थे, इन तालाबों को मिट्टी से भर कर इन पर भी कॉलोनियां बना दी गई है) तक से रामगढ मोड़ तक उसकी सीमा है। कँवर नगर, शंकर नगर, कागड़ीवाड़ा, मोहन नगर और भी अनेक नई कॉलोनियां बन चुकी है और ब्रह्मपुरी में मिल चुकी है। गढ़ गणेश के पहाड़ की तलहटी की नहर पूरी तरह खत्म हो चुकी है अब बारिश का पानी रोड पर बहता है और घरों में घुसता है। नहर की महत्वपूर्णता इसी से समझी जा सकती है की जो लोग गढ़ गणेश नहीं जा सकते थे उनके लिए नीचे नहर के गणेश नामक मंदिर बनाया गया, इसको नाम ही नहर का दिया गया है।

Nahar ke Ganesh Ji

सम्राट जी की हवेली अब बची ही नहीं है जो कुछ अवशेष उसके बचे है उसमें 1967 में एक संस्कृत कॉलेज बना दिया गया था। अब सम्राट जी की हवेली के बचे-कुचे अवशेषों में संस्कृत पढाई जाती है।

Sanskrit College in the remnants of Samrat Haveli

आज सम्राट जी का वंश खत्म हो चुका है और उनका कुछ खास विवरण प्राप्त नहीं होता है।

ब्रह्मपुरी हमेशा से विद्वानों की बस्ती रही है हर क्षेत्र के विशेषज्ञ यहाँ रहा करते थे और अभी भी है, जब भी जयपुर आइयेगा तो एक चक्कर ब्रह्मपुरी का लगाना तो बनता है और यह देखना अपेक्षित है की जयपुर का सबसे पुराना इलाका आज कैसा लगता है और समय बिताने के लिए यहाँ के लोगों से मिलकर जानिएगा भारतीय दर्शन, संस्कृति और परम्परों के बारे में, जयपुर की स्थापना और विकास के किस्से और समय व्यतीत करने के लिए सुनिएगा चुड़ैलों, भूत-प्रेतों, तांत्रिकों और चमत्कारों की मनोरंजक कहानियां। यहाँ घूमने के लिए कुछ ज्यादा जगह बची नहीं है फिर भी आप सभी हिस्सों और उसकी कहानियों को सुनकर इसे तीन दिन में भी पूरा नहीं कर पाएंगे। पूरी ब्रह्मपुरी में एक भी ऐसी जगह नहीं है जिसकी कोई लिगेसी न हो, किसी दिन आइये और इन पुरानी जगहों में से किसी भी एक जगह शाम को बैठ कर सोचिये की कैसे ब्रह्मपुरी ने समय को गुजरते हुए देखा है और आज भी कहीं न कहीं अपना अस्तित्व बचाये हुए है

विशेष टिपण्णी: यहाँ ब्राह्मण शब्द का संकुचित अर्थ न निकालें, यहाँ यह शब्द किसी जाति विशेष का सूचक न हो कर हर उसका प्रतिनिधित्व करता है जो ब्रह्म को जानता है , जीवन के अर्थ को जानता है या जानना चाहता है।

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Pundarik’s Haveli and Pondrik Park

When you go towards Bramhapuri from Choti Chopad or return to Choti Chopad from Bramhapuri/Gaitore then on the right and left side respectively an old heritage haveli comes in the way. The Haveli, which looks very simple from the outside, was once the residence of the most prominent man from the city. The spread of this Haveli was in a whole quartet and if such an important person used to live in this Haveli built in a little less area than Chandramahal in the north of the Palace, then, why it shouldn’t be immense. There were gardens, temples, big squares, big kitchens, courts, everything in this Haveli were very royal and lavish.

This important person was The Ratnakar Pondrik. The Ratnakar Pundarik was a literary scholar, philosopher, mystic, multi-linguist, theologian and expert of other Vedic Yagna and Guru of Maharaj Sawai Jai Singh.

Shree Ratnakar Pundarik

Ratnakar Pundarik was said to be from Bengal others believe that he was Maharashtrian. His real name was Ratnakar Bhatt. He had come to Banaras for his mastery and advance studies in Astrology, Tantra and Philosophy. Where he met Jai Singh, he was very impressed with his absolute knowledge in Astrology, Scriptures, Tantra and brought him to Amer/Amber. Then he made him Rajpurohit and his Guru. The Jai Singh had bestowed him with the title of Pundarik. The word Pundarika means one who is white. In the Sankhya Philosophy, the ‘Sat’ form of nature is white, so Pundarika means one who is a complete ‘Sat’, purest in the pure, white like the white lotus flower and is equally bright.

Maharaja Jai ​​Singh had done the ritual of Vajpeya Yagya under the guidance of the Ratnakar Pundarik that Yagna held in Amer in the Samvat-1765 the year was 1708. Shri Ratnakar conducted the famous Pundarika Yagna. Although Shri Ratnakar performed many yagna from time to time which he has mentioned in his book, his ambitious plan was that Maharaj Sawai Jai Singh must perform Ashwamedh Yagna before that Maharaja Sawai Jaisingh died in 1743. He then planned this yagna with the son Sawai Ishwari Singh, then Ratnakar Pundarik died in Samvat-1777, this yagna could not be completed in his presence. Later on, the Sawai Ishwari Singh had to invite many other scholars to wish for the completion of the Ashwamedha Yagya, scholars again performed Agnihotra that is how yagna was completed, among these invited scholars there were Gujarati Prashanvar and Audichya Panchadravid Brahmins (our ancestors) too. The details of Sarvamedha, Purushamedha, Somayoga and Rajasuya Yagna were found during their time.

Jaisingh-Kalpadrum

According to the limited data available about Ratnakar, he composed a Sanskrit Kavya named Jai Singh Kalpadrum describes the lineage of Sawai Jai Singh with the description of Suryavansh. It also includes astrology, astronomy, astrological and astronomical calculations with the movement of planets, determination of the Tithis (Dates), Vaars (Days), Nakshatras (Constellations) and formation of Rashi (Zodiacs). It also includes determination of the timings of all the Hindu Festivals, their Tithi and Vaar, the Adhik Mass (Concept of Hindu Calander), decrement and increment in Hindu Tithis, the movements of the Sun and the Moon and the many other Siddhis and Worship of the Goddess. That is a hand-written scripture and many of such preserved by me in the form of manuscripts. To check the original manuscript permission has to be taken from the Pothikhana or the Directorate of the State Library.

It is said about the routine of the Pundarik that when he lived in Amber, he used to visit God of Amber/Ambika Van, Ambikeshwar, after bathing. This routine followed even when he was in the newly settled city of Jaipur; living in his new Haveli, he did not even take food without worshipping Ambikeshwar daily.

Shree Ambikeshwar Mahadev Temple

A legend also says that in old age when it became not possible for him to visit the Ambikeshwar, then he had given up the food. In this condition of the devotee, The Mahadeva appeared to him in a dream, told him about a place where they were grounded near his Haveli. The next morning, when the place identified has excavated, and awakened Swayam-Bhu Shivling was present there. The temple was built there and from that moment he started taking food after worshipping that awakened Swayam-Bhu Jageshwar Mahadev. From the time of construction of the temple, the scholar Gujarati Praswanavar Brahmin family was entrusted with the task of maintaining and worshipping that temple and they are doing the same work even today. Both Jageshwar and Ambikeshwar Shivling are Swayam-Bhu by visiting these temples, one can see the marks of injury caused by excavation on Shivlings and remnants of mountains.

Shree Jageshwar Mahadev Temple

Sawai Jai Singh had decorated the Paundrik’s Haveli according to his Chandra mahal. As the 18th century’s Jaipur style frescoes, metal-painting work can be seen in Chandramahal, similarly can be seen in the Pondrik’s Haveli. The entire Haveli of the Pondrik drawn with murals with many natural and human scenes. These scenes include the Royal Court, Gangaur-Teej fairs, pictures of Court Activities, Holi-Deepawali Celebrations, Army Movements and Battle Scenes, scenes from various parts of the Palace, Musicians, Court Concerts, Maharajas with his Queens sitting on the Throne, pictures of Vrindavan, Raas Leela, pictures of Maharaja Jagat Singh with Ras Kapoor, some Intimate Scenes. It also has Mango, Neem, Ber, Khejri, Peepal, Banyan Trees, Flowers and Fruit trees, plants and vines. The garden of the Haveli was elegant and artistic, in which frescos were in many Chhatris. This park was only a fence away from the Taal Katora. Pundarik had a pretty good and pleasant residence, after him, his sons and grandsons have experienced that happiness a lot.

The present remains of this Haveli now declared as a National Protected Monument. They are only the southwest part of a much larger residential complex. It is a double-storeyed building with small rooms inside. The building is famous for the frescoes on the upper storey, which depict the musical gatherings of the royal court, the festivals and fairs of Gangaur-Holi, Army Exodus and Royal Processions.

Today the southwest part of this Haveli has been preserved by the Archaeological Survey of India. The remaining has become a colony but still, Pondrick Park is somehow alive. Which has become a public park, the frescos of its cenotaphs are finished today. Now the situation is that the Municipal Corporation Jaipur Heritage is now going to make it underground parking, against which petitions are being filed in the High Court and it is being completely opposed.

The Remnants of Paundrik Haveli

To visit Paundrik Haveli one has to take permission form the Directorate of Archeological Survey of India, Jaipur Circle.

If you want to know more or want me to elaborate more about the Jaipur School of Frescos and Mural, please let me know!

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Pundarik Ji ki Haveli and Pondrik Park

जब आप छोटी चौपड़ से ब्रम्हपुरी की ओर या सूरखुड्डी से अंदर ही अंदर ब्रम्हपुरी आते हो तो जागेश्वर महादेव या ब्रम्हपुरी बस स्टैंड से पहले दाएं हाथ और गैटोरे या नहर के गणेश से छोटी चौपड़ जाते हो जागेश्वर महादेव के बाद बाएं हाथ को एक बंद पड़ी हवेली देखने को मिलती है जो आमतौर पर ताला लगे बंद पड़ी रहती है। बाहर से बड़ी ही साधारण दिखने वाली ये हवेली एक समय शहर से सबसे मुख्य आदमी का निवास स्थान हुआ करती थी। इस हवेली का फैलाव एक पूरी चौकड़ी में हैं और हो भी क्यों न आखिर इतना महत्वपूर्ण व्यक्ति महल के उत्तर में चंद्रमहल से बस कुछ ही छोटे क्षेत्रफल में बनी हवेली में रहता था, इस हवेली में बाग़, मंदिर, बड़े-बड़े चौक चौबारे सब कुछ बहुत ही बढ़ चढ़कर थे।

यह महत्वपूर्ण व्यक्ति थे रत्नाकर पोंड्रिक, यह रत्नाकर जी पुण्डरीक साहित्याचार्य, दार्शनिक, तांत्रिक, मंत्रशास्त्री, अन्यान्य भाषाविज्ञ, धर्मशास्त्रज्ञ तथा अन्य कतिपय वैदिक याग-विशेषज्ञ एवं महाराज सवाई जयसिंह के गुरु थे।

Shree Ratnakar Pundarik Ji

मूलतः रत्नाकर पुण्डरीक के बारे में कहा जाता है की वे बंगाल से थे और कुछ मत कहते है की वे महाराष्ट्रियन थे। उनका वास्तविक नाम रत्नाकर भट्ट था, वे ज्योतिष, तंत्र और दर्शन में अपना विशिष्ट और अग्रिम अध्ययन करने बनारस आये थे जहाँ जयसिंह से उनकी मुलाकात हुई और वे उनकी ज्योतिष, शास्त्र और तंत्र की उत्कृष जानकारी से प्रभावित हो उन्हें आमेर ले आये थे फिर उन्होंने उन्हें राजपुरोहित व अपना गुरु बना लिया। जयसिंह जी ने ही उन्हें पुण्डरीक की उपाधि प्रदान करी थी। पुण्डरीक शब्द का अर्थ है जो श्वेत है सांख्य दर्शन में प्रकृति का सत रूप श्वेत है अतः पुण्डरीक का अर्थ हुआ वह जो पूर्णतः सत है जो पूर्णतः पवित्र है, जो कमल के सफ़ेद फूल की तरह श्वेत है और उसी की तरह पवित्र भी है।

महाराजा जयसिंह ने वाजपेय यज्ञ का अनुष्ठान इन्ही से करवाया था और वह यज्ञ सम्वत 1765 सन 1708 में आमेर में हुआ था। इसके पश्चात् श्री रत्नाकर जी ने सुप्रसिद्ध पुण्डरीक यज्ञ किया था। यूँ तो श्री रत्नाकर जी ने समय-समय पर अनेक यज्ञ किये जिनका उन्होंने स्वयं उल्लेख किया है, उनकी महत्वकांक्षी योजना थी की महाराज सवाई जयसिंह अश्वमेध यज्ञ करें परन्तु उनका देहांत सम्वत 1777 में ही हो गया था। अतः यह यज्ञ इनकी उपस्थिति में पूर्ण न हो सका। अश्वमेध यज्ञ की सम्पन्नता की कामना के लिए महाराज को अनेक अन्य विद्वान् बुलाने पड़े तत्पश्चात यह यज्ञ पूर्ण हो पाया इन सभी विद्वानों ने पुनः अग्निहोत्र किये इन्ही आमंत्रित विद्वानों में गुजरती प्रश्नवर और औदीच्य पञ्चद्रविड़ ब्राह्मण (हमारे पूर्वज) भी थे। इनके समय में सर्वमेध, पुरुषमेध, सोमयोग तथा राजसूय यज्ञ होने का विवरण मिलता है।

Jaisingh-Kalpadrum

रत्नाकर के बारे में उपलब्ध जानकारी के अनुसार उन्होंने जयसिंह कल्पद्रुम नाम के काव्य की रचना की जिसमे सवाई जयसिंह के वंश के वर्णन के साथ सूर्यवंश का वर्णन, ज्योतिष और ज्योतिषीय गणनाओं जिनमे ग्रहों की गति, तिथि, वार, नक्षत्रों, राशियों के बनने, त्योंहारों और सभी पर्वों के समय के निर्धारण, उनके तिथि और समय निर्णय, अधिक मास, तिथियों के घटने बढ़ने, सूर्य चन्द्रमा की गतियों व देवी की अनेक सिद्धियों और आराधना के बारे में लिखा गया है। यह एक हस्त लिखित शास्त्र है और इस प्रकार के अनेक हस्तलिखित शास्त्र पाण्डुलिपि के रूप में मेरे पास संकलित है, इन सभी के वास्तविक रूप के लिए पोथीखाना अथवा राजकीय पुस्तकालय के निदेशालय से अनुमति लेनी होती है।

पुण्डरीक जी की दैनिक दिनचर्या के बारे में कहा जाता है की वे जब आमेर रहते थे तब से ही नित्य स्नान के बाद अम्बिका वन या आम्बेर के ईश्वर अम्बिकेश्वर के दर्शन करने जाया करते थे यह नियम उनका तब भी चला जब वे नए बसे शहर जयपुर में अपनी नयी हवेली में रहने लगे, बिना अम्बिकेश्वर जी के दर्शन करे वे अन्न ग्रहण भी नहीं करते थे।

Shree Ambikeshwar Mahadev Temple

एक जनश्रुति यह भी कहती है की जब वृद्धावस्था में उनसे अम्बिकेश्वर जी के दर्शन करने जाना संभव नहीं हो पाया तब उन्होंने अन्न का त्याग कर दिया था अपने भक्त की यह स्थिति देख कर महादेव ने उन्हें स्वप्न में दर्शन दे अपने उनकी हवेली के पास ही स्थित होने का व उस स्थान के बारे में बताया जहाँ वे विराजमान हैं, अगले दिन सुबह जब उनकी बताई जगह पर खोजा गया तो एक जाग्रत स्वयंभू शिवलिंग वहां विद्यमान था और उसी स्थान पर मंदिर का निर्माण किया गया उस समय से वे उस जाग्रत स्वयं-भू जागेश्वर महादेव के दर्शन कर अन्न ग्रहण करने लगे। मंदिर निर्माण के समय से ही विद्वान् गुजराती प्रश्नवर ब्राह्मण को उस मंदिर का रख-रखाव व पूजा अर्चना करने का कार्य सौंपा गया व वह आज भी वही कार्य कर रहे हैं। जागेश्वर व अम्बिकेश्वर दोनों ही शिवलिंग स्वयंभू है इन मंदिरों की यात्रा कर शिवलिंगों पर खुदाई से होने वाली चोट के निशान व पर्वतों के अंश देखे जा सकते हैं।

Shree Jageshwar Mahadev Temple

पौंड्रिक जी की हवेली को सवाई जयसिंह ने अपने चंद्र-महल के अनुसार ही सजाया था। जिस प्रकार चंद्रमहल में 18 वी सदी के जयपुर शैली के भित्ति चित्र, धातु से रंगाई के कार्यों को देखा जा सकता है उसी प्रकार पोंड्रिक जी की हवेली में भी इनसभी को करवाया गया था। पौंड्रिक जी की पूरी हवेली ही इन भित्ति चित्रों से भरी हुई है, जिनमे अनेक प्राकृतिक और मानवीय दृश्यों को दिखाया गया है। इन दृश्यों में शाही दरबार, गणगौर-तीज के मेले, दरबारी गतिविधियों के चित्र, होली-दीपावली उत्सव, सेना के आवागमन और लड़ाइयों के दृश्य, महल के अनेक हिस्सों के दृश्य, संगीतज्ञ, दरबार की संगीत सभा, महाराजा और उनकी रानियों के सिंहासनारूढ़ चित्र, वृन्दावन के चित्र, रास लीला, महाराजा जगत सिंह के रस कपूर के साथ चित्र, कुछ अंतरंग दृश्य बनाये हुए हैं, साथ ही आम, नीम, बेर, खेजड़ी, पीपल, बरगद के पेड़, अनेक फूलों और फलों के पेड़-पौधे-बेलें। तुलसी, अश्वगंधा, गूलर, बबूल, शतावरी आदि आयुर्वेदिक पौधे के चित्र, अनेक जानवरों व पक्षियों के चित्र सभी कुछ उस हवेली में बना हुआ था। हवेली का उद्यान बड़ा ही सुन्दर था जिसमे भी अनेक छतरियों में भित्ति चित्र बनाये गए थे। यह उद्यान ताल कटोरे से सिर्फ एक पाल भर ही दूर था। बड़ी ही उत्तम और सुख निवास हवेली थी पुण्डरीक जी की, उनके पश्चात उनके पुत्र और पौत्रों ने उस सुख को बहुत भोगा है।

इस हवेली के वर्त्तमान अवशेष जो अब राष्ट्रीय संरक्षित स्मारक के रूप में घोषित है। वस्तुतः वे एक बहुत बड़े आवासीय परिसर का केवल दक्षिण पश्चिम भाग है। यह एक दोमंजिला भवन है जिसके अंदर छोटे छोटे कक्ष है। यह भवन ऊपरी मंजिल पर बने हुए भित्ति चित्रों के लिए प्रसिद्ध है जिसमे राजकीय दरबार की संगीत की महफ़िल, गणगौर-होली के पर्व और मेले, सेना के पलायन और राजसी जुलुस के चित्र बने हुए हैं।

Flower Hazes, The Famous Art of Block Print is somewhere inspired through this

आज यह हवेली का जो दक्षिण पश्चिम भाग है उसे पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग ने संरक्षित किया हुआ है, बाकी का हिस्सा आज ख़त्म होके कॉलोनी बन चुका है और पोंड्रिक पार्क अभी भी है जो की एक पब्लिक पार्क बन चुका है उसकी छतरियों की फ्रेस्कोस आज खत्म हो चुकी है, अब तो हाल ये है के नगर निगम जयपुर हेरिटेज अब इसे एक भूमिगत पार्किंग बनाने जा रहा है जिसके खिलाफ हाई कोर्ट में याचिकाएं दायर की जा रही है और उसका पूर्ण रूप से विरोध किया जा रहा है।

The Remnants of Paundrik/Pondrik Haveli

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Narsingh Chaturdashi

नृसिंह जयंती वैशाख माह के शुक्ल पक्ष की चतुर्दशी को मनाई जाती है, पुराणों में विष्णु पुराण में सतयुग की एक कहानी है जिसके अनुसार ऐसा माना जाता है की इस दिन भगवन विष्णु अपने भक्त प्रह्लाद जिसे अपने पिता हिरण्यकश्यप से मृत्युदंड मिलने के बाद जिस समय उसे दंड दिया जा रहा होता है उस समय वे खम्ब फाड़ नृसिंह अवतार ले प्रकट होते हैं, और अपने भक्त प्रह्लाद को बचा आतातायी राजा और उसके पिता हिरण्यकश्यप को मार पृथ्वी को उसके अत्याचारों से बचाते हैं। इस कहानी का पूर्वार्ध यह है की हिरण्यकश्यप नाम के असुर होते हैं वे अनेक वर्षों तक भगवान ब्रम्हा की कठिन आराधना कर उनसे अमर होने का वरदान मांगते है, जिसे देने में ब्रम्हा अपनी असमर्थता व्यक्त करते हैं और उसे कुछ दूसरा वरदान मांगने को कहते है, हिरण्यकश्यप अपनी बुद्धि का इस्तेमाल कर उनसे कुछ इस प्रकार का वरदान मांगते हैं की कोई उसे न तो कोई दिन में मार सके न रात में, न अस्त्र से न शस्त्र से, न ही आकाश में न धरती पर, न ही कोई मनुष्य और न ही कोई जंतु, न घर के अंदर न बाहर। इस प्रकार का वरदान पा वे अपने को एक तरह से अमर समझ कर अत्याचार करना शुरू कर देता और और इस वरदान के कारण उसे कोई मार भी नहीं पाता और वह समग्र पृथ्वी को जीत लेता है।

18 Century Painting depicting Hiranyakashipu killing his son Prahlada

अमर समझने के कारण वह अपने को भगवान घोषित कर देता है व सभी प्रकार की पूजा अर्चना पर प्रतिबंध लगा अपनी प्रजा को स्वयं की पूजा करने को कहता है, परन्तु उसका पुत्र प्रह्लाद ही विष्णु का बहुत बड़ा भक्त होता है और जब यह बात हिरण्यकश्यप को पता चलती है तो उसे अनेक प्रकार से समझाता है की वह भी विष्णु को छोड़ अपने पिता की पूजा करे व उसके न मानाने पर अनेक प्रकार से दंड देता है इसी क्रम में वह अपनी बहन होलिका जिसे न जलने का वरदान प्राप्त था के साथ प्रह्लाद को जलने के लिए भी भेज देता है परन्तु हर बार जिस प्रकार उसे विष्णु बचाते हैं उसी प्रकार इस बार भी विष्णु की कृपा से होलिका जल जाती है और प्रह्लाद बच जाता है।

इसी क्रम में आगे हिरण्यकश्यप अपनी आत्ममुग्धता और अमर होने के घमंड के कारण अपने पुत्र को मृत्युदंड देता है, और भगवान नृसिंह का अवतार ले प्रकट होते हैं, श्री ब्रम्हा के वरदान की रक्षा करते हुए व हिरण्यकश्यप को मारने के लिए विष्णु उसके द्वारा मांगे हुए वरदान को अपूर्ण बताते हुए आधा नर और आधा सिंह का रूप लिए अवतरित होते हैं, उसे संध्या के समय द्वार की दहलीज पर बैठ कर अपनी गोदी में रख सिंह की तरह अपने लम्बे नाखूनों से उसका वध कर देते हैं व प्रह्लाद को धरती का राजा घोषित कर देते हैं जो पृथ्वी पर पुनः सौहाद्र की स्थापना करते है।

Narsingh/Narsimha and Hiranyakashipu Fight

उनका पुत्र विरोचन भी बड़ा प्रतापी राजा होता है परन्तु ऐसा कहा जाता है की असुर जाति, अपने स्वाभाव व क्षीण बुद्धि के कारण वह अपनी शिक्षा को गलत रूप में ले लेता है और उस समय पूजा में देव के मूर्ति के आत्मिक स्वरुप की जगह देव के मूर्त रूप को पूजने लगता है और उसी प्रकार की शिक्षा को आगे बढ़ावा देता है और ऐसा माना जाता है की उसी समय से लोगो ने भी मंदिर में मूर्ति के आत्मिक स्वरुप का दर्शन करने के बजाए उनके बनावटी रूप को देखना शुरू कर दिया।

Narsimha/Narisngh killing Hiranyakashyapu, Halebidu, Karnataka

राजा विरोचन का पुत्र राजा बलि भी बहुत प्रतापी हुआ उसने पृथ्वी के साथ साथ पुरे ब्रम्हांड को ही जीत लिया था जिसे बाद में विष्णु ने ही वामन अवतार ले समग्र संसार व स्वयं उसे दान में मांग कर सम्बंधित लोगों को पुनः दिया व राजा बलि को पाताल लोक का राजा बना अमर होने का वरदान भी दिया।

Left to Right Vamana, Raja Bali, Shukracharya and Raja Bali
Painting for Mankot, Jammu and Kashmir (1700-25)

जयपुर शहर में रियासत काल से ही नृसिंह जी की लीला को आम लोगो के मनोरंजन के लिए आयोजित किया जा रहा है। इन आयोजनों में
नृसिंह जी के खम्ब फाड़ प्रकट होने से लेकर हिरण्यकश्यप को मारने और प्रह्लाद को राजा बनाने तक के प्रकरण को स्थानीय लोगों द्वारा दिखाया जाता है। यह कार्यक्रम आजकल के नुक्कड़ नाटक शैली की तरह सडकों पर इधर उधर आ जा कर किया जाता रहा है, शहर के सभी मुख्य शिव मंदिरों से पास के किसी और प्रसिद्ध मंदिर तक यह नृसिंह जी की सवारी निकलती है। शिव मंदिर से भगवान का रूप लिए कलाकार खम्बा फाड़ कर निकलता है और सभी उनके साथ दूसरे स्थान या मंदिर तक जाते है इस बीच रास्ते में अनेक लोग उनका दर्शन करते हैं, भोग लगते हैं, आशीर्वाद लेते है और वह व्यक्ति सिंह की भांति रास्ते पर मदमस्त सा चलता जाता है उसी के साथ कुछ साथी उसे रास्ते का भान करवाने, उसके जाने का रास्ता खाली करवाने, भीड़ की तरफ से लेकर जाकर हंगामा करने वाले और एक उसके साथ उसे वेशभूषा के करना लगने वाली गर्मी में हवा देने का काम करते हैं। इस प्रकार वह पूरे रास्ते लोगों का मनोरंजन करते हुए अपने अंतिम गंतव्य की और अग्रसर होता है और अंतिम स्थान पर उसकी लड़ाई हिरण्यकश्यप से होती है वह नाटक में उसका द्वार की दहलीज पर नाखूनों के उसका वध करते हैं और प्रह्लाद को राज गद्दी प्रदान करते हैं। इस प्रकार से नृसिंह चतुर्दशी के दिन पूरे शहर में संध्या पश्चात् इस प्रकार के सामाजिक सहयोग से कार्यकर्म आयोजित किये जाते रहे हैं इन कार्यक्रमों में पहली बार अवरोध इस कोरोना काल में ही आया है।

narsingh leela
Narsingh Leela

नृसिंह लीला को आयोजित करने वाली कुछ प्रमुख स्थल हैं :-
1 ताड़केश्वर महादेव, चौड़ा रास्ता
2 जागेश्वर महादेव, ब्रम्हपुरी
3 झारखण्ड महादेव, वैशाली नगर
4 चांदपोल बाजार, चांदपोल
5 नृसिंह मंदिर, पुरानी बस्ती
6 नाहरगढ़ रोड
7 गोपीनाथ मंदिर, पुरानी बस्ती
8 नींदड़ राव जी का रास्ता, चांदपोल
9 गोपालपुरा बाईपास, त्रिवेणी नगर
10 चांदी की टकसाल, सुभाष चौक
11 खजाने वालों का रास्ता, चांदपोल बाजार

इस प्रकार शहर के सभी मुख्य रास्तों में नृसिंह जी की सवारी निकलती है, और पूर्व निर्धारित स्थानों या मंदिरों में जाकर लीला का समापन होता है।

यह लीला बुराई पर अच्छी की जीत और भक्तों की रक्षा भगवान हमेशा करते हैं के सन्देश देने वाली पुराणों की कथाओं को जन जन तक पहुंचने का बहुत सुन्दर और मनोरंजक माध्यम हैं।
यह बड़ा ही मनोरंजक कार्यक्रम होता है चप्पे-चप्पे पर लोग जमा होते हैं और भजन गाते हैं, मिठाइयां और प्रसाद बांटे जाते हैं। यह पूरा कार्यकर्म लगभग 30 मिनट से 45 मिनट तक चलता है और उसके बाद जिसकी इच्छा हो वह मंदिर में भजन कार्यक्रम में हिस्सा ले सकता है ।

नृसिंह चतुर्दशी का यह कार्यक्रम आज भी सतत रूप से जारी है और जनता का कार्यक्रम में उत्साह से भाग लेना देखते ही बनता है यद्यपि समय के साथ बाहरी इलाकों में होने वाली कार्यक्रमों में भीड़ कम होती जा रही है और कार्यक्रम का समय भी कम हो गया है परन्तु आज भी यह पुरानी लिगेसी बनी हुई है और लोग इसमें पर्याप्त संख्या में भाग ले रहे हैं।

शहर की चारदीवारी में तो आज भी लोगों में वही उत्साह बना हुआ है और हर साल उतने ही लोगों का आना जाना लगा रहता है, शहर की यह 300 साल पुरानी लिगेसी उसी तरह आज भी कायम है और कुछ समय तो अच्छे आयोजकों के मिलने की वजह से कार्यक्रम की शोभा बढ़ी ही है। मुख्य स्थानों पर होने वाले कार्यक्रम आज भी दर्शनीय है।

तो कोरोना की समस्या ख़त्म होते ही आइये और देखिये नृसिंह चतुर्दशी पर होने वाली नृसिंह लीला और आनंद लीजिये सभी के साथ उनकी सिंह जैसी मदमस्त चाल और उछाल का और अंतिम कार्यक्रम में देखिये की कैसे वे प्रह्लाद को गद्दी प्रदान करते हैं।

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Sirehdhyodhi Bazar

आज चलते हैं जयपुर के एक और प्रसिद्ध और सबसे पुराने बाज़ारों में से एक बाजार सिरहड्योढी बाजार में; सिरहड्योढ़ी या सरहद की ड्योढ़ी आप इसे दोनों नाम से जानते होंगे यह बाजार पैलेस के बाहर चांदी की टकसाल के सामने बड़ी चौपड़ से सुभाष चौक तक फैला हुआ है, पुरोहित जी के कटले की तरह यह किसी वस्तु विशेष को समर्पित बाजार नहीं है बल्कि यह एक खुला फुटकर बाजार है जिसमे सभी तरह की वस्तुओं से लेकर खाने पीने तक के सामान की दुकाने, होटल और रेस्टॉरेंट हैं। राज सवाई जयपुर में यह पैलेस की सीमा पर लगाने वाला शहर का आम बाजार हुआ करता था जहाँ पर खास लोगो के लिए अलग और आम लोगों के लिए अलग दुकाने हुआ करती थी, जयपुर एम्पोरियम की भी कुछ एक प्रियदर्शनी दुकाने हुआ करती थी और एक पुराना दवा खाना भी था। रामप्रकाश नाटकघर, चांदी की टकसाल, राजमहल के प्रवेश का मुख्य उत्तर पूर्वी द्वार और खवास जी की हवेली सभी इसी बाजार के इर्दगिर्द और बाजार में या इससे लगते हुए ही मौजूद है।

जयपुर के राजमहल का प्रवेश द्वार है सिरह ड्योढ़ी का पूर्व की और देखता दरवाजा जिसे बांदरवाल का दरवाजा भी कहते हैं। 18वी सदी के इस महल को देखने के लिए इसी द्वार से प्रवेश करना चाहिए। जयपुर वाले सिरहड्योढ़ी के दवराजे को ‘कपाट-कोट-का’ भी कहते हैं चूँकि राजमहल को घेरने वाली दीवार को सरहद कहते है लिहाजा सरे शहर के बीच में एक छोटा शहर है और इसके पहले दरवाजे को ‘कपाट-कोट-का’ कहना अनुचित तो कतई नहीं है। यहाँ सही है की सवाई जय सिंह की कई पीढ़ियों पहले से आमेर और जयपुर के राजा मुग़ल बादशाहों की फरमाबरदारी में रहते आये थे लेकिन जयपुर शहर जब बनाया और बसाया तो राजकीय सवारियों और जुलूसों, तीज-त्योहारों, मजलिसों का कुछ ऐसा करीना सलीका कायम किया गया की दिल्ली और आगरा की शान-औ-शौकत से होड़ होने लगी थी। इस दरवाज़े से होते समय कदम कदम पर राजसी वैभव, दरबारी भव्यता के प्रतीक पोळों से होकर निकलना पड़ता है।

सिरह ड्योढ़ी के बाजार के एक भाग में जयपुर के राजाओं का अन्तः पुर हुआ करता था यह सैकड़ों महिलाओं से आबाद रहने वाला, ऊँची दीवारों से घिरा, किन्तु बड़े बड़े चौक, दालानों और हवेलियों से भरा पड़ा है। ये हवेलियां अलग अलग रावलों की हुआ करती थी और उसमे रहने वाली माजियों, महारानियों, पासवानों और पडतायतों के नाम से ही जानी जाती थी। इस लम्बे-चौड़े नगर में पैलेस का सातवां भाग घेरने वाला यह अंतरंग उपनगर है जिसमे पुरुष संज्ञाधारी किसी बच्चे तक का प्रवेश भी निषिद्ध रहा है और आज तक है, इस अन्तः पुर का नाम है जननी ड्योढ़ी।

महाराजा माधो सिंह जी की विलायत यात्रा शहर के इसिहास में बड़ी प्रसंगनीय रही है इसका पूरा जमवाड़ा सिरहड्योढ़ी और सिरहड्योढ़ी बाजार में ही लगा था। उस समय के लिखित विवरणों के अनुसार सिरहड्योढ़ी बाजार और जौहरी बाजार की पटरियों तथा दुकानों और मकानों की छतों पर ‘मर्द, औरत, बूढ़े, जवान सभी ठट्ट के ठट्ट खड़े नज़र आते थे’। महाराजा की जय जयकार लगते हुए उन पर पुष्प वर्षा की गई और यह अभी तक का सबसे बड़ा जमावड़ा था जो सिरहड्योढ़ी पर लगा था उससे पहले कभी किसी त्यौहार पर भी ऐसे नहीं हुआ था।

दशहरे के अगले दिन शलक का मेले का दिन होता है। इस दिन शाम को महाराजा की सवारी सिरहड्योढ़ी से होती हुई जौहरी बाजार से होती हुई फ़तेह का टीबा तक जाती थी। इस सवारी में पूरा लवाजमा साथ होता था, महाराज फ़तेह का टीबा जाके उतर जाते और दो हाथियों द्वारा खींचे जा सकने वाले इंद्र विमान में बैठते फिर तोपखाना घुड़सवार दस्ते शुतुर सवार और पैदल सैनिक 5 5 राउंड फायर करते और फिर महाराजा की सॉरी वापिस आती।

माधो सिंह दीपवाली के अगले दिन अन्नकूट करवाते थे जयपुर के प्रसिद्द अन्नकूटों की शुरुआत उन्होंने ही करवाई थी जो आज तक उसी तरह चलते आ रहे है, पुरे लवाजमे से साथ माधो सिंह सिरेह ड्योढ़ी से निकल कर माणकचौक होते हुए त्रिपोलिया से होकर महल जाते थे और इस दिन सिरहड्योढ़ी वाले बाजार के पोळ पर बांदरवाल लगाई जाती थी इसलिए उस पोळ का नाम बांदरवाल का दरवाजा पड़ गया था।

आज यह बाजार अपनी कुछ चीजों के लिए मशहूर है जिनमे से कुछ हैं
1 साहू की चाय
2 शिमला होटल
3 काळा हनुमान जी का मंदिर
4 पंडित कुल्फी
5 शर्मा जी के कचोरी समोसे और लस्सी
6 लोकल चमड़ा मार्किट
7 सिले हुए गद्दों का बाजार
8 कल्कि मंदिर
9 ओल्ड मशीन और पार्ट्स मार्किट
10 लोकल आर्ट एंड क्राफ्ट मार्किट

बाजार की रौनक देखते ही बनती है और पूरे दिन यहाँ खरीददारों, पर्यटकों और आने जाने वालों का ताँता लगा रहता है।