बड़ी चौपड़ से चांदी की टकसाल और सुभाष चौक से जयपुर के मनमोहक रास्तों पर जाते हुए सुभाष चौक को पार करने से बाद बाएं हाथ को जोरावर सिंह गेट पर आता है माधव विलास महल, इस महल के बाहर बड़े बड़े अक्षरों में नेशनल इंस्टिट्यूट ऑफ़ आयुर्वेद लिखा हुआ है, यह जयपुर का सबसे बड़ा और भारत का राष्टीय महत्त्व रखने वाला आयुर्वेदिक कॉलेज, यूनिवर्सिटी और अस्पताल है। इसका पश्चिमी भाग माधो सिंह प्रथम ने 1750-67 ई में बनवाया था जिसका शेष भाग रामसिंह द्वितीय ने और जोड़ा। इसके पश्चिम में भी एक चौक है जिसके बीच एक तरणताल भी है। माधो निवास या माधो विलास उत्तर की ओर जयनिवास उद्यान की ओर खुलता है, लाल बलुआ पत्थर का इसका गेट क़ुराई के काम से सज्जित है, जिसमे दो हाथी भी उत्कीर्ण है जिससे इसका नाम गजेंद्र पोल भी है।
जयपुर का यह आयुर्वेद कॉलेज पहले महाराजा संस्कृत कॉलेज का ही एक अंग था। रियासती ज़माने में ही सवाई मानसिंह मेडिकल कॉलेज की स्थापना के कुछ आगे पीछे आयुर्वेद कॉलेज को संस्कृत कॉलेज से सर्वथा स्वतन्त्र संस्था के रूप में स्थापित कर दिया था और इसके लिए मुद्दत से खाली पड़े माधो विलास महल की इमारत चुनी गई जो वास्तविकता में माधो सिंह जी ने अपने आमोदप्रमोद के लिए बनवाई थी।
माधोविलास की लम्बी चौड़ी इमारत राजा के राग-रंग और हास-विलास के लिए ही बनी थी, तालाब के झाराव से इसका अहाता सघन वृक्षों से भरा था और यह जयपुर के साधन और सुन्दर बगीचों में गिना जाता था। महल के मेहराबदार दीवानखाने में संगमरमर के दुहरे शुण्डाकार स्तम्भ दर्शनीय है। इसमें पीछे की ओर दीर्घा है जो छोटे छोटे स्तम्भों पर कमनीय मेहराबों से खुली है। कमानीदार गुम्बज सहित दीर्घा एक झरोखे की तरह है जिसमे दीवानखाने का आँगन पानी की नहरों से कट छंटकर शतरंज की चौकी की तरह बना है। मध्य में अनेक कोनों वाला एक छोटा सा जलशाय है जिसमे चारों ओर की नहरों का पानी आता है और उत्तर की ओर बगीचे में बह जाता है। इसकी दक्षिण दीवार लाल पत्थर की सात महिला-मूर्तियों से मंडित है।
अब माधोविलास की इमारत का उपयोग अस्पताल के रूप में हो रहा है और बाग बगीचे का स्वरुप भी आधुनिक हो गया है अतः उस छटा का केवल अनुमान ही लगाया जा सकता है जो जाली झरोखों से युक्त इस राजमहल में पत्थर की मूर्तियों और हौज के बने होने से रहती होगी।
बाहर से माधोविलास की इमारत देखने से लगता तो नहीं है की भीतर ऐसी गजब की वास्तु कला और सृष्टि है, आये दिन के रक्तपात, राजनीतिक अस्थिरता और लड़ाई झगड़ों में उलझे रहने के काल में राजा लोग अपना अवकाश का क्षण ऐसे मानवनिर्मित स्वप्नलोक में ही बिताते होंगे। फिर माधोसिंह प्रथम के समय तो जयपुर का वैभव बहुत कुछ सवाई जय सिंह के ज़माने जैसा ही था।
आज पूरा भवन एक उत्कृष्ठ आयुर्वेदिक यूनिवर्सिटी और अस्पताल है जहाँ अभी तक की भवन की आवश्यकता इस पुराने भवन से ही पूरी हो रही है पीछे की और रहने के लिए हॉस्टल बने है जहाँ पहले कभी चेले और सेवक रहा करते थे और आगे के आमोद प्रमोद वाले भवन में विभिन्न कक्ष बना कर आयुर्वेद के विभिन्न विभागों को सौंपे जा चुके हैं। इतने पुराने भवन का रख रखाव करने की जिम्मेदारी पी डब्लू डी और खुद यूनिवर्सिटी के पास है, भवन के पुराने हो जाने के कारण वे लोग इसके उस पूरे भाग को ही तोड़ कर पुनः बना देते हैं जबकि इतने पुराने भवनों के रख रखाव के लिए एक म्यूजिओलोजिस्ट और कंज़र्वेशनिस्ट की सलाह को लेना और उन्हें हमेशा साथ रख कर करना चाहिए जिससे उस ईमारत की लिगेसी भी बची रहेगी और उसका नवीनीकरण भी होता रहे।
अगली बार कभी आयुर्वेदिक इलाज लेने या किसी परिवारजन से मिलने माधवविलास जाइएगा तो उसे बाहर से ऊपर से नीचे तक देखिएगा और अनुमान लगाइएगा की कैसे अट्ठारहवीं सदी की ये मजबूत ईमारत आज भी इतने लोगों को और उनकी आजीविका को संरक्षित करे हुए है और उसके पुराने द्वारों को देख कर और उद्यानों में बैठ कर शहर के गौरवान्वित इतिहास को महसूस कीजियेगा यकीन मानिये वहां इन विचारों में बिताये ये खास क्षण न तो आप कभी भूलेंगे और इसे सोच कर गौरवान्वित भी महसूस करेंगे।
एक प्रेम कवी ने अपनी पुस्तक छंदतररंगिनी में एक रचना लिखी है:
छाकी प्रेम छाकिन कै नेम में छबीली छैल,
छैल के बंसुरिया के छलन छली गई।
गहरे गुलाबन के गहरे गरूर भरे,
गोरी की सुगंध गैल गोकुल गली गई।
दर में दरीन हूँ मे दिपति दिवारी दुति,
दंतों की दमक दुति दामिनी चली गई।
चौसर चमेली चारु चंचल चकोरन तें,
चांदनी में चंद्रमुखी चौंकत चली गई।