नृसिंह जयंती वैशाख माह के शुक्ल पक्ष की चतुर्दशी को मनाई जाती है, पुराणों में विष्णु पुराण में सतयुग की एक कहानी है जिसके अनुसार ऐसा माना जाता है की इस दिन भगवन विष्णु अपने भक्त प्रह्लाद जिसे अपने पिता हिरण्यकश्यप से मृत्युदंड मिलने के बाद जिस समय उसे दंड दिया जा रहा होता है उस समय वे खम्ब फाड़ नृसिंह अवतार ले प्रकट होते हैं, और अपने भक्त प्रह्लाद को बचा आतातायी राजा और उसके पिता हिरण्यकश्यप को मार पृथ्वी को उसके अत्याचारों से बचाते हैं। इस कहानी का पूर्वार्ध यह है की हिरण्यकश्यप नाम के असुर होते हैं वे अनेक वर्षों तक भगवान ब्रम्हा की कठिन आराधना कर उनसे अमर होने का वरदान मांगते है, जिसे देने में ब्रम्हा अपनी असमर्थता व्यक्त करते हैं और उसे कुछ दूसरा वरदान मांगने को कहते है, हिरण्यकश्यप अपनी बुद्धि का इस्तेमाल कर उनसे कुछ इस प्रकार का वरदान मांगते हैं की कोई उसे न तो कोई दिन में मार सके न रात में, न अस्त्र से न शस्त्र से, न ही आकाश में न धरती पर, न ही कोई मनुष्य और न ही कोई जंतु, न घर के अंदर न बाहर। इस प्रकार का वरदान पा वे अपने को एक तरह से अमर समझ कर अत्याचार करना शुरू कर देता और और इस वरदान के कारण उसे कोई मार भी नहीं पाता और वह समग्र पृथ्वी को जीत लेता है।
अमर समझने के कारण वह अपने को भगवान घोषित कर देता है व सभी प्रकार की पूजा अर्चना पर प्रतिबंध लगा अपनी प्रजा को स्वयं की पूजा करने को कहता है, परन्तु उसका पुत्र प्रह्लाद ही विष्णु का बहुत बड़ा भक्त होता है और जब यह बात हिरण्यकश्यप को पता चलती है तो उसे अनेक प्रकार से समझाता है की वह भी विष्णु को छोड़ अपने पिता की पूजा करे व उसके न मानाने पर अनेक प्रकार से दंड देता है इसी क्रम में वह अपनी बहन होलिका जिसे न जलने का वरदान प्राप्त था के साथ प्रह्लाद को जलने के लिए भी भेज देता है परन्तु हर बार जिस प्रकार उसे विष्णु बचाते हैं उसी प्रकार इस बार भी विष्णु की कृपा से होलिका जल जाती है और प्रह्लाद बच जाता है।
इसी क्रम में आगे हिरण्यकश्यप अपनी आत्ममुग्धता और अमर होने के घमंड के कारण अपने पुत्र को मृत्युदंड देता है, और भगवान नृसिंह का अवतार ले प्रकट होते हैं, श्री ब्रम्हा के वरदान की रक्षा करते हुए व हिरण्यकश्यप को मारने के लिए विष्णु उसके द्वारा मांगे हुए वरदान को अपूर्ण बताते हुए आधा नर और आधा सिंह का रूप लिए अवतरित होते हैं, उसे संध्या के समय द्वार की दहलीज पर बैठ कर अपनी गोदी में रख सिंह की तरह अपने लम्बे नाखूनों से उसका वध कर देते हैं व प्रह्लाद को धरती का राजा घोषित कर देते हैं जो पृथ्वी पर पुनः सौहाद्र की स्थापना करते है।
उनका पुत्र विरोचन भी बड़ा प्रतापी राजा होता है परन्तु ऐसा कहा जाता है की असुर जाति, अपने स्वाभाव व क्षीण बुद्धि के कारण वह अपनी शिक्षा को गलत रूप में ले लेता है और उस समय पूजा में देव के मूर्ति के आत्मिक स्वरुप की जगह देव के मूर्त रूप को पूजने लगता है और उसी प्रकार की शिक्षा को आगे बढ़ावा देता है और ऐसा माना जाता है की उसी समय से लोगो ने भी मंदिर में मूर्ति के आत्मिक स्वरुप का दर्शन करने के बजाए उनके बनावटी रूप को देखना शुरू कर दिया।
राजा विरोचन का पुत्र राजा बलि भी बहुत प्रतापी हुआ उसने पृथ्वी के साथ साथ पुरे ब्रम्हांड को ही जीत लिया था जिसे बाद में विष्णु ने ही वामन अवतार ले समग्र संसार व स्वयं उसे दान में मांग कर सम्बंधित लोगों को पुनः दिया व राजा बलि को पाताल लोक का राजा बना अमर होने का वरदान भी दिया।
जयपुर शहर में रियासत काल से ही नृसिंह जी की लीला को आम लोगो के मनोरंजन के लिए आयोजित किया जा रहा है। इन आयोजनों में
नृसिंह जी के खम्ब फाड़ प्रकट होने से लेकर हिरण्यकश्यप को मारने और प्रह्लाद को राजा बनाने तक के प्रकरण को स्थानीय लोगों द्वारा दिखाया जाता है। यह कार्यक्रम आजकल के नुक्कड़ नाटक शैली की तरह सडकों पर इधर उधर आ जा कर किया जाता रहा है, शहर के सभी मुख्य शिव मंदिरों से पास के किसी और प्रसिद्ध मंदिर तक यह नृसिंह जी की सवारी निकलती है। शिव मंदिर से भगवान का रूप लिए कलाकार खम्बा फाड़ कर निकलता है और सभी उनके साथ दूसरे स्थान या मंदिर तक जाते है इस बीच रास्ते में अनेक लोग उनका दर्शन करते हैं, भोग लगते हैं, आशीर्वाद लेते है और वह व्यक्ति सिंह की भांति रास्ते पर मदमस्त सा चलता जाता है उसी के साथ कुछ साथी उसे रास्ते का भान करवाने, उसके जाने का रास्ता खाली करवाने, भीड़ की तरफ से लेकर जाकर हंगामा करने वाले और एक उसके साथ उसे वेशभूषा के करना लगने वाली गर्मी में हवा देने का काम करते हैं। इस प्रकार वह पूरे रास्ते लोगों का मनोरंजन करते हुए अपने अंतिम गंतव्य की और अग्रसर होता है और अंतिम स्थान पर उसकी लड़ाई हिरण्यकश्यप से होती है वह नाटक में उसका द्वार की दहलीज पर नाखूनों के उसका वध करते हैं और प्रह्लाद को राज गद्दी प्रदान करते हैं। इस प्रकार से नृसिंह चतुर्दशी के दिन पूरे शहर में संध्या पश्चात् इस प्रकार के सामाजिक सहयोग से कार्यकर्म आयोजित किये जाते रहे हैं इन कार्यक्रमों में पहली बार अवरोध इस कोरोना काल में ही आया है।
नृसिंह लीला को आयोजित करने वाली कुछ प्रमुख स्थल हैं :-
1 ताड़केश्वर महादेव, चौड़ा रास्ता
2 जागेश्वर महादेव, ब्रम्हपुरी
3 झारखण्ड महादेव, वैशाली नगर
4 चांदपोल बाजार, चांदपोल
5 नृसिंह मंदिर, पुरानी बस्ती
6 नाहरगढ़ रोड
7 गोपीनाथ मंदिर, पुरानी बस्ती
8 नींदड़ राव जी का रास्ता, चांदपोल
9 गोपालपुरा बाईपास, त्रिवेणी नगर
10 चांदी की टकसाल, सुभाष चौक
11 खजाने वालों का रास्ता, चांदपोल बाजार
इस प्रकार शहर के सभी मुख्य रास्तों में नृसिंह जी की सवारी निकलती है, और पूर्व निर्धारित स्थानों या मंदिरों में जाकर लीला का समापन होता है।
यह लीला बुराई पर अच्छी की जीत और भक्तों की रक्षा भगवान हमेशा करते हैं के सन्देश देने वाली पुराणों की कथाओं को जन जन तक पहुंचने का बहुत सुन्दर और मनोरंजक माध्यम हैं।
यह बड़ा ही मनोरंजक कार्यक्रम होता है चप्पे-चप्पे पर लोग जमा होते हैं और भजन गाते हैं, मिठाइयां और प्रसाद बांटे जाते हैं। यह पूरा कार्यकर्म लगभग 30 मिनट से 45 मिनट तक चलता है और उसके बाद जिसकी इच्छा हो वह मंदिर में भजन कार्यक्रम में हिस्सा ले सकता है ।
नृसिंह चतुर्दशी का यह कार्यक्रम आज भी सतत रूप से जारी है और जनता का कार्यक्रम में उत्साह से भाग लेना देखते ही बनता है यद्यपि समय के साथ बाहरी इलाकों में होने वाली कार्यक्रमों में भीड़ कम होती जा रही है और कार्यक्रम का समय भी कम हो गया है परन्तु आज भी यह पुरानी लिगेसी बनी हुई है और लोग इसमें पर्याप्त संख्या में भाग ले रहे हैं।
शहर की चारदीवारी में तो आज भी लोगों में वही उत्साह बना हुआ है और हर साल उतने ही लोगों का आना जाना लगा रहता है, शहर की यह 300 साल पुरानी लिगेसी उसी तरह आज भी कायम है और कुछ समय तो अच्छे आयोजकों के मिलने की वजह से कार्यक्रम की शोभा बढ़ी ही है। मुख्य स्थानों पर होने वाले कार्यक्रम आज भी दर्शनीय है।
तो कोरोना की समस्या ख़त्म होते ही आइये और देखिये नृसिंह चतुर्दशी पर होने वाली नृसिंह लीला और आनंद लीजिये सभी के साथ उनकी सिंह जैसी मदमस्त चाल और उछाल का और अंतिम कार्यक्रम में देखिये की कैसे वे प्रह्लाद को गद्दी प्रदान करते हैं।