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Ramprakash Theatre

दुनिया का सबसे पहला सुनियोजित शहर सिर्फ अपनी बनावट, वास्तु कला, कारखानों, मंदिरों और वेधशाला के लिए ही प्रसिद्ध नहीं है बल्कि यहाँ कला, स्थापत्य और संगीत को भी अनेकों वर्षों से सहेजा जा रहा है। शास्त्रीय संगीत शैली में तो जयपुर एक घराना है जिसके अनेक प्रसिद्ध गायक कलाकार है।

इसी चरण में कला और संगीत को बढ़ने और कलाकारों को सहारा देने के लिए साहित्य, संगीत और कला प्रेमी सवाई रामसिंह जी ने एक नाटकघर बनवाया था। जब यह बनाकर खोला गया तो तत्कालीन भारत के सर्वोत्तम नाटकघरों में इसकी गिनती की गई थी। इसके मंच पर विमानों और पात्रों के आकाश से अवतरित होने अथवा पृथ्वी से अकस्मात् प्रकट होने के आश्चर्यजनक साधन और उपकरण थे और परदे भी प्रकृतिक दृश्यों और महल मंदिरों की चित्रकला से अलंकृत होकर प्रसंगानुसार पृष्टभूमि बनाते थे। अपने समय में यह बड़ा आश्चर्यजनक और एक नवीन अविष्कार थे जिसे देखने के लिए जयपुर और आसपास के खेत्रों में एक नशा सा ही छा गया था। नाटक देखने के नशे में शहर में चोरियां और उठाईगिरी की वारदातें बहुत बढ़ गई थी। पोटाश के धमाके के साथ संगीत के मुखरित वातावरण में जब रामप्रकाश का पर्दा उठता था तो दर्शक दंग ही रह जाते थे। उस समय के होने वाले नाटकों में इंद्रसभा एक बहुत लोकप्रिय नाटक था जिसमे रामसिंह के संभाले हुए अनेक गुणीजन काम किया करते थे। रामसिंह जी ने रामप्रकश को आधुनकि बनाने में कोई कसार नहीं छोड़ी थी एयर नाट्यकला में विशेष पारंगत बॉम्बे के पारसी थिएटर कंपनी के कलाकारों को भी यहाँ आमंत्रित किया और स्थानीय कलाकरों को उनके प्रशिक्षण में तैयार करवाया। जिससे जल्दी ही यहाँ मंच-सज्जा, उपकरण, ऑर्केस्ट्रा और कलाकारों की टोली ऐसी कुशल हो गई के तत्कालीन राजपूताने में उसका कोई मुकाबला नहीं था।

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Maharaja Sawai Ram Singh Ji

जयपुर के इस अत्यंत लोकप्रिय और अपूर्व रंगमंच ने 150 साल पहले जो धूम मचा रखी थी उसका ऐतिहासिक विवरण महामहोपाध्याय कविराजा श्यामलदास के वीरविनोद में लिखित है जो कहता है की,”1880 का साल आरम्भ होते ही श्यामलदास मेवाड़ के महाराणा सज्जनसिंह के साथ जयपुर आये और यहाँ महाराजा राम सिंह जी के मेहमान थे। महाराणा और उनकी पार्टी सात दिनों तक जयपुर रही और इन सात दिनों में पांच रातें उन्होंने रामप्रकाश में नाटक देखने में बितायी। उनके द्वारा विशेषता में कही गई कुछ पंक्तियाँ इस प्रकार है की पहली जनवरी को दोनों अधीश एक बघ्घी में सवार होकर रामनिवास बाग में पाठशाला के विद्यार्थियों का जलसा देखने गए और वहां हेडमास्टर की स्पीच सुन कर विद्यार्थियों का कौतुहल देखने के बाद वापस महलों में आये, रात्रि के समय दोनों अधिशों ने सभी सभ्यजनों के साथ में नाटकशाला में ‘जहांगीर’ बादशाह का नाटक देखा जिसका नाम अनुमानतः अनारकली ही होगा।


“यहाँ नाटकशाला इन्ही महाराजा साहब ने बड़े खर्च से बनवाकर बॉम्बे से पारसी वगैहरा शिक्षित मनुष्यों को बुलवाया और स्त्रियों की जगह जयपुर की वेश्याओं को तालीम दिलवाकर तैयार किया। इस नाटक में वस्त्र, आभूषण सामग्री समयानुसार और बोलचाल, पठन पाठन सभी बातें अध्भुत और चरित्र की सभ्यता दिखने वाली है। परियों का उड़ना, पहाड़ों-मकानों की दिखावट, फरिश्तों का जमीन व आसमान में उड़ना व अप्सराओं का जमीन में से प्रकट होना देखने वालों के नेत्रों को अत्यंत आनद देता है।”

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Parsi Theatre Group

कविराजा के अनुसार दूसरे दिन भी दोनों अधिशों ने ‘बद्रेमुनीर’ और ‘बेनजीर’ नाटक देखा। 4 जनवरी की रात को ‘अलादीन और अजीब व गरीब चिराग’ का नाटक हुआ और 5 जनवरी को ‘हवाई मजलिस’ का नाटक देखा। 6 जनवरी को दोनों अधिशों का मिलना हुआ और रात के समय ‘लैला मजनू’ का नाटक देखा गया जहाँ तुकोजीराब होल्कर इंदौर के ज्येष्ठ और कनिष्ठ पुत्र जो राजपुताना की सैर करते हुए जयपुर आये थे ने नाटक देखा।

महाराणा सज्जनसिंह और श्यामलदास 30 दिसंबर 1879 को जयपुर आये थे और सात जनवरी की रात को वे स्पेशल ट्रैन से किशनगढ गए थे। जयपुर प्रवास में उनकी रातें जैसे रामप्रकाश नाटकघर के लिए ही थी। इन विवरणों के यह स्पष्ट है की श्यामलदास जैसे विद्वान् और इतिहासकार व मेवाड़ के ‘हिंदवां-सूरज’ महाराणा ने इससे पहले कभी नाटकों की ऐसी अच्छी प्रस्तुति नहीं देखी थी।

चौड़े चौगान दर्शकों और श्रोताओं की भीड़ से घिरे तख्तों या पाटों पर ‘देवर-भाभी’ और दूसरे तमाशों देखने के शौक़ीन जयपुर वालों के लिए कलकत्ता के स्टार थिएटर की प्रतिकृति रामप्रकाश का रंगमंच वास्तव में अपूर्व मनोरंजन का साधन था जिसने शहर की ख्याति दूर दूर तक फैला दी थी।

रामप्रकश की सबसे बड़ी उपलब्धि यही थी की इसके रंगमंच पर स्त्री पात्रों का अभिनय करने वाली औरतें सचमुच में औरतें ही थी। यह उन्नीसवी सदी के सातवें और आठवें दशक से लिए एक अद्बुध, अनहोनी और अनोखी बात थी। भारत में परम प्रसिद्ध पारसी रंगमंच की स्थापना 1864 में हुई थी। उस समय वहां भी स्त्री का भाग करने के लिए लड़के ही रखे जाते थे। इससे पहले होने वाली नौटंकी, रामलीला, रासलीला में स्त्री पात्रों के लिए लड़कों को ही सजाया जाता था। भारत ही क्या रोम और यूनान के प्राचीन सभ्यताओं और इंग्लैंड जैसी नए कल्चर में भी स्त्रियों का भाग लड़कों द्वारा ही किया जाता था। 19वीं सदी के मध्य में शेक्सपियर के नाटकों को लेकर जो विदेशी कंपनियां भी भारत आई वहां भी स्त्री पात्रों के रूप में पुरुष कलाकारों को ही लाई थी।

रामप्रकाश के संस्थापक महाराजा रामसिंह तो 1880 में स्वर्गवासी हो गए थे पर जयपुर के रंगमंच पर स्त्री व पुरुष कलाकारों के नाटक का मंचन हो रहा था। जयपुर की तवायफें इस रंगमंच पर तरह-तरह की भूमिकाएं अभिनीत कर वाहवाही लूट रही थी।


विवरणों के अनुसार एक चंदाबाई सौरोंवाली थी जिसे महाराज ‘मौलाना’ कह कर सम्भोदित करते थे और ग्रीनरूम में जाकर खुद उसके पंख लगते और मेकअप करवाते। वह प्रायः सब्जपरी की भूमिका करती थी। इसी श्रंखला में दो और तवायफें है नन्ही और मुन्ना। दोनों ही बहिने थी और लश्कर से यहाँ लाइ गई थी। इनकी लम्बी चौड़ी हवेली घाट दरवाजा बाजार में नवाब के चौराहे के पास कहीं पर थी जिसे बाद में एक मुस्लमान जौहरी ने खरीद लिया था। महाराजा रामसिंह ने जयपुर के नए नए नाटकघर में इनका नाटक देख कर खुश होकर रंगमंच के दोनों ओर इन दोनों बहिनों का चित्र बनवाया था।

रामप्रकश में काफी नाटक हो चुकने के बाद रामसिंह ने शायद अनुभव किया की इसके ऑर्केस्ट्रा को आधुनिक रूप दिया जाना चाहिए भारतीय वाद्य तो थे ही पाश्चात्य वाद्य भी मंगवाए गए। 15 नवंबर 1880 की कौंसिल की बैठक के विवरण में लिखा है की,”बैंडमास्टर मिस्टर बकर की 14 अक्टूबर 1880 की अर्जी आई है जिसमे 518 रू दो आने छ पाई की मंजूरी मांगी गई है और यह रकम उन वाद्य यंत्रों की है जो स्वर्गीय महाराज ने इंग्लैंड से खरीदकर मंगवाए थे और इसमें बॉम्बे से जयपुर लेन का रेल भाड़ा भी शामिल है। बकर एक जर्मन नागरिक था जो उस समय रियासत में बैंडमास्टर था।

महाराजा के बाद जयपुर में रह रही पारसी कंपनी की छुट्टी कर दी गई जिसमे उन्हें वेतन के साथ रेल भाड़ा दिया गया था। रामप्रकाश नाटकघर को तब नगर प्रसाद का ही भाग मन जाता था और इसे महल रामप्रकाश नाटकघर कहा जाता था। तब महल की तरह यहाँ भी कायदे चलते थे और इम्तिआज़ अली नमक चेला इस महल का अंतिम प्रभारी था।

दो संस्कृत नाटक के मंचन के उल्लेख के बिना रामप्रकाश का यह किस्सा अधूरा रहेगा जयपुर में 1936 से तो सिनेमा का युग आरम्भ हो गया था फिर भी 1931 के अक्टूबर और 1940 में इसी नाटकघर के मंच पर अभिनीत ‘उत्तर रामचरितमानस’ और ‘पांडव विजय’ नाटक विशेष रूप से उल्लेखनीय है। जयपुर का भारत-विख्यात महाराजा संस्कृत महाविद्यालय महामहोपाध्याय पंडित गिरिधर शर्मा चतुर्वेदी की अध्यक्षता में प्रगति के सौपान चढ़ रहा था की 1931 में महाराजकुमार भवानी सिंह का जन्म हुआ। पिछले दो राजाओं के गोद आने के बाद राजमहल में जन्म से साडी रियासत में जश्न मनाया गया और संस्कृत कॉलेज के छात्रों ने इस उपलक्ष में ‘उत्तर रामचरितमानस’ का मंचन किया। स्वयं महाराजा मान सिंह यह कह कर नाटक देखने आये की वे आधा घंटा बैठेंगे पर उन्हें नाटक में ऐसा रस आया की पुरे समय तक बैठे रहे और अंत में दो हज़ार रूपया पुरस्कार भी प्रदान करने की घोषणा की। इस बात को जयपुर के नाटक के इतिहास में ‘एक नयी बात’ कहा गया। 1940 में ‘पांडव विजय’ जयपुर के तत्कालीन प्रधानमंत्री राजा ज्ञाननाथ ने देखा था और वापस अपने इंदौर जाने के बाद कहा की ऐसा अभिनय मैंने पहले कभी नहीं देखा।

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Maharaja Sawai Mansingh Ji with Maharani Gayatri Devi

राजा ने जब रामप्रकाश नाटकघर बनवाया तो संस्कृत नाटकों के हिंदी अनुवाद नहीं करवाए बल्कि दुनिया के नाटक एकत्रित करवा लिए संस्कृत, हिंदी, उर्दू के नाटक। नाटकों का ही एक बड़ा संग्रहालय और पुस्तकालय तैयार हो गया था। केवल नाटकों का इतना बड़ा, छँटा-छँटाया संग्रह हिन्दुस्तान में और कहीं नहीं होगा।

मान सिंह जी के समय रामप्रकाश नाटकघर से सिनेमाघर बन चुका था और यहाँ पर फिल्मों को दिखाया जाने लगा था। धीरे धीरे नाटकघर से सिनेमाघर बन जाने के कारण शहर की एक ऐसी चीज खत्म हो गई है जो रहने और रखने लायक थी। जब ऐसा किया गया था तब भी पुराने और जानकार लोगों को यह बहुत अखरा था, और उनके इस तर्क में सचमुच सच्चाई थी की सिनेमाघर को नया भी बन सकता था और बन भी रहे है।

आज रामप्रकाश न तो सिनेमाघर है और न ही नाटकघर समय के साथ पारिवारिक कलह के कारण स्वामित्व की लड़ाई हुई और विवाद में इसे बंद कर दिया गया, तब से आज तक यह बिना किसी रख रखाव के बंद पड़ा है जिस से आज इसके बारे में भूतिया कहानियों को भी बल मिल गया है। आज के जयपुर के लोगों को शायद पता भी नहीं होगा और बहुतों ने तो सुना ही नहीं होगा की रामप्रकाश नाटकघर भी कुछ है, कही है चाहे वे दिन में अनगिनत बार इसके बहार से निकलते होंगे। फिर भी यह निर्विवादित है की किसी मंच ने जयपुर में न वैसी न धूम मचाई और न ही मचा पायेगा जो रामप्रकाश ने मचाई थी।