आज चलते हैं जयपुर के एक और प्रसिद्ध और सबसे पुराने बाज़ारों में से एक बाजार सिरहड्योढी बाजार में; सिरहड्योढ़ी या सरहद की ड्योढ़ी आप इसे दोनों नाम से जानते होंगे यह बाजार पैलेस के बाहर चांदी की टकसाल के सामने बड़ी चौपड़ से सुभाष चौक तक फैला हुआ है, पुरोहित जी के कटले की तरह यह किसी वस्तु विशेष को समर्पित बाजार नहीं है बल्कि यह एक खुला फुटकर बाजार है जिसमे सभी तरह की वस्तुओं से लेकर खाने पीने तक के सामान की दुकाने, होटल और रेस्टॉरेंट हैं। राज सवाई जयपुर में यह पैलेस की सीमा पर लगाने वाला शहर का आम बाजार हुआ करता था जहाँ पर खास लोगो के लिए अलग और आम लोगों के लिए अलग दुकाने हुआ करती थी, जयपुर एम्पोरियम की भी कुछ एक प्रियदर्शनी दुकाने हुआ करती थी और एक पुराना दवा खाना भी था। रामप्रकाश नाटकघर, चांदी की टकसाल, राजमहल के प्रवेश का मुख्य उत्तर पूर्वी द्वार और खवास जी की हवेली सभी इसी बाजार के इर्दगिर्द और बाजार में या इससे लगते हुए ही मौजूद है।
जयपुर के राजमहल का प्रवेश द्वार है सिरह ड्योढ़ी का पूर्व की और देखता दरवाजा जिसे बांदरवाल का दरवाजा भी कहते हैं। 18वी सदी के इस महल को देखने के लिए इसी द्वार से प्रवेश करना चाहिए। जयपुर वाले सिरहड्योढ़ी के दवराजे को ‘कपाट-कोट-का’ भी कहते हैं चूँकि राजमहल को घेरने वाली दीवार को सरहद कहते है लिहाजा सरे शहर के बीच में एक छोटा शहर है और इसके पहले दरवाजे को ‘कपाट-कोट-का’ कहना अनुचित तो कतई नहीं है। यहाँ सही है की सवाई जय सिंह की कई पीढ़ियों पहले से आमेर और जयपुर के राजा मुग़ल बादशाहों की फरमाबरदारी में रहते आये थे लेकिन जयपुर शहर जब बनाया और बसाया तो राजकीय सवारियों और जुलूसों, तीज-त्योहारों, मजलिसों का कुछ ऐसा करीना सलीका कायम किया गया की दिल्ली और आगरा की शान-औ-शौकत से होड़ होने लगी थी। इस दरवाज़े से होते समय कदम कदम पर राजसी वैभव, दरबारी भव्यता के प्रतीक पोळों से होकर निकलना पड़ता है।
सिरह ड्योढ़ी के बाजार के एक भाग में जयपुर के राजाओं का अन्तः पुर हुआ करता था यह सैकड़ों महिलाओं से आबाद रहने वाला, ऊँची दीवारों से घिरा, किन्तु बड़े बड़े चौक, दालानों और हवेलियों से भरा पड़ा है। ये हवेलियां अलग अलग रावलों की हुआ करती थी और उसमे रहने वाली माजियों, महारानियों, पासवानों और पडतायतों के नाम से ही जानी जाती थी। इस लम्बे-चौड़े नगर में पैलेस का सातवां भाग घेरने वाला यह अंतरंग उपनगर है जिसमे पुरुष संज्ञाधारी किसी बच्चे तक का प्रवेश भी निषिद्ध रहा है और आज तक है, इस अन्तः पुर का नाम है जननी ड्योढ़ी।
महाराजा माधो सिंह जी की विलायत यात्रा शहर के इसिहास में बड़ी प्रसंगनीय रही है इसका पूरा जमवाड़ा सिरहड्योढ़ी और सिरहड्योढ़ी बाजार में ही लगा था। उस समय के लिखित विवरणों के अनुसार सिरहड्योढ़ी बाजार और जौहरी बाजार की पटरियों तथा दुकानों और मकानों की छतों पर ‘मर्द, औरत, बूढ़े, जवान सभी ठट्ट के ठट्ट खड़े नज़र आते थे’। महाराजा की जय जयकार लगते हुए उन पर पुष्प वर्षा की गई और यह अभी तक का सबसे बड़ा जमावड़ा था जो सिरहड्योढ़ी पर लगा था उससे पहले कभी किसी त्यौहार पर भी ऐसे नहीं हुआ था।
दशहरे के अगले दिन शलक का मेले का दिन होता है। इस दिन शाम को महाराजा की सवारी सिरहड्योढ़ी से होती हुई जौहरी बाजार से होती हुई फ़तेह का टीबा तक जाती थी। इस सवारी में पूरा लवाजमा साथ होता था, महाराज फ़तेह का टीबा जाके उतर जाते और दो हाथियों द्वारा खींचे जा सकने वाले इंद्र विमान में बैठते फिर तोपखाना घुड़सवार दस्ते शुतुर सवार और पैदल सैनिक 5 5 राउंड फायर करते और फिर महाराजा की सॉरी वापिस आती।
माधो सिंह दीपवाली के अगले दिन अन्नकूट करवाते थे जयपुर के प्रसिद्द अन्नकूटों की शुरुआत उन्होंने ही करवाई थी जो आज तक उसी तरह चलते आ रहे है, पुरे लवाजमे से साथ माधो सिंह सिरेह ड्योढ़ी से निकल कर माणकचौक होते हुए त्रिपोलिया से होकर महल जाते थे और इस दिन सिरहड्योढ़ी वाले बाजार के पोळ पर बांदरवाल लगाई जाती थी इसलिए उस पोळ का नाम बांदरवाल का दरवाजा पड़ गया था।
आज यह बाजार अपनी कुछ चीजों के लिए मशहूर है जिनमे से कुछ हैं
1 साहू की चाय
2 शिमला होटल
3 काळा हनुमान जी का मंदिर
4 पंडित कुल्फी
5 शर्मा जी के कचोरी समोसे और लस्सी
6 लोकल चमड़ा मार्किट
7 सिले हुए गद्दों का बाजार
8 कल्कि मंदिर
9 ओल्ड मशीन और पार्ट्स मार्किट
10 लोकल आर्ट एंड क्राफ्ट मार्किट
बाजार की रौनक देखते ही बनती है और पूरे दिन यहाँ खरीददारों, पर्यटकों और आने जाने वालों का ताँता लगा रहता है।