जब आमेर में रहते हुए राजा सवाई जय सिंह ने अपने नए महल के लिए जगह देखना शुरू करी तो स्वाभाविक रूप से अनेकों स्थानों पर विचार किया गया होगा, किसी भी महल को बनाने के लिए चौड़ी समतल भूमि, भौगोलिक ढाल, सुरक्षा आदि से साथ में वास्तु शास्त्र को ध्यान में रखते हुए अरावली की पहाड़ी के मध्य के खाली भूभाग के मध्य को चुना गया जहाँ एक झील भी थी जिसपर वो लोग शिकार करने आया करते थे। इस झील को उन्होंने चुना और महल के पास में ही रखा, यहाँ जानवरों का काफी आना जाना था और झील प्राकृतिक रूप से जयादा बड़ी नहीं थी इसलिए इसके आस पास अधिक बसावट भी नहीं थी कालांतर में इसमें बदलाव करते हुए इसको एक कृतिम झील की तरह बना दिया गया जिसमे इसका पैंदा समतल व आस पास के भराव क्षेत्र को सीधा कर चारों और से मिटटी से पाट दिया गया।
चूँकि यह महल के उत्तर दिशा में प्राकृतिक तालाब था जिसका सौंदर्यीकरण करके सजाया गया और जिस से शहर में भूमिगत जल का स्तर व्यवस्थित रहता था। यह एक छोटी झील थी जिसे ताल या तलैया भी कहा जाता है और इसको समतल करने के पश्चात् यह नाहरगढ़ से देखने पर किसी कटोरे के सामान लगती है अतः इसे ताल कटोरा कहा जाने लगा।
सिटी पैलेस के उत्तरी चोर पर बनी है एक बनावटी झील जिसके दक्षिण में बादल महल और बाकि तीनो तरफ चौड़ी मिटटी और गिट्टी की पाल हुआ करती थी जिस पर अब शहर की बढ़ती आबादी ने मकान ही मकान बना कर इस सुन्दर झील की सारी सुंदरता को विकृत कर दिया है। इसकी पाल पर पहले एक बहुत सुन्दर बगीचा हुआ करता था जिसे पाल का बाग़ कहते थे। जयपुर के तीज और गणगौर के मेलों का समापन यहीं इस पाल के बाग़ पर हुआ करता है इसके कोनो पर अष्टकोणीय छतरियां बीचों बीच कमानीदार छतवाली लम्बी छतरी और बीच में समतल छतों वाली जालियों से बंद दो और छतरियां बनी है। भोग के बाद ताल कटोरा में ही तीज गणगौर को विसर्जित करने का रिवाज रहा है। लह-लहाते बाग़-बगीचों के बीच जलाशय के किनारे तीज गणगौर के रंगों भरे जुलूसों के यह नज़ारे पैलेस में अनेकों चित्रों के साथ लगे हैं और बहुत ही मनमोहक है। एक ज़माने में ब्रम्हपुरी और माधाव विलास से टकराने वाला राजमल का तालाब तीनो और से ताल कटोरे को घेरता थातो इसका नाम और भी सार्थक हो जाता था बड़े तालाब में तैरता हुआ कटोरा- ताल कटोरा।
पैलेस की सरहद में आये हुए इस तालाब में मगरमच्छों की संख्या बहुत अधिक थी इन्हे रोज महाराजा की ओर से खुराक पहुंचाई जाती थी और यह जानवर बड़े पालतू हो गए थे। खुराक लेकर जाने वाले कर्मचारी जब ताल कटोरे की पल पर खड़े होते तो बड़े बड़े मगर उनके हाथों अपना भोजन पाने के लिए सीढियाँ चढ़कर ऊपर आ जाते थे। मगरमच्छों को खिलने का यह सिलसिला भी खूब ही था जिन्होंने देखा है उन्हें अभी तक याद है, आज की पीढ़ी में तो शायद ही कोई ऐसा होगा जो वहां मगरमच्छ को देखा होगा हमलोगों आखिरी है जिन्होंने देखे है और याद है।
याद है की खास खास अवसरों पर ताल कटोरे में मगरमच्छों को खिलाने का तमाशा भी होता था। लम्बी रस्सी से बांध कर कोई ज़िंदा खुराक तालाब में छोड़ दी जाती थी उसी तरह जैसे शेर के लिए बकरी या पाड़े को बंधा जाता था फिर होती थी, मगरों में घमासान लड़ाई जब सबसे जोरदार जानवर इस खुराक को पकड़ लेता था तो होती थी उनके बीच एक रस्साकस्सी, बहुत द्वन्द हुआ करता था और कई बार तो रस्सियां टूट जाया करती थी या मगरमच्छ तालाब से बाहर आ जाया करते थे, हालाँकि यह तमाशा हमारे सामने नहीं हुआ परन्तु मगरमच्छों की ताल कटोरे में अंतिम उपस्थिति हमारे सामने रही है।
राजमल का तालाब और ताल कटोरा जयपुर बसने से पहले भी झील ही थे और इसके आस पास आमेर के महाराजा शिकार खेलने आया करते थे। जब सवाई जय सिंह ने जय निवास बाग़ और उसमे अपने महल बनवाये तो ताल कटोरे को मिला अपना वह स्वरुप जो आज भी देखा जाता है उस समय राजमल के तालाब को आम जनता के लिए छोड़ दिया गया था। इसमें पानी की आमद शहर के उत्तरी भाग और नाहरगढ़ की पहाड़ी से होती थी। बालानंद जी के मंदिर से लेकर तालाब तक पानी आने का रास्ता ‘नंदी’ कहलाता था और बहाव को नादरखाल कहते थे जो फतेहराम के टीबे के पास से बारह मोरियों में से होकर ताल कटोरे और राजमल के तालाब में पहुँचता था, पूरा भराव हो जाने पर माधोविलास के पश्चिम से इसका अतिरिक्त पानी निकल कर मानसागर या जलमहल में पहुँचता था जो की जयपुर से उत्तरी शहर का प्राकृतिक जल निकास था।
शहर के आस पास काफी झीलें थी और वहां पर राजा लोग शिकार किया करते थे जिनमे से कुछ एक पर तो पूरी तरह से कॉलोनियां बस चुकी है जैसे राजामल के तालाब पर कंवर नगर और सिंधी कॉलोनी, खातीपुरा औदी पर खातीपुरा, झालाना औदी और रामसागर औदी अभी भी वन्य क्षेत्र हैं।
आज तालकटोरे के नजदीक बहुत ही जटिल रिहाइश है समय के साथ रिहाइश ने नंदी को घेर लिया और नादरखाल ताल कटोरे तक पहुँच ही नहीं पायी और तालकटोरे सूखता गया। एक बार नंदी का रास्ता बंद होने के बाद ताल कटोरा कभी पूरा भर ही नहीं पाया, शहर के लोगों ने कई बार उसके पुनरुद्धार और संरक्षण के लिए कार्य किये और कई बार चरणबद्ध तरीके से सफाई के कार्यक्रम भी चलाये गए परन्तु हर बार की ही तरह अंतिम परिणाम वही रहा और ताल कटोरा न तो साफ़ हुआ न ही दुबारा उसमे पानी भरा। कई बार उसे कृत्रिम रूप से भरा भी गया पर पुनः लोगो के कचरा डालने और किसी भी रूप में रख रखाव के आभाव में उसमे जलकुम्भी ही उगी और स्थिर पानी सड़ता रहा और सूख गया। तालकटोरे को पुनर्जीवन देने के लिए अभी अंतिम प्रयास 2016 में जयपुर स्मार्ट सिटी के द्वारा किया गया जिसमे ताल कटोरे में फाउंटेन लगाया गया फ्लड लाइट लगाई और पानी साफ़ कर दुबारा भरा पर 2 ही सालों में वह भी ख़राब हो गया और पुनः वहां इसी प्रकार की गतिविधियों को चालू किया गया है और जलकुम्भियों की सफाई चल रही है। खैर निर्माण और पुनरुत्थान एक सतत प्रक्रिया है आशा है की जयपुर के लोग जाग्रत होंगे और इस अद्भुत तालकटोरे को वापिस कभी उसका पुराना स्वरुप या जीवन मिल पायेगा और नादरखाल के लिए कोई रास्ता तय होगा।
आज सभी शहर के ड्रेनेज सिस्टम को कोसते हैं, निगम ने शहर में फुटपाथ और सड़कों को चौड़ी करने के नाम पर सारे नालों को बंद कर दिया है और बेतरतीब तरीकों से बसी नयी कॉलोनियों ने अपने आप को प्राकृतिक बहाव क्षेत्र में बसा कर अपने पैरों पर खुद की कुल्हाड़ी मार ली है, अब बारिश का पानी उनके घरों में भरता है और नालों और निकासी द्वारों के बंद होने के कारण बाकि पानी सड़क पर भरता और बहता है जिससे सभी को अधिक बारिश वाले दिनों में समस्या का सामना करना पड़ता है और इसके खिलाफ निगम दो तर्क देता है पहला तर्क ये है की जयपुर में बारिश होती ही कहाँ है और दूसरा तर्क है की कुछ एक या दो दिन के पानी भरने के खिलाफ हम साल भर के ट्रैफिक की समस्या का भार अपने सर पर नहीं ले सकते। इसके काफी सरलतम उपाय किये जा सकते हैं इंदौर मॉडल को अपनाया जा सकता है अगर आप ये कहें की इंदौर एक मैदानी इलाका है जबकी जयपुर एक पहाड़ी तो भी इसके अनेक समाधान उपलब्ध है जिन्हे करके इस समस्या का हल निकाला जा सकता है।