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Stories in Hindi Stories of Cities

Jaipur ke Pratham Poojya

जयपुर की स्थापना महाराजा सवाई जयसिंह जी के द्वारा की गई। महाराजा सवाई जयसिंह जी स्वयं ज्योतिष, विज्ञान, यंत्र और वेधशालाओं के प्रकांड विद्वान थे अतः उन्होंने इसी प्रकार के विद्वानों को शहर में संरक्षण प्रदान किया। इसी क्रम में सवाई जयसिंह जी जब रत्नाकर पुंडरीक जी से मिले तो उन्हे अपना गुरु बनाया और उन्हें आमेर ले आए। जब अपने गुरु से उन्होंने आमेर से दक्षिण में एक नगर बसने की बात करी तब पुंडरीक जी ने उन्हे नगर स्थापना के साथ अश्वमेध यज्ञ करने के बारे में कहा और यहीं से प्रारंभ होती है जयपुर के प्रथम पूज्य गणेश जी के मंदिरों की, उनके स्थापत्य और स्थापना की कहानियां।

जयपुर की बसावट के साथ एक ओर नए शहर के लिए भूमि की सफाई और नींव की खुदाई चल रही थी वहीं दूसरी ओर अश्वमेध यज्ञ प्रारंभ हो रहा था, जिसके लिए जलमहल के साथ सुदर्शनगढ़ की पहाड़ियों की तलहटी में लगते एक स्थान को चिन्हित कर उसकी सफाई करवा सहस्र ब्राह्मणों और पुरोहितों के बैठने के लिए स्थान बनाया गया। इसी के साथ उसी स्थान पर यज्ञदण्ड को लगाया गया इस यज्ञ के लिए पुरोहित और ब्राह्मण पूरे विश्व से आए, देवता इस यज्ञ के साक्षी हुए, यह कलियुग का अभी तक का एकमात्र अश्वमेध हुआ और आगे होने की संभावना भी नहीं है क्युकी इस यज्ञ के नियमो का पालन करना और इतने लंबे समय तक यज्ञ को चला पाना आज और भविष्य में संभव नहीं है। इसके लिए भगवान वरदराज की मूर्ति को दक्षिण से हीदा मीणा के द्वारा लाया गया, जिसकी भी एक अलग कहानी है। सभी देवताओं को स्थापित करने के साथ सर्वप्रथम प्रारंभ हुई मंदार के गणेश की स्थापना और जयसिंह के द्वारा बनवाई गई वैदिक गणेश की प्रतिमा की प्राण प्रतिष्ठा, यह यज्ञ दस वर्षों तक चला और इसी बीच में रत्नाकर जी पुंडरीक और सवाई जयसिंह जी का भी देहांत हो गया जिसके पश्चात यज्ञ को रत्नाकर जी के पुत्र और सवाई जयसिंह के उत्तराधिकारी सवाई ईश्वरी सिंह के द्वारा संचालित किया गया। जब तक यज्ञ चलता रहा गणेश जी यज्ञ में विराजमान रहे। ऐसा कहा जाता है की पृथ्वी पर होने वाले अश्वमेध को देखने स्वयं त्रिदेव, देव यक्ष गंधर्वों सहित पधारते है। यहां भी कुछ ऐसा ही रहा और इस गणेश प्रतिमा को यज्ञ के पश्चात दक्षिण की ओर एक पहाड़ी पर, दक्षिणायन सूर्य बिंदु को देखते हुए स्थापित किया गया। यह स्थापना नगर के ठीक उत्तर में, उत्तरायण सूर्य बिंदु पर है और नगर, प्रतिमा स्थापना केंद्र से दक्षिण में है। यह स्थापना एक पहाड़ी के ऊपर है जहां से नगर का विस्तार दिखता है ताकि गणेश जी के दर्शन हर कोई कर सके और गणेश जी की दृष्टि पूरे नगर पर रहे। गणेश जी को विराजने के स्थान पर एक गढ़ का निर्माण किया गया और आज यह गणेश गढ़ गणेश के नाम से विश्वप्रसिद्ध है। यह जयपुर शहर में प्रथम पूज्य की प्रथम स्थापना थी। इसके पूजन और संरक्षण का दायित्व उसी समय यज्ञादि क्रियाओं के लिए बुलाए गए पंडितों में से एक गुजराती औदिच्य पंडित के परिवार को दिया गया जिनके वंशज आज भी मंदिर की प्रतिदिन उसी प्रकार से सेवा कर रहे हैं। यह मंदिर ब्रम्हपुरी में स्थित है।

Gadh Ganesh Ji, Bramhpuri

गढ़ गणेश के गणेश की प्रतिमा की तस्वीर नहीं ली जाती है और न ही लेनी चाहिए।

नागरिक प्रतिदिन प्रातःकाल में सूर्य को अर्घ्य देने के साथ में गणेश जी की पूजा कर लिया करते थे और जिन्हे गढ़ में स्थापित मंदिर जाना होना था वह पहाड़ी पर चढ़ मंदिर जाया करते थे, समय के साथ यह अनुभव किया गया की अनेक बुजुर्ग व अन्य व्यक्ति गणेश के दर्शन करने की अभिलाषा रखते है परंतु वह अपनी शारीरिक असमर्थता के कारण ऐसा नहीं कर पा रहे है। इसके लिए गढ़ पर स्थापित प्रतिमा से प्रेरणा ले पौराणिक प्रतिलिपि बना पहाड़ी की तलहटी में नहर के किनारे रखी गई जिससे ऊपर गढ़ पर दर्शन करने न जा पाने वाले व्यक्ति नीचे ही उनके दर्शन कर सके। नहर के साथ स्थापित करने की वजह से वह गणेश, नहर के गणेश नाम से प्रसिद्ध है और हर बुधवार व मुख्य दिनों में दोनो ही जगह दर्शनार्थियों का तांता लगा रहता है। यह मंदिर ब्रम्हपुरी में स्थित है।

Nahar ke Ganesh Ji, Bramhpuri

नहर के गणेश जी का मंदिर गढ़ गणेश से कुछ 100 वर्ष बाद का है, गढ़ गणेश के गणेश वैदिक गणेश है जबकि तलहटी में नहर के गणेश एक पौराणिक गणेश है जिनकी सूंड है और वामवर्ती है। दक्षिणावर्ती सूंड वाले गणेश सिद्धिविनायक होते है जिनको तंत्र साधना में तांत्रिकों द्वारा पूजा जाता है। गढ़ गणेश की तलहटी के पास बावड़ी पर तंत्र साधना करने वाले ब्रम्हचारी बाबा के द्वारा किए गए यज्ञ की राख से राम चंद्र ऋग्वेदी ने प्रतिमा का निर्माण कर उसकी प्राण प्रतिष्ठा करी और आज उन्ही की कुछ पांचवी छठी पीढ़ी गणेश की सेवा कर रही है। गौर करना आवश्यक है की भारत के अनेक शहरों में द्वार गणेश की परंपरा है अर्थात घर के द्वार के बाहर गणेश को स्थापित किया जाता है और उनका रोज पूजन किया जाता है, यहां यह समझना आवश्यक है की घरों के बाहर स्थापित गणेश प्रतिमा की पूजा प्रायः दैनिक रूप से की जाती ही है, परंतु वर्तमान परिस्थिति में किसी भी कारणवश, घर में किसी अत्यावश्यक कार्य के चलते, विवाह – जन्म – मृत्यु के चलते कई बार पूजा रह भी जाती है अतः चाहते हुए भी वहां पूजन का नियम परिस्थितिवश छूट भी सकता है अतः वहां स्थापित गणेश की प्रकृति भिन्न होनी चाहिए अतः गणेश का वह रूप सौम्य होना चाहिए, इसलिए प्रतिमा वामवर्ती सूंड की होनी चाहिए क्योंकि वह संकटनाशन गणेश का प्रतीक है और घरों को सभी प्रकार के संकटों से बचाते है। घर में तांत्रिक साधना वाली मूर्ति को नहीं लगाना चाहिए, ब्रम्हचारी बाबा जिनका प्रकरण बताया गया है प्रतिदिन गणेश की प्रत्यक्ष आराधना करते थे, और जितने भी सिद्धिविनायक गणेश मंदिर है प्राचीन समय में तांत्रिक क्रियाओं के लिए, तंत्र द्वारा स्थापित और पोषित है। अतः नहर के गणेश एक संकटनाशक गणेश है।

अनेक व्यक्तियों द्वारा आज के समय में तर्क दिया जाता है की द्वार गणेश की धारणा गलत है क्योंकि यहां आप गणेश की प्रतिमा घर से बाहर देखते हुए लगाते है और गणेश का मुख आपके घर की ओर न होकर बाहर की ओर है जिससे आपके परिवार पर गणेश की कृपा नहीं होगी क्योंकि आपके उन्हे घर से बाहर देखते हुए उनकी पीठ को घर की ओर रखा है जबकि वास्तविकता में उस गणेश प्रतिमा की स्थापना बाहर से आने वाले संकटों से बचने के लिए की जाती है ताकि गणेश द्वारा उन संकटों से परिवार की रक्षा की जा सके, परिवार पर कृपा करने के लिए गणेश को घर के मंदिरों में स्थापित किया जाता है, द्वार के बाहर या अंदर की तरफ नहीं।

शहर की स्थापना के समय से ही बसाए गए सभी लोगो द्वारा गणेश के प्रथम दर्शन कर और जयपुर के आराध्य देव के दर्शन कर ही अपने अपने कार्यस्थलों की ओर जाना और कार्य प्रारंभ करना हुआ करता था। ब्राह्मणों, वैश्यों, कलाकारों के लिए कालांतर में मानक चौक (बड़ी चौपड़) पर भी गणेश की स्थापना की गई थी जिनका नाम ध्वजाधीष गणेश है जयपुर के जौहरी अपने संस्थानों में व कटले में आने से पहले प्रतिदिन गणेश जी के दर्शन आवश्यक रूप से करते है। इन गणेश की सेवा भी उसी परिवार द्वारा की जा रही है।

कालांतर में शहर का विस्तार जब दक्षिण की ओर हुआ तो राजपरिवार ने एक शहर के बीच अंगूठी में मोती की तरह स्थित एक पहाड़ी पर अपना महल बनाया जिसे आज सब मोती डूंगरी के नाम से जानते है। यहाँ मोती डूंगरी के बायीं ओर गणेश जी का एक और मंदिर है। जिसकी प्रतिमा सवाई माधो सिंह जी प्रथम की पटरानी के द्वारा 1761 में अपने पीहर से लाई गई थी और वहां यह गुजरात से आई थी। इस मूर्ति की प्राचीनता के बारे में कहा जाता है की जब यह पटरानी के पीहर में आई थी तब यह लगभग 500 वर्ष पुरानी थी। यह एक सिद्धिविनायक की मूर्ति है अर्थात इसकी सूंड दक्षिण की ओर है इन गणेश की स्थापना पूर्व की ओर पीठ करके की गई है। यह मंदिर स्थानीय विशेषता के नाम से ही जाना जाता है मोती डूंगरी गणेश । नगर के सेठ पालीवाल इस मूर्ति को वहां से अपने साथ में लेकर आए थे, उन्ही की देख रेख में मंदिर का निर्माण किया गया है और उन्ही के साथ मंदिर निर्माण की तकनीक को देखने वाले पंडित शिव नारायण शर्मा जी के वंशज आज भी इसकी पूजा कर रहे है। आज के समय में यह प्रतिमा लगभग 761 वर्ष प्राचीन हो गई है।

Moti Dungari Ganesh Ji, Moti Dungari

इसी के साथ शहर में उत्तर पूर्व ईशान कोण में रामगंज क्षेत्र के सूरजपोल में स्थित है श्वेत सिद्धिविनायक मंदिर, यहां गणेश की प्रतिमा श्वेत संगमरमर से बनी है इसलिए इन्हे श्वेत सिद्धिविनायक कहा जाता है। इस मंदिर की दो विशेष बातें है

  1. यहां गणेश के साथ राधा व कृष्ण भी विराजमान है
    और
  2. यहां यमराज के सहायक चित्रगुप्त भी विराजित है

मंदिर के स्थापत्य, शैली और राधा कृष्ण के प्रभाव की वजह से यह सवाई राम सिंह जी के काल का मंदिर प्रतीत होता है। इसके ईशान में स्थापित होने के पीछे यह कारण बताया जाता है की इसे चित्रगुप्त के लिए लोगो के कर्मों का लेखा जोखा रखने के लिए बनाया गया था। यहां ब्राह्मण रूप के गणेश के आभूषण सर्पाकार है और गणेश के जनेऊ का आकार भी वही है। यहां पर दीपावली से एक दिन पहले यम चतुर्दशी पर यज्ञ का आयोजन किया जाता है।

Shwet Siddhi Vinayak Ji, Suraj Pol

इन सभी मंदिरों में बुधवार, चतुर्थी, पुष्य नक्षत्र, रविपुष्य, गणेश चतुर्थी के दिन लोगो की भीड़ लगी ही रहती है। शहर की एक परंपरा यह भी है की गणेश चतुर्थी के अगले दिन शुभ मुहूर्त में मोती डूंगरी गणेश से नहर के गणेश तक गणेश जी की सवारी निकाली जाती है और दोनो ही मुख्य स्थानों पर मेला भरता है जिसमे भिन्न भिन्न आकर्षण रहते है।

जयपुर की स्थापना के समय से ही जयपुर के प्रथम पूज्य के लिए नागरिकों में वही विशेषता, प्रभाव और श्रद्धा है जो स्थापना के समय हुआ करती थी, शहर की भाग दौड़ और भीड़ के बीच में आज भी यह मंदिर अपना विशेष स्थान रखते है। नागरिक अपने घर के मंगलकार्यों में प्रथम निमंत्रण प्रथम पूज्य को ही देते है, अपने नए वाहनों को ले सर्वप्रथम इन्ही के आशीर्वाद लेने जाते है, अपने दैनिक कार्यों को प्रारंभ करने से पहले इन्ही के दर्शन करते है। प्रभाव इतना है की बाहर से आने वाले लोग भी अपने काम को करने से पहले इनका आशीर्वाद लेना व दर्शन करना नही भूलते, चाहे वह कोई राजनीतिक दल के नेता हो, बॉलीवुड के महानायक अमिताभ बच्चन या सबसे बड़े उद्योगपति मुकेश अंबानी, प्रथम पूज्य के लिए सभी समान है और सभी पर वे समान रूप से कृपा बनाए रखते है।
जयपुर आने वाले यात्री भी अपनी यात्रा इन्ही मंदिरों के प्रातः काल दर्शन कर प्रारंभ करते है।

Kale Ganesh Ji, Chaura Rasta

आज यहाँ बात जयपुर के प्रथम पूज्य के बारे में कर रहा हूँ। आगे सभी मंदिरों के बसावट की कहानी और स्थापत्य का वर्णन विस्तार से करूँगा। जयपुर शहर में गणेश के प्राचीन मंदिरों की संख्या बहुत है जैसे चौड़े रस्ते के काळा गणेश, कुंड के गणेश, गंगापोल गणेश मंदिर, खोले के हनुमान मंदिर के गणेश, घाट के प्राचीन गणेश। हर मंदिर के साथ में गणेश मंदिर और उन मंदिरों के द्वार गणेश की पूजा होती है।

वैदिक गणेश और पौराणिक गणेश में अंतर होता है। वैदिक गणेश के सूंड नहीं है अनेक पंडित उसे गणेश के बाल रूप से संलग्न करते है परंतु वह भी पूर्ण रूप से उचित नहीं है अनेक स्थानों पर और क्रियाओं में गणेश के बाल रूप का ध्यान और दर्शन किया जाता है परन्तु वह वैदिक गणेश का पूर्ण रूप नहीं है। वैदिक गणेश एक प्रत्यक्ष तत्व है, ब्रम्ह है, आत्मन है, चिन्मय है, सांख्ययियों के लिए वे सत-चित-आनंद सच्चिदानंद है, वे तीनो गुणों से बाहर है, नित्य है और योगियों के मूलाधार में स्थित है जिनका योगी हर समय ध्यान और जाप करते रहते है। वैदिक गणेश मूलाधार में स्थित है और पुरुष रुपी है।

पौराणिक गणेश वे गणेश है जिनकी प्रतिमाएं सभी मंदिरों में देखी जाती है। जिनके एक सूंड है, जो क्रिया के अनुसार वाम और दक्षिणा वर्ती हो सकती है। सामुद्रिक शास्त्र की सहायता से उनके रूप को वैदिक रूप में समझा जा सकता है। यह गणेश, गजानन है। लम्बी नासिका का होना बुद्धि का सूचक है इसी भाव का अनुसरण करके गणपति को लम्बी नासिका देकर विश्व में बुद्धिमान बना दिया गया है, अतः वह बुद्धि से अधीश्वर है। इनके जितने रूपों को कल्पना की जाये उन सभी में अखंडित सत्ता की उपासना होती है और उसी अनुसार भिन्न भिन्न रूपों का निर्माण किया जाता है, इसी क्रम में गणेश पुराण के अनुसार गणेश के भिन्न 32 रूप है, जैसे ॐकार गणेश, नटेश, विनायक, श्वेतार्क, बाल, तरुण, लक्ष्मी, रिद्धि इत्यादी।

गणेश के विश्व में अनेक रूप हैं जिनमे से भारत के सुचिन्द्रम में स्त्री रूप भी है जिसे गणेशी कहा जाता है।

तो जब भी कभी जयपुर आना हो तो प्रथम पूज्य के दर्शन हेतु जरूर जाइएगा और देखिएगा की कैसे जयपुर की स्थापना के समय से आज तक मंदिरों को समय समय पर बनाया गया, थोड़ी देर ध्यान लगा समझने का प्रयास कीजिएगा की लोगो की आस्था के प्रतीक ये महान मंदिर आज भी कैसे उसी संस्कृति, परंपरा और विश्वास को कायम रखने में समर्थ है और पूरे विश्व के हृदय में बसते है।