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Jaipur ke Pratham Poojya

जयपुर की स्थापना महाराजा सवाई जयसिंह जी के द्वारा की गई। महाराजा सवाई जयसिंह जी स्वयं ज्योतिष, विज्ञान, यंत्र और वेधशालाओं के प्रकांड विद्वान थे अतः उन्होंने इसी प्रकार के विद्वानों को शहर में संरक्षण प्रदान किया। इसी क्रम में सवाई जयसिंह जी जब रत्नाकर पुंडरीक जी से मिले तो उन्हे अपना गुरु बनाया और उन्हें आमेर ले आए। जब अपने गुरु से उन्होंने आमेर से दक्षिण में एक नगर बसने की बात करी तब पुंडरीक जी ने उन्हे नगर स्थापना के साथ अश्वमेध यज्ञ करने के बारे में कहा और यहीं से प्रारंभ होती है जयपुर के प्रथम पूज्य गणेश जी के मंदिरों की, उनके स्थापत्य और स्थापना की कहानियां।

जयपुर की बसावट के साथ एक ओर नए शहर के लिए भूमि की सफाई और नींव की खुदाई चल रही थी वहीं दूसरी ओर अश्वमेध यज्ञ प्रारंभ हो रहा था, जिसके लिए जलमहल के साथ सुदर्शनगढ़ की पहाड़ियों की तलहटी में लगते एक स्थान को चिन्हित कर उसकी सफाई करवा सहस्र ब्राह्मणों और पुरोहितों के बैठने के लिए स्थान बनाया गया। इसी के साथ उसी स्थान पर यज्ञदण्ड को लगाया गया इस यज्ञ के लिए पुरोहित और ब्राह्मण पूरे विश्व से आए, देवता इस यज्ञ के साक्षी हुए, यह कलियुग का अभी तक का एकमात्र अश्वमेध हुआ और आगे होने की संभावना भी नहीं है क्युकी इस यज्ञ के नियमो का पालन करना और इतने लंबे समय तक यज्ञ को चला पाना आज और भविष्य में संभव नहीं है। इसके लिए भगवान वरदराज की मूर्ति को दक्षिण से हीदा मीणा के द्वारा लाया गया, जिसकी भी एक अलग कहानी है। सभी देवताओं को स्थापित करने के साथ सर्वप्रथम प्रारंभ हुई मंदार के गणेश की स्थापना और जयसिंह के द्वारा बनवाई गई वैदिक गणेश की प्रतिमा की प्राण प्रतिष्ठा, यह यज्ञ दस वर्षों तक चला और इसी बीच में रत्नाकर जी पुंडरीक और सवाई जयसिंह जी का भी देहांत हो गया जिसके पश्चात यज्ञ को रत्नाकर जी के पुत्र और सवाई जयसिंह के उत्तराधिकारी सवाई ईश्वरी सिंह के द्वारा संचालित किया गया। जब तक यज्ञ चलता रहा गणेश जी यज्ञ में विराजमान रहे। ऐसा कहा जाता है की पृथ्वी पर होने वाले अश्वमेध को देखने स्वयं त्रिदेव, देव यक्ष गंधर्वों सहित पधारते है। यहां भी कुछ ऐसा ही रहा और इस गणेश प्रतिमा को यज्ञ के पश्चात दक्षिण की ओर एक पहाड़ी पर, दक्षिणायन सूर्य बिंदु को देखते हुए स्थापित किया गया। यह स्थापना नगर के ठीक उत्तर में, उत्तरायण सूर्य बिंदु पर है और नगर, प्रतिमा स्थापना केंद्र से दक्षिण में है। यह स्थापना एक पहाड़ी के ऊपर है जहां से नगर का विस्तार दिखता है ताकि गणेश जी के दर्शन हर कोई कर सके और गणेश जी की दृष्टि पूरे नगर पर रहे। गणेश जी को विराजने के स्थान पर एक गढ़ का निर्माण किया गया और आज यह गणेश गढ़ गणेश के नाम से विश्वप्रसिद्ध है। यह जयपुर शहर में प्रथम पूज्य की प्रथम स्थापना थी। इसके पूजन और संरक्षण का दायित्व उसी समय यज्ञादि क्रियाओं के लिए बुलाए गए पंडितों में से एक गुजराती औदिच्य पंडित के परिवार को दिया गया जिनके वंशज आज भी मंदिर की प्रतिदिन उसी प्रकार से सेवा कर रहे हैं। यह मंदिर ब्रम्हपुरी में स्थित है।

Gadh Ganesh Ji, Bramhpuri

गढ़ गणेश के गणेश की प्रतिमा की तस्वीर नहीं ली जाती है और न ही लेनी चाहिए।

नागरिक प्रतिदिन प्रातःकाल में सूर्य को अर्घ्य देने के साथ में गणेश जी की पूजा कर लिया करते थे और जिन्हे गढ़ में स्थापित मंदिर जाना होना था वह पहाड़ी पर चढ़ मंदिर जाया करते थे, समय के साथ यह अनुभव किया गया की अनेक बुजुर्ग व अन्य व्यक्ति गणेश के दर्शन करने की अभिलाषा रखते है परंतु वह अपनी शारीरिक असमर्थता के कारण ऐसा नहीं कर पा रहे है। इसके लिए गढ़ पर स्थापित प्रतिमा से प्रेरणा ले पौराणिक प्रतिलिपि बना पहाड़ी की तलहटी में नहर के किनारे रखी गई जिससे ऊपर गढ़ पर दर्शन करने न जा पाने वाले व्यक्ति नीचे ही उनके दर्शन कर सके। नहर के साथ स्थापित करने की वजह से वह गणेश, नहर के गणेश नाम से प्रसिद्ध है और हर बुधवार व मुख्य दिनों में दोनो ही जगह दर्शनार्थियों का तांता लगा रहता है। यह मंदिर ब्रम्हपुरी में स्थित है।

Nahar ke Ganesh Ji, Bramhpuri

नहर के गणेश जी का मंदिर गढ़ गणेश से कुछ 100 वर्ष बाद का है, गढ़ गणेश के गणेश वैदिक गणेश है जबकि तलहटी में नहर के गणेश एक पौराणिक गणेश है जिनकी सूंड है और वामवर्ती है। दक्षिणावर्ती सूंड वाले गणेश सिद्धिविनायक होते है जिनको तंत्र साधना में तांत्रिकों द्वारा पूजा जाता है। गढ़ गणेश की तलहटी के पास बावड़ी पर तंत्र साधना करने वाले ब्रम्हचारी बाबा के द्वारा किए गए यज्ञ की राख से राम चंद्र ऋग्वेदी ने प्रतिमा का निर्माण कर उसकी प्राण प्रतिष्ठा करी और आज उन्ही की कुछ पांचवी छठी पीढ़ी गणेश की सेवा कर रही है। गौर करना आवश्यक है की भारत के अनेक शहरों में द्वार गणेश की परंपरा है अर्थात घर के द्वार के बाहर गणेश को स्थापित किया जाता है और उनका रोज पूजन किया जाता है, यहां यह समझना आवश्यक है की घरों के बाहर स्थापित गणेश प्रतिमा की पूजा प्रायः दैनिक रूप से की जाती ही है, परंतु वर्तमान परिस्थिति में किसी भी कारणवश, घर में किसी अत्यावश्यक कार्य के चलते, विवाह – जन्म – मृत्यु के चलते कई बार पूजा रह भी जाती है अतः चाहते हुए भी वहां पूजन का नियम परिस्थितिवश छूट भी सकता है अतः वहां स्थापित गणेश की प्रकृति भिन्न होनी चाहिए अतः गणेश का वह रूप सौम्य होना चाहिए, इसलिए प्रतिमा वामवर्ती सूंड की होनी चाहिए क्योंकि वह संकटनाशन गणेश का प्रतीक है और घरों को सभी प्रकार के संकटों से बचाते है। घर में तांत्रिक साधना वाली मूर्ति को नहीं लगाना चाहिए, ब्रम्हचारी बाबा जिनका प्रकरण बताया गया है प्रतिदिन गणेश की प्रत्यक्ष आराधना करते थे, और जितने भी सिद्धिविनायक गणेश मंदिर है प्राचीन समय में तांत्रिक क्रियाओं के लिए, तंत्र द्वारा स्थापित और पोषित है। अतः नहर के गणेश एक संकटनाशक गणेश है।

अनेक व्यक्तियों द्वारा आज के समय में तर्क दिया जाता है की द्वार गणेश की धारणा गलत है क्योंकि यहां आप गणेश की प्रतिमा घर से बाहर देखते हुए लगाते है और गणेश का मुख आपके घर की ओर न होकर बाहर की ओर है जिससे आपके परिवार पर गणेश की कृपा नहीं होगी क्योंकि आपके उन्हे घर से बाहर देखते हुए उनकी पीठ को घर की ओर रखा है जबकि वास्तविकता में उस गणेश प्रतिमा की स्थापना बाहर से आने वाले संकटों से बचने के लिए की जाती है ताकि गणेश द्वारा उन संकटों से परिवार की रक्षा की जा सके, परिवार पर कृपा करने के लिए गणेश को घर के मंदिरों में स्थापित किया जाता है, द्वार के बाहर या अंदर की तरफ नहीं।

शहर की स्थापना के समय से ही बसाए गए सभी लोगो द्वारा गणेश के प्रथम दर्शन कर और जयपुर के आराध्य देव के दर्शन कर ही अपने अपने कार्यस्थलों की ओर जाना और कार्य प्रारंभ करना हुआ करता था। ब्राह्मणों, वैश्यों, कलाकारों के लिए कालांतर में मानक चौक (बड़ी चौपड़) पर भी गणेश की स्थापना की गई थी जिनका नाम ध्वजाधीष गणेश है जयपुर के जौहरी अपने संस्थानों में व कटले में आने से पहले प्रतिदिन गणेश जी के दर्शन आवश्यक रूप से करते है। इन गणेश की सेवा भी उसी परिवार द्वारा की जा रही है।

कालांतर में शहर का विस्तार जब दक्षिण की ओर हुआ तो राजपरिवार ने एक शहर के बीच अंगूठी में मोती की तरह स्थित एक पहाड़ी पर अपना महल बनाया जिसे आज सब मोती डूंगरी के नाम से जानते है। यहाँ मोती डूंगरी के बायीं ओर गणेश जी का एक और मंदिर है। जिसकी प्रतिमा सवाई माधो सिंह जी प्रथम की पटरानी के द्वारा 1761 में अपने पीहर से लाई गई थी और वहां यह गुजरात से आई थी। इस मूर्ति की प्राचीनता के बारे में कहा जाता है की जब यह पटरानी के पीहर में आई थी तब यह लगभग 500 वर्ष पुरानी थी। यह एक सिद्धिविनायक की मूर्ति है अर्थात इसकी सूंड दक्षिण की ओर है इन गणेश की स्थापना पूर्व की ओर पीठ करके की गई है। यह मंदिर स्थानीय विशेषता के नाम से ही जाना जाता है मोती डूंगरी गणेश । नगर के सेठ पालीवाल इस मूर्ति को वहां से अपने साथ में लेकर आए थे, उन्ही की देख रेख में मंदिर का निर्माण किया गया है और उन्ही के साथ मंदिर निर्माण की तकनीक को देखने वाले पंडित शिव नारायण शर्मा जी के वंशज आज भी इसकी पूजा कर रहे है। आज के समय में यह प्रतिमा लगभग 761 वर्ष प्राचीन हो गई है।

Moti Dungari Ganesh Ji, Moti Dungari

इसी के साथ शहर में उत्तर पूर्व ईशान कोण में रामगंज क्षेत्र के सूरजपोल में स्थित है श्वेत सिद्धिविनायक मंदिर, यहां गणेश की प्रतिमा श्वेत संगमरमर से बनी है इसलिए इन्हे श्वेत सिद्धिविनायक कहा जाता है। इस मंदिर की दो विशेष बातें है

  1. यहां गणेश के साथ राधा व कृष्ण भी विराजमान है
    और
  2. यहां यमराज के सहायक चित्रगुप्त भी विराजित है

मंदिर के स्थापत्य, शैली और राधा कृष्ण के प्रभाव की वजह से यह सवाई राम सिंह जी के काल का मंदिर प्रतीत होता है। इसके ईशान में स्थापित होने के पीछे यह कारण बताया जाता है की इसे चित्रगुप्त के लिए लोगो के कर्मों का लेखा जोखा रखने के लिए बनाया गया था। यहां ब्राह्मण रूप के गणेश के आभूषण सर्पाकार है और गणेश के जनेऊ का आकार भी वही है। यहां पर दीपावली से एक दिन पहले यम चतुर्दशी पर यज्ञ का आयोजन किया जाता है।

Shwet Siddhi Vinayak Ji, Suraj Pol

इन सभी मंदिरों में बुधवार, चतुर्थी, पुष्य नक्षत्र, रविपुष्य, गणेश चतुर्थी के दिन लोगो की भीड़ लगी ही रहती है। शहर की एक परंपरा यह भी है की गणेश चतुर्थी के अगले दिन शुभ मुहूर्त में मोती डूंगरी गणेश से नहर के गणेश तक गणेश जी की सवारी निकाली जाती है और दोनो ही मुख्य स्थानों पर मेला भरता है जिसमे भिन्न भिन्न आकर्षण रहते है।

जयपुर की स्थापना के समय से ही जयपुर के प्रथम पूज्य के लिए नागरिकों में वही विशेषता, प्रभाव और श्रद्धा है जो स्थापना के समय हुआ करती थी, शहर की भाग दौड़ और भीड़ के बीच में आज भी यह मंदिर अपना विशेष स्थान रखते है। नागरिक अपने घर के मंगलकार्यों में प्रथम निमंत्रण प्रथम पूज्य को ही देते है, अपने नए वाहनों को ले सर्वप्रथम इन्ही के आशीर्वाद लेने जाते है, अपने दैनिक कार्यों को प्रारंभ करने से पहले इन्ही के दर्शन करते है। प्रभाव इतना है की बाहर से आने वाले लोग भी अपने काम को करने से पहले इनका आशीर्वाद लेना व दर्शन करना नही भूलते, चाहे वह कोई राजनीतिक दल के नेता हो, बॉलीवुड के महानायक अमिताभ बच्चन या सबसे बड़े उद्योगपति मुकेश अंबानी, प्रथम पूज्य के लिए सभी समान है और सभी पर वे समान रूप से कृपा बनाए रखते है।
जयपुर आने वाले यात्री भी अपनी यात्रा इन्ही मंदिरों के प्रातः काल दर्शन कर प्रारंभ करते है।

Kale Ganesh Ji, Chaura Rasta

आज यहाँ बात जयपुर के प्रथम पूज्य के बारे में कर रहा हूँ। आगे सभी मंदिरों के बसावट की कहानी और स्थापत्य का वर्णन विस्तार से करूँगा। जयपुर शहर में गणेश के प्राचीन मंदिरों की संख्या बहुत है जैसे चौड़े रस्ते के काळा गणेश, कुंड के गणेश, गंगापोल गणेश मंदिर, खोले के हनुमान मंदिर के गणेश, घाट के प्राचीन गणेश। हर मंदिर के साथ में गणेश मंदिर और उन मंदिरों के द्वार गणेश की पूजा होती है।

वैदिक गणेश और पौराणिक गणेश में अंतर होता है। वैदिक गणेश के सूंड नहीं है अनेक पंडित उसे गणेश के बाल रूप से संलग्न करते है परंतु वह भी पूर्ण रूप से उचित नहीं है अनेक स्थानों पर और क्रियाओं में गणेश के बाल रूप का ध्यान और दर्शन किया जाता है परन्तु वह वैदिक गणेश का पूर्ण रूप नहीं है। वैदिक गणेश एक प्रत्यक्ष तत्व है, ब्रम्ह है, आत्मन है, चिन्मय है, सांख्ययियों के लिए वे सत-चित-आनंद सच्चिदानंद है, वे तीनो गुणों से बाहर है, नित्य है और योगियों के मूलाधार में स्थित है जिनका योगी हर समय ध्यान और जाप करते रहते है। वैदिक गणेश मूलाधार में स्थित है और पुरुष रुपी है।

पौराणिक गणेश वे गणेश है जिनकी प्रतिमाएं सभी मंदिरों में देखी जाती है। जिनके एक सूंड है, जो क्रिया के अनुसार वाम और दक्षिणा वर्ती हो सकती है। सामुद्रिक शास्त्र की सहायता से उनके रूप को वैदिक रूप में समझा जा सकता है। यह गणेश, गजानन है। लम्बी नासिका का होना बुद्धि का सूचक है इसी भाव का अनुसरण करके गणपति को लम्बी नासिका देकर विश्व में बुद्धिमान बना दिया गया है, अतः वह बुद्धि से अधीश्वर है। इनके जितने रूपों को कल्पना की जाये उन सभी में अखंडित सत्ता की उपासना होती है और उसी अनुसार भिन्न भिन्न रूपों का निर्माण किया जाता है, इसी क्रम में गणेश पुराण के अनुसार गणेश के भिन्न 32 रूप है, जैसे ॐकार गणेश, नटेश, विनायक, श्वेतार्क, बाल, तरुण, लक्ष्मी, रिद्धि इत्यादी।

गणेश के विश्व में अनेक रूप हैं जिनमे से भारत के सुचिन्द्रम में स्त्री रूप भी है जिसे गणेशी कहा जाता है।

तो जब भी कभी जयपुर आना हो तो प्रथम पूज्य के दर्शन हेतु जरूर जाइएगा और देखिएगा की कैसे जयपुर की स्थापना के समय से आज तक मंदिरों को समय समय पर बनाया गया, थोड़ी देर ध्यान लगा समझने का प्रयास कीजिएगा की लोगो की आस्था के प्रतीक ये महान मंदिर आज भी कैसे उसी संस्कृति, परंपरा और विश्वास को कायम रखने में समर्थ है और पूरे विश्व के हृदय में बसते है।

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Panna Miyan/Panna Miyan ka Kund

बड़े और प्रसिद्द शहरों को बनाने और बिगड़ने में मुख्य रूप से उसके अपने ही लोगों का हाथ होता है हालाँकि इतिहास में ऐसे भी अनेक उदहारण हैं जहाँ शहर किसी बाहरी आक्रांता के कारण उजड़े हैं, बाहरी व्यक्ति के कारण शहरों का बसना परीकथाओं में ही देखा गया है या फिर सपनों का देश अमेरिका एक इसका उदहारण है।

इसी तरह शहर के बन जाने और पर्याप्त रूप से बस जाने के बाद सवाई जय सिंह भी आमेर के किले को छोड़ कर नगर वाले नए किले में रहने आ गये यह बात कुछ 1725 के आस पास की होगी। महाराजा का विवाह हुआ उदयपुर की राजकुमारी चंद्रकुंवर बाई से और चूँकि यह एक राजनीतिक और सुलह सम्बन्ध था तो इसकी कुछ शर्तें थी जिसमे मुख्य शर्त यह थी की यह रानी ही पटरानी बनेगी और पूर्व विवाह व भावी विवाह का फर्क नहीं पड़ना चाहिए। हर त्योंहार को राजा इन्ही के साथ मानाने को बाध्य है एवं हर युद्ध से लौट कर वह सबसे पहले मेवाड़ी रानी या सिसोदिया रानी के पास ही आएगा। इन शर्तों के गंभीर और भावी राजनीतिक परिणाम रहने वाले थे।

यहीं पर गौरतलब है की मेवाड़ से रानी, दहेज़, पडतायतों और दसियों के साथ जयपुर आया एक खोजा (हिंजड़ा), उस समय चंद्रमहल के साथ बनी जनानी-ड्योढ़ी में राजा की 27 रानियां थी और इन शर्तों के अनुसार सिर्फ अंदेशा ही लगाया जा सकता है की किस राजनीतिक परिवर्तन को राजा ने अपनी शर्तों और विवाह के साथ स्वीकार कर लिया था। उस समय महिलाओं की समाज में कोई अच्छी स्थिति नहीं थी वैसा ही राजतंत्र में भी था इस कारण जनानी ड्योढ़ी के उस समय के दस्तावेज उपलब्ध नहीं है क्यूंकि उन्हें लिखने की जरूरत कभी महसूस ही नहीं हुई। पहले ही रानियों की ख़राब स्थिति और उसमे सिसोदिया रानी की यह शर्तें इन्होने जरूर काफी हंगामा खड़ा किया होगा।

ज्ञात दस्तावेजों के अनुसार मेवाड़ से रानी से साथ आया खोजा जनानी ड्योढ़ी का प्रमुख खोजा बन गया, जनानी-ड्योढ़ी के रख रखाव और व्यवस्था के लिए खोजों को ही रखा जाता था; राजा व सम्बंधित राजकुमार के अलावा किसी और पुरुष का प्रवेश वर्जित था।
दस्तावेज कहते है की खोजा पहले मुग़ल हरम में हुआ करता था परन्तु जयसिंह के पिता मिर्जा राजा विष्णु सिंह उसे आमेर ले आया था। यह भी स्पष्ट होता है की खोजे ने मथुरा-वृन्दावन में जयपुर की ओर से अच्छी संपत्ति खरीदी थी। उसकी अपनी जायदाद भी काफी थी जो उसके मरने के बाद पुनः राज की हो गई थी। पोथीखाने के कई चित्रों पर उसकी मोहर है अर्थात वह एक कुशल चित्रकार भी था जो अधिकतर समय जननी-ड्योढ़ी की महिलाओं के चित्र बनाया करता था।

इस खोजे का नाम था पन्ना मियां जिसका बनवाया हुआ सुप्रसिद्ध कुंड आमेर में अम्बिकेश्वर जी के मंदिर के पीछे बिहारी जी के मंदिर के पास बना हुआ है जिसका नाम है पन्ना मियां का कुंड अपभ्रंश में इसे पन्ना मीणा का कुंड भी कहा जाता है चूँकि आमेर में मीणाओं का हमेशा बोलबाला रहा है इसलिए इस थ्योरी को भी कुछ लोगो द्वारा मान लिया गया है परन्तु इसका सही नाम पन्ना मियां का कुंड ही है। बाहर वाले इसे सीढ़ीनुमा कुंड या जयपुर’स फेमस स्टेप वेल के नाम से जानते है। क्या आपको हमारे समाज को देखते हुए यह उम्मीद थी की एक हिजड़े का बनवाया हुआ कुंड विश्व में आज इतना प्रसिद्द होगा।

चूँकि पन्ना मियां जनानी-ड्योढ़ी का सिर्फ तुच्छ समझी जाने वाली प्रकृति का व्यक्ति था इसलिए उसके बारे में लिखित दस्तावेजों का उपलब्ध होना असंभव है परन्तु चूँकि वह प्रभारी खोजा था इसलिए उसके किये कुछ कामों का रिकॉर्ड मिला है जिससे ये उपर्लिखित तथ्य स्पष्ट होते हैं।

कभी भी अब आमेर जाएँ और पन्ना मिया कुंड पर कुछ देर रुकें और देखें की एक खोजे का जयपुर पर्यटन में कितना योगदान है और कल्पना करे कि उसने किस प्रकार किन संघर्षों को झेल कर अपना नाम एक शहर के इतिहास में दर्ज करवाया है।

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Martin Sahab ka Chowk

जब मिर्जा राजा सवाई जयसिंह जी 1720 में अपने सपनों की नगरी जयपुर को बसाने के बारे में सोच रहे थे तब काफी सोचा विचारी से उन्होंने अपने मित्र और सहपाठी विद्याधर जी चक्रवर्ती को अपना मुख्य नगर योजनाकार बनाया। चूंकि वह बहुत कम उम्र में ही गद्दी पर आ गए थे इसलिए जोश और नए विचारों से हमेशा ओतप्रोत रहते थे। प्रशासन, ज्योतिष, वेधशाला, वास्तुकला, खगोलशास्त्र, भूगोल, ज्यामिति इत्यादि के प्रकांड ज्ञाता को अपने इन्ही विचारों से सम्मिलित एक सुनियोजित नगर बसने का विचार आया और इसकी योजना शुरू हुई।

जब राजकुमार जय सिंह अध्ययन कर रहे थे उस समय भारत में औरंगजेब का शासन था, 1528 में भारत आये पुर्तगाली तब तक मुग़ल दरबार में अच्छा सम्मान ले चुके थे और अच्छे पदों पर आधिपत्य हो चुका था। भयंकर राजनीतिक उथल पुथल का समय था, औरंगजेब का अत्याचार काफी था और आतंरिक विद्रोह फिर से अपने चरम पर था। जिससे उसके पुत्रों में भी आपसी द्वंद्व पैदा हो गया था और गोलकोण्डा के युद्ध के बाद औरंगजेब अधिक समय तक नहीं रह पाए और बहादुर शाह I अगले मुग़ल बादशाह बने। पद ग्रहण करने पर परंपरा अनुसार सभी को अपने उच्च अधिकारी के समक्ष प्रस्तुत होना पड़ता है उसी प्रकार जय सिंह भी आमेर की गद्दी को ग्रहण करने के बाद औरंगजेब के सामने प्रस्तुत हुए थे जहां से उन्हें पुर्तगाली वास्तुकला और विज्ञान के ज्ञाता ज़ेवियर डे’सिल्वा जैसा मित्र मिला। ज़ेवियर डे’सिल्वा जय सिंह के साथ आमेर आये और विद्याधर जी के सानिध्य में नए नगर के मानचित्रकार बन गए।

नगर का निर्माण कैसे हुआ और किन प्राकृतिक और खगोलिया सन्दर्भों को लेकर इसे बनाया गया उस बारे में चर्चा कभी और पर यहां एक व्यक्ति बहुत महत्वपूर्ण भूमिका में प्रस्तुत होते है जिनका नगर के इतिहास में भी कुछ खास वर्णन नहीं है परन्तु शहर की बनावट और इसकी इमारतों में उसका प्रभाव देखते ही बनता है। जयपुर को पर्यटकों द्वारा राजपूत-मुग़ल आर्किटेक्चर का एक अद्भुत नमूना माना जाता है जबकि यह शहर राजपूत-मुग़ल-पुर्तगाली शैली से बना विश्व का सबसे पहला सुनियोजित शहर है। इस शहर का यह स्पर्श आया ज़ेवियर डी’सिल्वा के कारण, जिनका परिवार जयपुर की योजना और नियोजन के समय से ही जयपुर में रह रहा है।

ज़ेवियर जैसा की मैंने बताया एक उत्तम वास्तुकार और मानचित्रकार थे की लिगेसी को आगे लेकर आये उनके पुत्र पाड्रो डे’सिल्वा, जो सवाई माधो सिंह जी प्रथम के समय तक नगर नियोजक रहे और फिर आये मार्टिन डे’सिल्वा, जो सवाई राम सिंह जी के समय तक रहे और उन्ही की वजह से आज सभी इस सुनियोजित शहर को सुन्दर गुलाबी नगरी के नाम से जानते है।

इस परिवार के इतिहास के बारे में बहुत अधिक जानकारी दस्तावेजों में उपलब्ध नहीं होती है परन्तु यह परिवार एक समय पर खवास जी की हवेली के पास गंगापोल के नजदीक कहीं हवेली में रहा करता था। यह सभी बातें वैसे तो खवास जी और राजा माधो सिंह II से पहले की है। जोरावर सिंह गेट और चांदी की टकसाल के बीच कहीं इनकी पारिवारिक कोठी हुआ करती थी और उसी के कारण उस जगह को मार्टिन साहिब का चौक कहा जाता था। एक शहर जो सुनियोजित है में किसी चौराहे का नाम आपके नाम पर होने बेशक एक सम्मान का ही रूप है, पर क्या कभी आपने सुना है जयपुर में कोई मार्टिन साहिब का चौक भी है?

परिवार की महत्ता समय के साथ कम होती गई क्यूंकि शहर को अब नियोजकों, योजनाकारों से अधिक कुशल प्रशासकों और अर्थशास्त्रियों की आवश्य्कता थी। जब नगर नियोजन और नए विस्तार के लिए मिर्जा इस्माइल को बुलाया गया और तो मान सिंह जी ने घाट के पास एक बहुत खूबसूरत उद्यान से साथ कोठी ज़ेवियर जी के परिवार को दे दी जहाँ वे आज तक रह रहे हैं। हाल में वह जगह घाटगेट के पास है।

परिवार के लोग आज भी जयपुर में है और मिर्जा राजा सवाई जय सिंह जी ने ज़ेवियर जी को उत्कृष्ट कार्यों के लिए नींदड़-बैनाड़ की जागीर भी दी थी जो आज भी एक पुर्तगाली परिवार की जागीर है।

पुर्तगालियों का भारत में समुद्री मार्ग से आगमन सबसे पहले हुआ था और उन्होंने सबसे देर तक शासन भी किया, गोवा को पुर्तगालियों से 19 दिसंबर 1961 को आज़ादी मिली परन्तु इन्होने कभी देश को लूटने का प्रयास नहीं किया ये व्यापार करने आये थे, व्यापारी रहे हालाँकि वातावरण की बहत हवा सभी को उड़ा जाती है अतः एक समय यह भी शासन करने लगे परन्तु इनका फैलाव गोवा और बॉम्बे तक ही सीमित रहा, जो परिवार इन स्थानों से अन्य स्थानों पर गए वहीँ के हो रह गए, परम्पराओंऔर संस्कृति में मिल गए बिलकुल पारसियों की तरह।

जब देश आज़ाद हुआ और सरदार पटेल जी जयपुर में सवाई मान सिंह जी से भेट करने और जयपुर का मत्स्य संघ या राजस्थान में विलय करने आये तब डेक्लेरेशन डे वाले दिन मान सिंह जी ने मार्टिन साहिब के चौक का नाम पटेल जी के परम मित्र और देश के एक महान शहीद स्वतंत्रता सेनानी के नाम पर रख दिया जिसे आज आप सुभाष चौक के नाम से जानते है।

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Chaura Rasta and New Gate/Naya Pol/ Maan Pol

जब मानसिंह जी और गायत्री देवी जो की उनकी तीसरी पत्नी थी का विवाह हुआ तो वे अधिकतर समय उनके साथ रामबाग पैलेस (हाल में होटल रामबाग पैलेस को ताज ग्रुप ऑफ होटल्स द्वारा मैनेज किया जा रहा है) और शिकार का समय रामगढ़ लॉज (आईएचसीएल होटल्स) में बिताने लगे।

सवाई मानसिंह जी गायत्री देवी से विवाह के समय कुछ 21 वर्ष के रहे होंगे और पोलो के बहुत से बेहतरीन खिलाड़ी थे। उस समय वे इंग्लैंड से मिलिट्री ट्रेनिंग लेकर लौटे ही थे और जयपुर की नयी और पहली पोलो टीम बनाई फिर कोलकाता कप खेलने गए और उसे जीता भी साथ ही गायत्री देवी का मन भी जीत लिया।

पुराने समय में त्रिपोलिया की तरफ राजकीय पोथीखाना हुआ करता था और कुछ सर्वतो भद्रः शैली के प्रसिद्ध राजसिक मंदिर भी थे जो आज भी अपनी वास्तुकला और स्थापत्य के लिए जाने जाते है जैसे: ताड़केश्वर जी, राधा दामोदर जी, मुरली मनोहर जी, श्री सीताराम जी, काले गणेश जी, तत्काल भैरव इत्यादि।

हाल ही में जयपुर नगर निगम द्वारा रात्रिकालीन पर्यटन को बढ़ावा देने के लिए इन सभी पर फोकस लाइट्स और डीप लाइट्स को लगाया गया है।
उस समय का प्रसिद्ध पोथीखाना आज महाराजा पुस्तकालय के नाम से प्रचलित है और अपने अंदर जयपुर के हस्तनिर्मित नक्शों से लेकर संस्कृत, हिंदी, उर्दू, इंग्लिश के पुराने से लेकर नए साहित्य, विषय पुस्तकें और सरकारी दस्तावेजों को सहेजे है, 5 खंडों में फैले इस पुस्तकालय में लगभग 2 लाख से अधिक पुस्तकें है और जिनमे से कई तो आज लगभग 200 साल पुरानी हो गई है। अंतिम बार 1914 में जारी की गई कुछ इंग्लिश नोवेल्स तो मैने ही ढूंढी है वहां

खैर पुस्तकालय पर एक दिन पूरा वृतांत ही लिखना पड़ेगा अब आते है रास्ते पर, यह रास्ता पहले राजकीय सेवा में रहे या राजा के करीबी रहे महत्वपूर्ण व्यक्तियों का हुआ करता था जैसे दुर्लभ पत्थरों के बड़े व्यापारी, जयपुर एंपोरियम के भाग बड़े रंगाई छपाई वाले और अन्य मंत्री। यह सुरक्षा की दृष्टि से एक आम रास्ता नहीं था बल्कि यह एक सुरक्षित जगह थी और लोग सांगानेरी गेट और अजमेरी गेट से आया जाया करते थे।

रास्ता शहर के मुख्य लोगों के निवास स्थान को महल से जोड़ता था इसलिए इसे हमेशा घोड़ागाड़ी और मोटर व्हीकल के लिए सबसे चौड़ा बनाया गया। इसकी चौड़ाई बस उदय पोल के गेट वाले रास्ते से थोड़ी ही काम है।

जब मानसिंह जी का आना जाना रामबाग की तरफ ज्यादा हुआ और वे स्वयं सक्रिय रूप से शहर के विस्तार को देख रहे थे तब उन्होंने हैदराबाद के दीवान रहे मिर्जा मोहम्मद इस्माइल को जयपुर का दीवान बनाया और सिटी प्लानिंग की जिम्मेदारी सौंपी। इसके अंतर्गत शहर के परकोटे के बाहर कॉलेज को लगता एक सुंदर उद्यान संरक्षित किया गया उसमे से कुछ रास्तों को आरक्षित किया गया

शहर के बाहर ए स्कीम (सांगानेरी गेट से मोती डूंगरी की ओर) बी स्कीम (अजमेरी गेट से पंचबट्टी की ओर) और सी स्कीम (इनके बीच का हिस्सा) बना कर पहली बार प्लॉट काटे गए, इन प्लॉटों का आकार क्रमशः 3000, 2000 और 1000 वर्ग गज था। परकोटे के समानांतर एक चौडी सड़क का निर्माण किया गया जिसे बाद में महाराजा ने मिर्जा इस्माइल जी के उत्कृष्ट कार्यों के कारण मिर्जा इस्माइल रोड (M I Road) नाम दे दिया।

अब चूंकि शहर की जनसंख्या काफी अधिक हो चुकी थी और महाराज का अधिकतर समय परकोटे से बाहर के महलों जैसे रामबाग, मोती डूंगरी (लिलीपूल फोर्ट), मानसिंह भवन में बीतने लगा तो मिर्जा को लगा के सीधे महल से जुड़ते हुए आने जाने के लिए एक रास्ता होना चाहिए तब उन्होंने सवाई मानसिंह जी को अजमेरी गेट और सांगानेरी गेट के बीच एक और गेट होने की आवश्यकता से अवगत करवाया, चूंकि शहर काफी बढ़ चुका था और महत्वपूर्ण लोग अपने को सुरक्षित समझते थे इसलिए उन्हें भी यह विचार हाथोंहाथ पसंद आया और जैसा ही हर बार होता है जब राजा और अन्य महत्वपूर्ण व्यक्तियों को कोई विचार पसंद आता है तो उसे बनने में समय नहीं लगता है।

तो इस तरह एक नए द्वार को उस महत्वपूर्ण रास्ते पर परकोटे की दीवार तोड़ बनाया गया और चूंकि यह सबसे नया गेट था और अंग्रेजी का अलग ही रौब था तो इसे सभी के द्वारा न्यू गेट के नाम से जाना जाने लगा और आज भी यह जयपुर के महत्वपूर्ण और व्यस्ततम रास्तों और गेट्स में से है।