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Festivals of India Stories in Hindi Stories of Cities

Jaipur Shahar aur Rakhi ka Tyonhaar

श्रावण मास पूर्णिमा को उत्तर भारत में मनाया जाता है रक्षाबंधन जो यहां का एक बहुत बड़ा त्योहार है। यह पारिवारिक संबंधों की मजबूती को दर्शाने वाला और उल्लास पूर्वक मनाया जाने वाला पर्व है।

इस दिन बहनें अपने भाइयों को कलाई पर राखी बांध कर संबंधों के सतत और मजबूत रहने की कामना करती है और भाई उन्हें भेंट से इसी कामना का आश्वासन देते है। इस त्योहार की शुरुआत के बारे में बहुत की कहानियां प्रचलित है और सभी कहानियों का निष्कर्ष यही है कि सम्बन्ध का पारिवारिक होना ही नहीं उनका प्रगाढ़ होना अत्यंत महत्वपूर्ण हैं।

रक्षाबंधन के प्रारम्भ की कहानी लगभग 3000 ईसा पूर्व वेदव्यास द्वारा रचित और लगभग 500 ईस्वी में लिखित विष्णु पुराण में विष्णु के वामन अवतार के साथ जुड़ कर प्रारम्भ होती है।

Maharshi Vedavyasa

“भगवान विष्णु ने वामन अवतार लेकर असुरों के राजा बलि से तीन पग भूमि का दान मांगा। दानवीर बलि इसके लिए सहज राजी हो गए। वामन ने पहले ही पग में धरती नाप ली तो बलि समझ गए कि ये वामन स्वयं भगवान विष्णु ही हैं. बलि ने विनय से भगवान विष्णु को प्रणाम किया और अगला पग रखने के लिए अपने शीश को प्रस्तुत किया। विष्णु भगवान बलि पर प्रसन्न हुए और वरदान मांगने को कहा तब असुर राज बलि ने वरदान में उनसे अपने द्वार पर ही खड़े रहने का वर मांग लिया। इस प्रकार भगवान विष्णु अपने ही वरदान में फंस गए तब माता लक्ष्मी ने नारद मुनि की सलाह पर असुर राज बलि को रक्षासूत्र बांध कर उपहार के रूप में भगवान विष्णु को मांग लिया।”

Raja Bali and Laxmi Ji
A Vaaman Sculpture in a temple of Jaipur dipicting Charity of Land by Raja Bali

इसकी द्वितीय कहानी भक्ति परम्परा के लगभग 900 से 1000 ईस्वी के मध्य कहीं लिखे गए एक सुप्रसिद्ध ग्रन्थ भागवत पुराण में महाभारत के प्रसंग के साथ जुडी मिलती है।

“पौराणिक मान्यताओं के अनुसार महाभारत में शिशुपाल के साथ युद्ध के दौरान श्री कृष्ण जी की तर्जनी उंगली कट गई थी। यह देखते ही द्रोपदी कृष्ण जी के पास दौड़कर पहुंची और अपनी साड़ी से एक टुकड़ा फाड़कर उनकी उंगली पर पट्टी बांध दी। इस दिन श्रावण पूर्णिमा थी, इसके बदले में कृष्ण जी ने चीर हरण के समय द्रोपदी की रक्षा की थी।”

Rani Darupadi and Krishna
Cheer Haran

इसकी तृतीय कहानी लगभग 1000 से 1100 ईस्वी में लिखे गए भविष्य पुराण में मिलती है।

इसके अनुसार “सालों से असुरों के राजा बलि के साथ इंद्र देव का युद्ध चल रहा था। इसका समाधान मांगने इंद्र की पत्नी शची विष्णु जी के पास गई, तब विष्णु जी ने उन्हें एक धागा अपने पति इंद्र की कलाई पर बांधने के लिए दिया। शची के ऐसा करते ही इंद्र देव सालों से चल रहे युद्ध को जीत गए। इसलिए ही पुराने समय में भी युद्ध में जाने से पहले राजा-सैनिकों की पत्नियां और बहने उन्हें रक्षा सूत्र बांधा करती थी, जिससे वो सकुशल जीत कर लौट आएं।”

Indra Dev and Raja Bali

एक समय प्राकृतिक परंपरा को मानते हुए किसी और को राखी बांधने से पहले प्रकृति की सुरक्षा के लिए तुलसी और नीम के पेड़ को राखी बाँधी जाती थी, जिसे वृक्ष-रक्षाबंधन भी कहा जाता है। हालांकि आजकल इसका प्रचलन नही है परन्तु झारखंड और छत्तीसग़ढ के आदिवासी इलाकों में राखी को आज भी इसी प्रकार ही मनाया जा रहा है। गुरु-शिष्य परम्परा में शिष्य अपने गुरु को आज भी राखी बांधते है।

Women tying Rakhi to Trees and Celebrating

हालाँकि राखी की परम्परा ऋग्वैदिक काल से ही है और उस समय केवल ब्राह्मण लोग ही एक दूसरे को, देवताओं को और राजा को रक्षासूत्र बंधा करते थे जैसे ही यह प्रचलन में आई और सभी लोग और वर्ण इसके विश्वास को परमविश्वसनीय मानाने लगे तो यह परंपरा आगे बढ़ी और पालतू पशुओं, पीपल, गूलर, नीम, बबूल आदि वृक्षों को मौली के रूप में रक्षासूत्र बांधने लगे। गाय और घोड़ों को आज भी क्रमशः ब्राह्मणों और क्षत्रियों के द्वारा अनेक स्थानों पर रक्षासूत्र बंधा जाता है। इस पर्व के प्रारम्भ का अनुमान लगाना लगभग असंभव ही है।

Celebrating Rakhi with Cow

इस दिन ऋषि तर्पण और श्रवण पूजा का भी विधान है। इस दिन सभी सनातनी लोग श्रवण कुमार का पूजन करते हैं। इसके अलावा कुशा निर्मित ऋषियों की स्थापना करके उनका पूजन, तर्पण और विसर्जन करते हैं। श्रावण शुक्ल पूर्णिमा को ऋग, यजु, साम वेद के स्वाध्यायी ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य, जो ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ, किसी आश्रम के हों, अपने-अपने वेद कार्य और क्रिया के अनुकूल काल में इस कर्म को संपन्न करते हैं। सामान्य तौर पर वे उस दिन नदी आदि के तटवर्ती स्थान में जाकर यथा विधि स्नान करते हैं। कुशा निर्मित ऋषियों की स्थापना करके उनका पूजन, तर्पण और विसर्जन करते हैं। इसके बाद रक्षा पोटलिका बनाकर उसका मार्जन करते हैं।

क्यों की जाती है श्रवण कुमार की पूजा?

इसकी कथा रामायण के एक प्रसिद्द प्रसंग के साथ जुडी है, नेत्रहीन माता पिता के एकमात्र पुत्र श्रवण कुमार उन्हें अपने कन्धों पर बिठा कर तीर्थ यात्रा करवाने ले जा रहे थे, बीच में उन्हें प्यास लगी तो श्रवण उनके लिए पास के ही संसाधन से रात्रि के समय जल लाने गए थे, वहीं कहीं हिरण की ताक में दशरथ जी छुपे थे। उन्होंने घड़े के शब्द को पशु का शब्द समझकर बाण छोड़ दिया, जिससे श्रवण की मृत्यु हो गई। जब इसका दशरथ को पता चला तो वे श्रवण के पास गए और श्रवण ने उन्हें अपने बारे में और माता पिता के बारे में बताया ग्लानि से भरे दशरथ जब श्रवण के माता पिता के पास गए और उन्हें उस अनहोनी का बताया तो उन्होंने क्रोधवश दशरथ को पुत्रवियोग का श्राप दे डाला। जिसके पश्चात दशरथ ने उनसे अनेक बार क्षमायाचना की और पश्चातापवश श्रावण पूर्णिमा को श्रवण कुमार की पूजा आरम्भ की जो अभी तक समाज में निरंतर है। यह रात्रि श्रावण मास की पूर्णिमा ही थी।

Ayodhyapati Raja Dashrath and Shravan Kumar

इन सभी बातों का निष्कर्ष यही है की जिस प्रकार से इसकी महत्वपूर्णता आम प्रचलन में भाई-बहन तक सीमित बताई जाती है यह वास्तविकता में वहीँ तक सीमित नहीं है यह पर्व सिर्फ रक्षा पर्व नहीं है यह पर्व एक विश्वास का पर्व है जिसमे दोनों पक्ष ही याचक और दाता है जिसमे भाई-बहन अपने एक-दूसरे के प्रति प्रेम और सम्मान का आदान प्रदान कर रहे हैं और प्रकृतिवादी प्रकृति को संतुलित रख जीव मात्रा के अस्तित्व की रक्षा कर रहे हैं और गुरु शिष्य ज्ञान के आदान प्रदान के साथ अपनी परम्पराओं को आगे बढ़ा रहे हैं।

जयपुर शहर में रक्षाबंधन के साथ विशेष परंपरा जुडी हुई है यहाँ शहर की स्थापना के साथ महाराष्ट्र से बुलाये गए ब्राह्मणों में से एक प्रमुख विद्वान् और ज्योतिषाचार्य श्री सम्राट जगन्नाथ जी के वंशजों ने जिसे तार्किक और वैदिक परंपरा के अनुरूप प्रारम्भ किया। उनका दिया गया तर्क यह है की जब रक्षासूत्र के साथ एक दूसरे की रक्षा का वचन दिया जाता ही है तो राजा तो पूरे शहर और राज्य का प्रथम और मूल रक्षक है तो क्यों न उन्हें हम जनता के प्रतिनिधि के रूप में रक्षासूत्र बांध सम्मानित करें जिस से राजा भी हमें और जनता को अपने सुशासन से अनुग्रहित करें।

अतः राखी के दिन श्रावणी पूर्णिमा पर शुभ मुहूर्त पर गलता, गोविंददेव जी, गोपीनाथ जी आदि के महंत पालकी में बैठ कर महल आते थे। इस दिन सर्वतो-भद्रः सभागार में महाराजा का राखी का दरबार सजता था। शहर की सबसे पहली राखी शुभ मुहूर्त में सबसे पहली राखी संत, महंतों और धार्मिक गुरुओं द्वारा राजा को बाँधी जाती है। इसका एक परचा सिटी पैलेस के रिकॉर्ड में मिलता है सं 1881 की श्रावणी पूर्णिमा पर महंतों व गुरुओं ने महाराजा सवाई माधो सिंह द्वितीय को वैदिक मंत्रोच्चार के साथ राखी बाँधी। सम्राट जगन्नाथ के वंशज वैधनाथ ने पहली राखी बाँधी बाद में रत्नाकर पौंड्रिक के वंशज गोविन्द धर के अलावा नारायण गुरु, गंगेश्वर भट्ट, उमानाथ ओझा ने राखी बाँधी। सन 1932 के रक्षाबंधन पर दस माह के युवराज भवानी सिंह ने बहन प्रेम कँवर को राखी बांध स्वर्ण मोहर भेट करी। ईसरदा की गोपाल कँवर ने होने ससुराल पन्ना रियासत से भाई मानसिंह को रामबाग में राखी भेजी और मानसिंह ने पेटे के चार सौ रुपये मनीआर्डर किये। रामसिंह द्वितीय की महारानी रणावती भी भाई बहादुर सिंह करनसर के राखी बांधने त्रिपोलिया के किशोर निवास में 15 हथियार बंद सैनिकों के साथ रथ में गई।

सिटी पैलेस में निवास करने वाली जिस महारानी व राजमाता के भाई जयपुर के बाहर होते तो उनके लिए स्वर्ण मोहरें, पाग के साथ राखी दस्तूर किसी जिम्मेदार जागीरदार के साथ उनके पीहर भेजा जाता था। 15 अगस्त 1940 को पंडित गोकुल नारायण के जननी ड्योढ़ी में राखी का पूजन किया था और दिवंगत महाराज सवाई माधोसिंह की पत्नी राजमाता तंवराणी जी माधोबिहारी जी मंदिर से संगीन पहरों में भाई भवानी सिंह व रणजीत सिंह को राखी बांधने खातीपुरा गई।

मानसिंह की ज्येष्ठ रानी मरुधर कँवर ने अपने खजांची मुकुंदराम जी के साथ पीहर जोधपुर में व तीसरी रानी गायत्री देवी ने कामा के राजा प्रतापसिंह व ओहदेदार भंवरलाल के साथ पीहर कूचबिहार में राखी भेजी। देवर्षि कलानाथ शास्त्री जी बचपन में पिता मथुरानाथ शास्त्री के साथ राजा सवाई मानसिंह को राखी बांधने सिटी पैलेस जाते थे। उस समय जागीरदार भी अपना बकाया टैक्स जमा करवा कर राखी के लिए दरबार में आया करते थे।

राखी और उसके मुहूर्त
हिन्दू परम्पराओं में मुहूर्तों का अत्यधिक महत्त्व है और राखी के दिन अनेक महिलाएं अपने भाइयों को राखी बांधने के पश्चात ही भोजन ग्रहण करती है। अनेक अवसरों पर रक्षाबंधन के दिन भद्रा के देर से आने से मुहूर्त भद्रा के रहने तक टल जाता है।

आइये जानते हैं की यह भद्रा क्या है?
हिन्दू कलैंडर चन्द्रमा और सूर्य दोनों की गति के अनुसार चलता है और चन्द्रमा की एक कला के परिवर्तन को एक तिथि कहा जाता है और सूर्य की एक कला के परिवर्तन को दिवस। तिथियां 5 प्रकार की होती है नंदा, भद्रा, जया, रिक्ता और पूर्णा। एक तिथि दो करण के योग से बनती है और करण 11 प्रकार के होते हैं जिनमे कुछ गतिशील है और कुछ स्थिर। इन 11 करणों में से सप्तम करण का नाम है विष्टि करण जिसे भद्रा भी कहा जाता है। यह विष्टि करण एक गतिशील करण है, यह स्त्रीलिंग है और यह तीनो लोकों में घूमती है जब यह मृत्युलोक अर्थात पृथ्वी पर होती है तो शुभ कार्यों में बाधक होती है या उनका नाश कर देती है। जब चन्द्रमा कर्क, सिंह, कुम्भ और मीन राशि में विचरण करता है और विष्टि करण का योग होता है तब भद्रा पृथ्वीलोक में होती है और इस समय सभी शुभ कार्य वर्जित होते है। 21 अगस्त 2021 को मध्य रात्रि (Gregorian Date 22 August) पर चन्द्रमा मकर से कुम्भ राशि में प्रवेश करेगा और यहाँ से श्रावणी पूर्णिमा का आरम्भ होगा, विष्टि करण से तिथि प्रारम्भ होगी और यह करण 22 को सुबह 06:14 AM तक है अतः भद्रा सुबह तक ही है और रक्षाबंधन उसके पश्चात पूरे दिन मनाया जा सकता है।

पौराणिक भद्रा है कौन?
यह भगवन सूर्यदेव की पुत्री और शनि देव की बहन है और अपने भ्राता शनि की तरह ही इनका स्वभाव है। इनके इसी स्वाभाव को नियंत्रित करने के लिए भगवान ब्रम्हा ने इन्हे पंचांग में एक प्रमुख अंग विष्टि करण में स्थान दिया है। चूँकि यह शनि की बहन है और शनि न्याय के देव हैं इसी प्रकार ये भी न्याय की देवी होती हैं अतः भद्रा में हर मांगलिक कार्य वर्जित है परन्तु न्यायिक कार्यों को किया जा सकता है।

Bhadra Devi

भारत उत्सवों और पर्वों का देश है जिसमे देशज पर्व भी हैं और राज्यों के अपने विशेष पर्व भी, राखी इसी प्रकार से आधे से ज्यादा भारत में श्रावणी पूर्णिमा के दिन हर्षोल्लास से मनाया जाता है। जयपुर शहर की परम्पराओं के उल्लेख और यहाँ के विशेष प्रचलनो से यह सिद्ध होता है की इस पर्व की शहर में कितनी महत्वपूर्णता है और इसका ज्योतिष से व खगोल विज्ञान से कितना गहरा सम्बन्ध है। अतः सभी नियमो का यथोचित रूप से पालन करते हुए, त्योंहार के मूल कारण आपसी विश्वास और प्रेम को बनाये रखने के लिए हर बार की तरह इस बार भी इस पर्व को अपने परिवारजनों से साथ हर्षोल्लास के साथ मनाइये।

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